क्या आप भी दिव्यास्त्र प्राप्त करना चाहते है,जैसा कि,भीष्म ने अपने गुरु परशुराम को 23 दिनों के भयंकर युद्ध के बाद अपने पितरों व अष्ट ब्राह्मण यानी अष्ट वसुओं से प्राप्त किया और अगले दिन के युद्ध मे परशुराम जी को परास्त कर दिया था,,
ओर जाने की किस करवट सोने से हमें,बिन किसी मन्त्र सिद्धि के हो केवल अपने किये गए इच्छा संकल्प से पितरों व अष्ट ब्राह्मण शक्तियों के दर्शन होते है,जो देते है,मनवांछित वरदान,,
प्रार्थना करते दायीं करवट सो जाओ,,
दायां स्वर चलाओ,
कैसे ओर कहां से प्राप्त होते है,ये दिव्य अस्त्र, जो आज तक किसी को ढूढने पर नहीं मिलते है,ओर कहां से आकर फिर वापस कहां छिप जाते है,ये दिव्य अस्त्र? जो सबके पास भी थे,ओर केवल अपनी विजय के लिए ही,कोई नया दिव्यास्त्र कैसे बनाते है,ये महान योद्धा?

ये विधि का संछिप्त वर्णन पढा महाभारत के उद्योगपर्व के,पृष्ठ,,574 पर,,भीष्म ओर परशुराम का युद्ध और उसकी समाप्ति,,,
तब मैंने वैसा ही आजमाया तो लगातार आठवें दिन अष्टमी की रात्रि में मैने देखा कि,,एक महात्मा बड़े तेजस्वी है,जो मुझे देख कह रहे थे कि,देखों, जो तुमने महाभारत में लिखा पढा है,तो जानो की,उससे पहले इन पक्षो पर भी दृष्टि दालों,की,
पहली की वे सब के सब देवता पुत्र थे,उनकी कुंडलिनी पृथ्वी के मनुष्यों के बिलकुल भिन्न जाग्रत होती है
ओर इसके लिए योगियों की अनन्त वर्षों से किये गए अपने मनुष्य शिष्यों पर योग शक्ति के प्रयोगों से ओर दिव्य ओषधि के उपयोगों से,उनके शरीर को स्थूल शरीर से ऊपर सूक्ष्म शरीर से ओर ऊपर,केवल विज्ञानमयी शरीर के सातवें शरीर के तीसरे शरीर में स्थिर किया,जहां नाभि चक्र अपनी सम्पूर्ण शक्ति से जाग्रत होता है,नाभि चक्र ही इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्थूल से लेकर सूक्ष्म और आगे उसके कारण ब्रह्मांड तक के समस्त विज्ञान का महाज्ञान का कारक चक्र है,इसी चक्र के जागरण को कहा गया है कि,जो इस चक्र को जाग्रत कर लेता है,वह सम्पूर्ण ब्राह्मण की सृष्टि का ज्ञान हो जाता है।

को जान जाता है।
तब उसी चक्र का अगला सम्बन्ध होता है,ह्रदय चक्र से,ये चक्र प्रकृति के ह्रदय चक्र से नहीं बल्कि ये चक्र,मनुष्य के सूक्ष्म शरीर मे सीधे भाग की ओर स्थित होता है,जहां जाकर विज्ञानमयी समाधि की प्राप्ति होती है,जहां की गई इच्छा और उसको पूरी करने की महाशक्ति की प्राप्ति होती है,यहां केवल रजगुण शक्ति यानी क्रियाशक्ति ही रहती है,जिसे संसार त्रिदेवी-कोई इसे गायत्री-सावित्री-सविता,,तो कोई सरस्वती-लक्ष्मी-आदि शक्ति की संयुक्त शक्ति श्री विद्या देवी के नाम से जानता है,इसी श्री विद्या के दो महागुरु जानकार है-1-ब्रहस्पति देव-2-शुक्राचार्य।यो महागुरु इस श्री विद्या ज्ञान के दोनों पक्षों के ज्ञान नाम है-ज्ञान का सकारात्मक पक्ष और ज्ञान का नकारात्मक पक्ष।दोनों समान शक्तिशाली है।
यो इन दोनों महाज्ञान के दो पक्षो के शिष्यों को ही देव और दैत्य कहते है,ओर ये ही इस सम्पूर्ण ब्राह्मण में आधे आधे पर शासन करते है,जैसे क्रिया ओर प्रतिक्रिया का संघर्ष रूपी विश्व के सभी प्रकार के विकास की कथित लड़ाई,कभी कोई विजयी तो कभी कोई,यो दोनों ही मत्युजंय विद्या के जानकर होने मृत्युंजयी भी है,ये स्थूल शरीर से मरते है,पर ये सूक्ष्म शरीर मे सदा जीवित रहते है,फिर जन्म लेकर फिर लड़ते है,यही चलता है,जिसे शाप व वरदान की अद्धभुत लड़ाई है,जो बड़ी रहस्यमयी है,इसी की कथा संसार अपने अपने धर्म गर्न्थो में पढ़ते है,
तो,तब इस नाभिचक्र की ब्रह्मांड की सारी ऊर्जा को उपयोग कर कुछ भी इस ब्रह्मांड की नवीन सृष्टि से लेकर इसे नष्ट करने और या फिर इसे सन्तुलित करने के अस्त्रों को बनाया जाता है,,ओर यही सारा रहस्य है,,क्योकि मनुष्य या प्रत्येक जीव की नाभि चक्र ही,उसके शरीर के पांचों शरीर का हो या इस विश्व ब्रह्मांड के पांच ब्रह्मांडो का मध्य केंद्र बिंदु चक्र है,जिसे सूर्य कहते है,जिसमे से हमारे शरीर मे तो 72 हजार नाड़ियों यानी मनोहवा नाड़ियों के माध्यम से 49 से और भी अधिक की प्राण शक्ति वायु एक एक करके ऊर्जा रश्मियों बनकर इस शरीर से लेकर समस्त ब्राह्मण में सम्बन्ध बनाती हुए बहती है,ओर वहां से आती और जाती है,जो इन 72 हजार ऊर्जा रश्मियों के रहस्य को जितना अधिक उपयोग करके जानता है,वो उतना ही महायोगी ओर विज्ञान के सभी इच्छित चमत्कारों को करने में सक्षम होता है,
ओर हर एक मनोवहा नाड़ी से सप्त रश्मि की संयुक्त शक्ति से बनी एक अलग अलग बनी एक ऊर्जा रश्मि के प्रवाह से एक अलग ऊर्जा शक्ति से कोई भी अस्त्र या वस्तु बनाई जाती है,जो उस बनाने वाले कि इच्छा से नियंत्रित ओर उसी की इच्छा से नष्ट या किसी ओर को दी जा सकती है।ये ही दिव्य अस्त्रों के निर्माण या अन्य चमत्कारिक वाहन या यंत्र आदि से लेकर नवीन भवन ग्रह,लोक आदि की सृष्टि की जाती है।
तो समझे-पहले अपने गुरु के दिये इष्ट या गुरु मंत्र के केवल मूल एक बीजमंत्र को जाग्रत यानी चेतन्य करो,फिर उससे खुलेगा,आपके जपने वाले मन्त्र की अगली बीजमन्त्र की शक्ति कड़ी,ऐसे ही आपके मन्त्र की जो भी शक्ति कलाएं है,वे एक एक करके सम्पूर्ण रूप से जाग्रत होती है,तब उस मन्त्र के सभी बीजमंत्रों की महाशक्ति एक बनकर जाग्रत होकर मन्त्र का रूप धारण करती है।उसे ही मन्त्र इष्ट दर्शन कहते है,ओर उसी रूप से मिलती है,वरदान रूपी इच्छा शक्ति और इसी से आपके मन्त्र की महाशक्ति में जो मूल सूर्य व चन्द्र शक्ति है,उनके अलग अलग अनुपात से ही इन नाभिचक्र की कोई एक मनोवहा नाड़ी से विश्व ऊर्जा से शक्ति की प्राप्ति से जुड़ा ओर अधिकार पाया जाता है और उसी प्राप्त मनोहवा नाड़ी से विश्व ब्रह्मांड में कहीं भी आया और जाया जा सकता है।पलक झपकते ही क्षण भर में।
तो इस सबसे पहले अपनी स्वर शक्ति को अधिकार किया जाता है,दाएं स्वर से सूर्य शक्ति ओर उसकी सप्त रश्मियों पर और बाएं स्वर से चन्द्र शक्ति ओर उसकी सोलह रश्मियों पर अधिकार पाना पड़ता है।वही करना ही,शरीर रूपी इस ब्राह्मण को उसी दिशा में स्थिर किया जाता है,इस स्थिरता करने की क्रिया को ही दाएं व बाएं लेटना कहते है।
तो लोटे वहीं,जहां से प्रारम्भ हुए थे,तो इस सबको जानो ओर इस रहस्य को अपनी बुद्धि व विवेक और निरंतर चिंतन से जानने पर नित्य प्रातः,दोपहर ओर साय व रात्रि के महाक्षण यानी 12 बजे के महाशून्य समय पर निरंतर अभ्यास करो ओर पाओ मनचाही सिद्धि लाभ।
ओर कहकर वे महात्मा अंतर्ध्यान हो गए और फिर जितना समझ आया,उसको जानकर अभ्यास किया,ओर प्राप्ति में रेहि क्रियायोग ओर अन्य ज्ञान की एक एक करके,प्राप्ति होती चलती है।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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