भारतीय संस्कर्ति के मूल ग्रँथों जिनमें प्रमुख है-वेदव्यास रचित गीता और महाभारत को धर्म धार्मिकता के विस्तार के नाम पर दिखाए जा रहे फ़िल्म ओर सीरियल व स्वतंत्र रचित पुस्तक व टिप्णियों पर लिखना अमान्य व निषेध हो।ये मूल ग्रँथ में लिखे गए तथ्यों का अपमान है।

भारतीय संस्कर्ति के मूल ग्रँथों जिनमें प्रमुख है-वेदव्यास रचित गीता और महाभारत को धर्म धार्मिकता के विस्तार के नाम पर दिखाए जा रहे फ़िल्म ओर सीरियल व स्वतंत्र रचित पुस्तक व टिप्णियों पर लिखना अमान्य व निषेध हो।ये मूल ग्रँथ में लिखे गए तथ्यों का अपमान है।

हमारे धार्मिक ग्रँथों में लिखे गए सभी तथ्यों से उन्हें एक्सप्लेन यानी विश्लेषण करने व विस्तार करने के नाम पर किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ हमारे धार्मिकता को विकृत करना निषेध है।ये धार्मिक कट्टरता नहीं है,बल्कि जो लिखा गया,उसका सम्मान नही करना है।या उसे गलत ठहराना अर्थ है।यो जो लिखा गया है,ठीक वही पालन करना ही धर्म है।व्यक्तिगत धार्मिकता की
स्वतंत्रता के लिए स्वयं का स्वतंत्र धर्म नियम के विषय मे यहां बात नहीं कि जा रही है,बल्कि केवल जैसे बाल्मीकि रामायण या रामचरित्र मानस या महर्षि वेदव्यास लिखी महाभारत व मूल गीता के नाम पर उसकी मनचाही व्याख्या करने वाली कथित गीता और उनकी व्याख्या मान्य नहीं है,वे गीता का नाम भी अधिकतर व उपयोग करने के अधिकारी नही है।यो सरकार व न्यायालय से अनुरोध है कि-वे इस पर अपने न्यायिक आदेश करें।

गीता पर भाष्य लिखने की प्राचीन से वतर्मान तक श्रंखला:-

संस्कृत साहित्य की परम्परा में उन ग्रन्थों को भाष्य (शाब्दिक अर्थ – व्याख्या के योग्य), कहते हैं, जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की वृहद व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते हैं। भारतीय दार्शनिक परंपरा में किसी भी नये दर्शन को या किसी दर्शन के नये स्वरूप को जड़ जमाने के लिए जिन तीन ग्रन्थों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना पड़ता था (अर्थात् भाष्य लिखकर) उनमें भगवद्गीता भी एक है (अन्य दो हैं- उपनिषद् तथा ब्रह्मसूत्र)।

गीता पर उपलब्ध अनेक अचार्यों एवं विद्वानों ने टीकाएँ की हैं। संप्रदायों के अनुसार उनकी संक्षिप्त सूची इस प्रकार है :-

(अ) अद्वैत:-शांकराभाष्य, श्रीधरकृत सुबोधिनी, मधुसूदन सरस्वतीकृत गूढ़ार्थदीपिका।
(आ) विशिष्टाद्वैत:-
(१) यामुनाचार्य कृत गीता अर्थसंग्रह, जिसपर वेदांतदेशिककृत गीतार्थ-संग्रह रक्षा टीका है।
(२) रामानुजाचार्यकृत गीताभाष्य, जिसपर वेदांतदेशिककृत तात्पर्यचंद्रिका टीका है।
(इ) द्वैत:- मध्वाचार्य कृत गीताभाष्य, जिसपर जयतीर्थकृत प्रमेयदीपिका टीका है, मध्वाचार्यकृत गीता-तात्पर्य निर्णय।
(ई) शुद्धाद्वैत:- वल्लभाचार्य कृत तत्वदीपिका, जिसपर पुरुषोत्तमकृत अमृततरंगिणी टीका है।
(उ) कश्मीरी टीकाएँ:- १-अभिनवगुप्तकृत गीतार्थ संग्रह।
२-आनंदवर्धनकृत ज्ञानकर्मसमुच्चय।
इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र संत ज्ञानदेव या ज्ञानेश्वरकृत भावार्थदीपिका नाम की टीका (१२९०) प्रसिद्ध है,जो गीता के ज्ञान को भावात्मक काव्यशैली में प्रकट करती है। वर्तमान युग में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलककृत गीतारहस्य टीका,जो अत्यंत विस्तृत भूमिका तथा विवेचन के साथ पहली बार १९१५ ई.में पूना से प्रकाशित हुई थी, गीता साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। उसने गीता के मूल अर्थों को विद्वानों तक पहुँचाने में ऐसा मोड़ दिया है,जो शंकराचार्य के बाद आज तक संभव नहीं हुआ था। वस्तुत: शंकराचार्य का भाष्य गीता का मुख्य अर्थ ज्ञानपरक करता है जबकि तिलक ने गीता को कर्म का प्रतिपादक शस्त्र सिद्ध किया है।

गीताभाष्य:- आदि शंकराचार्य।
गीताभाष्य:- रामानुज।
गूढार्थदीपिका टीका:- मधुसूदन सरस्वती।
सुबोधिनी टीका:- श्रीधर स्वामी
ज्ञानेश्वरी:- संत ज्ञानेश्वर (संस्कृत से गीता का मराठी अनुवाद)।
गीतारहस्य:- बालगंगाधर तिलक।
अनासक्ति योग:- महात्मा गांधी
Essays on Gita – अरविन्द घोष।
ईश्वरार्जुन संवाद:- परमहंस योगानन्द।
गीता-प्रवचन:- विनोबा भावे।
गीता तत्व विवेचनी टीका:- जयदयाल गोयन्दका।
भगवदगीता का सार:- स्वामी क्रियानन्द।
गीता साधक संजीवनी (टीका):- स्वामी रामसुखदास।
भगवद्गीता पर उपलब्ध सभी भाष्यों में श्री जयदयाल गोयन्दका की तत्व विवेचनी सर्वाधिक लोकप्रिय तथा जनसुलभ है। इसका प्रकाशन गीताप्रेस के द्वारा किया जाता है। आजतक इसकी 10 करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं।
प्रभुपाद इस्कॉन वालो की श्रीमद्भागवत गीता और उस पर अपनी विवेचना है।इनकी भी बहुत बिक्री है,बिक्री हमारा विषय नहीं है,बल्कि

अब यहां यही तो न्यायालय से मांग है,की इन सभी के कारण गीता का जो समाज की समझ मे नहीं आ रहा है,उसे समझाने के नाम पर जो अपने अनुसार मनचाहा भाष्य हुआ,जिससे सामान्य जन को समझ आया कहा गया,पर इससे गीता का मूल स्वरूप से भाष्य के विस्तार के नाम पर ओर भी श्लोकों से लेकर उन्हें समझाने के लिए अन्य उदाहरणों की भी व्रद्धि होती चली है,जिससे मूल श्लोकों का सीधा सीधा अर्थ अपना ओर विस्तार पाकर भटकाव को प्राप्त हुआ है,ओर यही हमारा विषय है,की जो है,वो वैसा ही रहना चाहिए।जबकि उस मूल लेखक ने उसका जो उत्तर होना चाहिए,वह उन्ही श्लोकों आदि के क्रम से समझाते हुए आगामी श्लोकों से पूर्ण करते हुए अंत तक सभी अर्थों को स्वयं ही सम्पूर्ण किया है,यो किसी भी अन्य अर्थ के नाम पर मूल ग्रँथ का विस्तार मूल लेखक और उसके चिंतन का अपमान है,यदि जो ज्ञानी लोग भाष्य के नाम पर मूल ग्रँथों में बदलाव ही लाना चाहते है,वे सब मूल ग्रँथ में जो नहीं है,जो उन्हें उसमे शेष रह गया लगता है,उससे आगे किसी भी अपनी रचना के नाम पर प्रमाण के साथ लिखें,इसमे हमें कोई आपत्ति नही,वो विचार धारा का विस्तार होगा,जो वेदों का अर्थ है कि-वेद माने विस्तार।यो अपनी स्वतंत्र रचना करें,मूल ग्रँथ में कोई भी किसी भी प्रकार का विश्लेषण आदि विस्तार के नामों से बदलाव स्वीकार नहीं,ये मूल ग्रन्थकार के चिंतन सहित उसके लेखन रचना का अपमान है।ओर यही हमारा न्यायालय से अनुरोध है,जो कि नहीं किया जाए।ओर इस विषय पर मैने अपनी यही याचिका दायर की है।

प्रार्थी-
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
सत्य ॐ सिद्धाश्रम शनिदेव मन्दिर कोर्ट रोड़ बुलन्दशहर उतर प्रदेश भारत।

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