19 अप्रैल 2019 शुक्रवार को पुरुषों द्धारा अपनी पत्नियों के सर्व भौमिक उन्नति और परिवार में गृहस्थी सुख शांति की प्राप्ति को पांचवी बार प्रेम पूर्णिमा व्रत मनाया जा रहा है।जिसका उद्धेश्य ईश्वर के जीवित प्रेम स्वरूप रूप स्त्री और पुरुष के परस्पर प्रेम की दिव्यता को आपसी सम्बंधों में प्रकट करना है।केवल स्त्री के ही हिस्से में पुरुष के प्रति अपना प्रेम समर्पण प्रकट करने और ये जताने और बताने को प्रमाण नहीं रह गया है की-मैं आपसे प्रेम करती हूँ।और आपके लिए ही ये सारा जीवन न्यौछावर है यानि ये पुरुष के प्रति अर्पित जीवन का एक तरफ़ा संकल्प जिसे व्रत कहते है यानि करवा चोथ व्रत करके अपने प्रेम को पुरुष पति के प्रति प्रमाणित करना।यो जो वेदिक काल में ईश्वर का एक दूसरे के प्रति जीवित प्रेम के नो स्तर बताये थे,वे ही नवधा प्रेमा भक्ति कहलाते है।यही चैत्र नवरात्रि के बाद आने वाली चैत्र पुर्णिमां को पुरुष प्रेम पूर्णिमां व्रत मनाते है और उसके ठीक 7 वें माह में स्त्री पुरुष के लिए करवा चोथ व्रत मनाती है।तो सच्ची नवधा प्रेमा भक्ति क्या है?जिससे इसी जीवित गृहस्थी संसार में प्रेम की दिव्यता की प्राप्ति करके आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति की जा सकती है,बता रहें हैं-स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…
प्रेमा भक्ति के सच्चे 9 प्रेम स्तर और नवरात्रि से प्रेम पूर्णिमां तक सच्चा अर्थ:-
ये सत्यास्मि ग्रन्थ के सत्संग भाग से लिया गया है की- ईश्वर यानि परमात्मा के दो प्रत्यक्ष भाग है-1- पुरुष और-2-स्त्री इन्ही का नो भेद ही नवरात्रि है जिसके चार भाव भाग है-1-अर्थ-2-काम-3-धर्म-4-मोक्ष और इन्हीं चारों भावो को जो अपने जीवन में ज्ञान से समझ अनुभव करता है उसी के जीवन में दिव्य प्रेम के आत्मसाक्षात्कार की प्रेम पूर्णिमाँ की प्राप्ति होती है।जो इसके अलावा किसी अन्य ईश्वरीय भाव का विचार कर साधना करता है,वह मनुष्य यानि स्त्री और पुरुष सदा नो प्रकार के अंधकारों से घिरा रहकर जीवन भर प्रेम विहीन दुखों की प्राप्ति करता है।और बाद के काल यानि वर्षों में जो आत्मा ही परमात्मा है, उसकी व्याख्या-एक ईश्वर है और एक जीव् है यो इस जीव को उस ईश्वर की नो दिनों की नवधा भक्ति करनी चाहिए,यो करके इस संसार में जो जितने श्री राम और श्री कृष्ण आदि अवतार आये है जिन्होंने किसी भी अप्रत्यक्ष अज्ञात ईश्वर की आराधना करने का कोई उपदेश नहीं दिया बल्कि उन्होंने अपने जीवन में सभी कुछ प्रत्यक्ष कर्म करते हुए प्रत्यक्ष मनुष्य-स्त्री और पुरुष से प्रेम करने का ही संदेश दिया और वो करके दिखाया है।उनका वो महाभाव कथित प्रेमीजनों ने मिटाकर उनके उपदेशों के विपरीत इस प्रत्यक्ष स्त्री और पुरुष में सच्चे प्रेम के नवधा भक्ति उपदेशों को बदल दिया जिसका आज वर्तमान मनुष्य प्रेमहीन वासनायुक्त अज्ञान अवस्था में रहकर दुःख पीड़ा पा रहा है।जबकि सच्चा अर्थ है जो संछिप्त में नीचे दिया है:-उसका मंथन करें और परस्पर सच्चा प्रेम और प्रेम की भक्ति ओर प्रेम की शक्ति को प्राप्त करें:-
यही प्रत्यक्ष दिव्य प्रेम के नवधा भक्ति, जिन्हें नवरात्रि के नवशक्ति दिवस भी कहते है उस में कैसे नव दिवस की अमावस से नो ज्ञान के सच्चे अर्थो का पूजन करते हुए प्रेम की पूर्णिमाँ का आत्मसाक्षात्कार करें आओ जाने:-

श्रवणं कीर्तनं प्रेमो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनम्।।
यो प्रेम सत्संग कहता है की:-
प्रेम का दीप जलाये
प्रेम की धुप सुगंध।
प्रेम का अर्चन वंदन कर
प्रेम पाइए दिव्य अबंध।
प्रेम ही भक्ति नर नार है
प्रेम ही शक्ति नर नार।
प्रेम बिन जीवन नवरात्रि
प्रेम ही पुर्णिमा नवधा सार।।
अर्थ कहे प्रेम आधार को
नार को नर,नर को नार।
काम का अष्ट शोधन कर्म है
यही धर्म ज्ञान मोक्ष चार सार।।
अर्थात:- नवधा भक्ति:-
मैं बना दो अर्द्ध मैं
और तब एक मैं बन पूर्ण।
इतने मैं हूँ तू रहे
मिले प्रेम नहीं सम्पूर्ण।।
1-श्रवण:-
मैं त्याग मैं मौन हो
तू बोल मैं सुन।
यही दोनों और घटे
यही श्रवण प्रेम का गुन।।
-अर्थात-1-श्रवण:-
जिससे प्रेम करते हो उस प्रेमी और प्रेमिका की सभी जीवन कथा और व्यथा में छिपे तथ्यों को अतृप्त और पिपासा भाव से अपना अहं यानि मैं हटा कर सुनना जिससे आपस में सच्चा राग,अनुराग बढ़ता है यही श्रवण भाव का गुण है।
2-कीर्तन:-
तू ही मैं तेरी सदा जय
तुझ बिन नहीं विचार।
आनन्द उत्साह एक लक्ष्य तू
यहीं प्रेम कीर्तन नर नार।।
अर्थात-2-कीर्तन:-
अपने प्रेमी और प्रेमिका के अतिरिक्त अन्य किसी भी परजन के चरित्र के विषय में विचार नहीं करते हुए केवल उसके ही नाम को आनन्द और उत्साह से मन वचन से लेना ही कीर्तन कहलाता है।
3-स्मरण:-
पंच इंद्रिय के पीछे जो
वही मन तू करे सद वरण।
भूले भान निज देह भिन्न
यही अद्धभुत प्रेम स्मरण।।
अर्थात-3-स्मरण:-
जिससे प्रेम है उस में छिपे उस प्रेम अंकुर को उकेरना उसे सम्पूर्णता तक लाने के लिए अपनी प्रत्येक प्रयत्न में जो कमी है उसे स्मरण करना और उसे सुधारना ही सच्चा प्रेम स्मरण कहलाता है।
4- पाद सेवा:-
अहं को डाले प्रेमी चरण
और सेवक बन रहे शेष।
मिटे प्राप्ति की वासना
प्रेम मिले पाद सेवा गुण विशेष।।
अर्थात-4-पाद सेवा:-
सदा अपने अहंकार को मिटाना की ये तो मेरे प्रेमिक के चरणों में ही उत्तम लगता है इसका यहां कोई अर्थ नही है और प्रेम प्रयत्न करना ही पाद सेवा कहलाती है।
5-अर्चन:-
मन वचन कर्म सब एक रख
एक प्रेमिक ही सर्वत्र।
उसी के आश्रय सभी सुख
यही अर्चन प्रेम पवित्र।।
अर्थात-5-अर्चन:-
अपने मन और वचन और कर्म से सदा अपने प्रेमिक जन के हित को प्रेम प्रयत्न करना ही अर्चन कहलाता है।
6-वन्दन:-
अधिकार भाव जब मिटे
और मिटे प्राप्ति निज भय।
मैं का नमन क्रंदन बिन इच्छा हो
तब प्रेम वन्दन पाये निर्भय।।
अर्थात-6-वन्दन:-
अपने प्रेम के प्रेमिक स्वरूप को ही अपने ह्रदय में स्थापित करना उसी का ध्यान करना ही वन्दन कहलाता है।
7-दास्य:-
तू स्वामी मैं सेवक तेरा
जैसी इच्छा हो सो तेरी।
लेश मात्र प्राप्ति भाव नहीं
दास्य सुख प्रेम पाये बिन देरी।।
-7-दास्य:-मैं का भाव समाप्त करना और केवल प्रेम के भाव को ही प्राथमिकता और अंतिम मानने के भाव का सर्वोच्च विकास करने का नाम ही दास्य भाव कहलाता है।
8-सख्य:-
मेरा हित अहित तेरे हाथ
तू मेरा सखा अभिन्न।
दोनों और यहीं मित्र भाव हो
सख्य पाये प्रेम चरम दिन।।
अर्थात-8-सख्य:-
अपने प्रेमी और प्रेमिका की ही अपना सच्चा मित्र अनुभव करना और उस मित्रता के भाव को सदा धारण किये रहना ही सख्य भाव कहलाता है।
9-आत्मनिवेदन:-
मैं मिटा और तू शेष
दोनों और मिटे मैं अहं।
दो आत्मा प्रकट एक हो
आत्मसाक्षात्कार प्रेम तब रहं।।
अर्थात-9-आत्मनिवेदन:-
जब ऊपर के सभी भावों के पालन से प्रेमी का सम्पूर्ण मैं यानि अहंकार की समाप्ति हो जाती है तब उसमें अपनी स्वतंत्र सत्ता की कोई अनुभूति नहीं रहती है तब वो जिससे प्रेम करता है उसी को अपने में अनुभूत करता है ऐसा दोनों ही और होता है तब केवल दोनों के बाहरी और अंतर शरीरों में केवल प्रेम का ही वास होता है सभी अष्ट वासनाएं मिट जाती है तब अहंकार नष्ट होकर शुद्धाशुद्ध प्रेम ही शेष रहता है उसी अवस्था का नाम आत्मनिवेदन कहलाता है।
यही है-प्रत्यक्ष दिव्य प्रेम के नवरात्रि की अंधकार से दिव्य प्रेम प्रकाश को देने वाली नवधा भक्ति का प्रेम प्रकाशित पूर्णिमां का नवधा प्रेमव्रत का प्रेम दर्शन फल की अतुलनीय प्राप्ति यानि प्रेम आत्मसाक्षात्कार कहलाता है।।और इसके परस्पर सही से करने से ही अनावश्यक तलाक,प्रेम सम्बन्ध विच्छेद,विद्रोही संतान,अशांत त्रस्त ग्रहस्थ जीवन,कालसर्प दोष,पितृदोष आदि सभी दोषों समाप्त होक आपको मिलेगा सच्चा निवारण।यो अवश्य इस प्रकार की प्रेमा भक्ति को अपनाते हुए आने वाले प्रेम पूर्णिमां व्रत को मनाइये।
जो चाहे दिव्य प्रेम सुख
वो मनाये प्रेम पूर्णिमां व्रत।
स्त्री पुरुष सन्तान सुखी
कर नवधा प्रेमा भक्ति कृत।।
इसी लेख के आगामी भागों में आपको दिव्य प्रेम की प्रेम पूर्णिमां व्रत मनाने के द्धारा हुए चमत्कारी कथाओं का कहा जायेगा।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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