बता रहें है,स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी,,
1:-भीष्म विष्णु लोक के अष्ट वसुओं में से एक वसु थे,जिन्हें दुर्वासा मुनि का शाप मिलने से पृथ्वी पर गंगा जी और शांतनु,, के भोग योग से
जन्म मिला था और अष्ट वसुओं में से अंतिम वसु रहे,इनका नाम देव व्रत था।
2:-ये महर्षि परशुराम जी के शिष्य थे,उनसे ओर देवताओं से सम्पूर्ण दिव्य अस्त्र विद्या सीखी थी।
3:-ये शिक्षा ग्रहण करने के बाद उस काल मे प्रचलित परम्परा प्रथा,यानी पहले ब्रह्मचर्य शिक्षा यानी विद्याकाल ओर फिर ग्रहस्थ जीवन यानी विवाहित जीवन, फिर वानप्रस्थ व फिर सन्यास राज गद्दी पर बेठते ओर विवाह भी करते,पर तभी ये घटना घट गई कि,इनके पिता शांतनु को गंगा जी के जाने के बाद, सत्यवती से प्रेम हो गया और उससे विवाह में सत्यवती के पिता की तीन इच्छा वचन आड़े आ गए,की-
1-केवल सत्यवती की सन्तान ही राजगद्दी पर बैठे।
2-देवव्रत यानी भीष्म को अविवाहित रहना होगा,अन्यथा यदि देवव्रत ने विवाह किया तो,उसकी संताने राजगद्दी को लेकर सत्यवती की संतानों से युद्ध कर सकती है।
-3-देवव्रत को अपने पिता और सत्यवती की संतानों की रक्षा में ओर हस्तनापुर की राजसिंहासन की रक्षा के लिए आजीवन सेवार्थी बने रहना होगा।
4:-यो ही सत्यवती की उपस्थिति में,उनके पिता को दिए ये तीन वचनों की अखण्ड प्रतिज्ञा यानी ‘”भीषण प्रतिज्ञा” को धारण करने पर इनके पिता शांतनु से देवव्रत को भीष्म नाम ओर इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था।
ठीक यहां दो प्रमुख बातें है कि-ये अपने वंश को चलाने को विवाह करते,यो ये पहले अखण्ड ब्रह्मचारी नही थे,क्योकि यदि ये अखण्ड ब्रह्मचारी होते तो,पहले ही कह देते की,मैं तो वैसे भी विवाह नहीं करना चाहता हूं,यूँ ये वचन वाली परेशानी आती ही नहीं,समझे भक्तो,
अब दूसरी बात की इन्हें परिस्थिति वश ऐसा ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना पड़ा,तो यहां ये परिस्थिति वश ब्रह्मचारी बने,न कि स्वयं की आत्मिक इच्छा से ब्रह्मचारी बने थे,यो इनका ब्रह्मचर्य केवल एक वचन मात्र ही था।
दूसरा ये की, दिव्य अस्त्र की विद्या तो पहले से ही जानते थे,जो उस समय केवल परशुराम जानते थे,फिर उनके शिष्य द्रोणाचार्य व कृपाचार्य व कर्ण जानते थे और द्रोणाचार्य से अर्जुन को ये दिव्यास्त्र विद्या आती थी।
यो ये सब समान दिव्य अस्त्रधारी ओर सामांतर योद्धा थे,यो यहां द्रोणाचार्य गृहस्थी थे,उनके एक पुत्र था अश्वत्थामा व कृपाचार्य गृहस्थी थे और कर्ण व अर्जुन आदि भी गृहस्थी थे, तब भी ये उतने ही बलि थे,जितने की,भीष्म बलि थे।यो यहां भीष्म का अखण्ड ब्रह्मचर्य कोई भी अतिरिक्त मायने नहीं रखता है।समझे भक्तो।
ओर ना तो इस प्रकार के अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत के करते रहने से, भीष्म में कोई दिव्य दृष्टि थी और ना ही गृहस्थी होते हुए भी, द्रोणचार्य व कृपाचार्य व कर्ण या अर्जुन में दिव्य दृष्टि थी,यदि होती तो,इन सबको आगे होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों का भलीभांति ज्ञान होता और इतना पक्षपाती युद्ध नहीं करते और न होता।यो ये केवल उस काल में विज्ञानवादी योद्धा मात्र थे।क्योकि अर्जुन ने तो घनघोर तपस्या की थी,तब भी उसमे कभी भी दिव्य दृष्टि नहीं पैदा हुई,क्योकि उसने सारी की सारी तपस्या को केवल दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति को ही किया था।
तो यहां भीष्म का आप सबमे प्रचलित कथा,,अखण्ड ब्रह्मचर्य ओर उसकी कथित दिव्य शक्ति मिलने का कोई अर्थ मायने नहीं है।समझे,भक्तो।
उस काल मे केवल वेदव्यास को ही दिव्य दृष्टि मिली हुई थी और जबकि वे अखण्ड ब्रह्मचारी भी नहीं थे,क्योकि उनके द्धारा ही इनकी भी माता सत्यवती के तीनो पुत्रों विचित्र वीर्य आदि की तीनों पत्नियों में से दो और एक दासी से ही धृष्टराष्ट ओर पांडु ओर विदुर हुए थे,यो वेदव्यास की अखण्ड ब्रह्मचारी नहीं होने पर भी उनमे दिव्य दृष्टि से लेकर दिव्य दृष्टि को दूसरों के देने की भी वरदानी शक्ति थी,जैसे वेदव्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि देकर धृष्टराष्ट को साक्षात महाभारत युद्ध देखने की सुविधा प्रदान की थी और ऐसी शक्ति तो किसी भी अन्य में नही थी,जिसमे यहां तक कि कृष्ण और अर्जुन के गीता संवाद को भी देखा और बोला था,जो कि किसी ओर ने नहीं देखा,ये तो था तीन स्त्रियों से तपोबल सम्भोग करके भी,ज्यो के त्यों शक्तिवान बने रहने की वेदव्यास की सिद्ध शक्ति और ऐसी ही दिव्य दृष्टि ओर दिव्य योग शक्ति थी कृष्ण जी मे,जो कि कम से कम आठ पत्नियों ओर राधा और अनगिनत गोपियों के साथ रासलीला करते थे,यानी भोगी भी ओर योगी भी।
यो सार ये है कि,भीष्म पितामह में जो दिव्य शक्ति थी,वो केवल पिता शान्तनु, जो कि पहले गंगा से आठ पुत्र पैदा करके भोगी थे,फिर सत्यवती से भोग करके तीन पुत्र पैदा किये और अपने पुत्र की भीषण प्रतिज्ञा करने से प्रसन्न होकर,जो देवी देवता भी वरदान नहीं दे पाए,वो इच्छा मृत्यु का भी वरदान दे गए,तब ये इच्छा मृत्यु वरदान को देने की शक्ति किसमें थी,रक भोगी गृहस्थी शान्तनु में,ओर उस वरदान की प्राप्ति ओर के मिलने से ही भीष्म में निडरता थी कि,उस समय के सभी दिव्य अस्त्र तो मुझे प्राप्त है ही ओर जब भी कोई युद्घ होगा,तो मेरी इच्छा बिना मुझे कोई नहीं मार सकता है।यो वे निडर लड़ते ओर जीतते थे।नाकि वे अपने अखण्ड ब्रह्मचर्य के बल से जीतते थे।समझे भक्तो।
ओर जबकि अर्जुन ने अनेक विवाह किये और द्रोपती से एक पुत्र और सुभद्रा से अभिमन्यु पैदा किया,तो इतने भोग व गृहस्थी होने पर भी उस समय संसार मे महर्षि परशुराम से प्राप्त गुरु द्रोणचार्य के सारे दिव्य अस्त्र का ज्ञान और देवताओं के सारे दिव्य अस्त्रों का ज्ञान और अंत मे जो संसार मे किसी के पास भी महास्त्र नहीं था यानी शिवजी का महान पशुपात,वो भी घोर तपस्या के बल से शिव जी से प्राप्त करके विश्व में अजेय हो गया था।
तो कुल मिलाकर ये निष्कर्ष निकाला कि,ये अखण्ड ब्रह्मचर्य की भीष्म हो या अन्य किसी देव की सब की सब झूँठ सिद्ध होती है।मेने यहां प्रमाण दिए है,अपने कुतर्क की आदत को छोड़कर इस सत्य को समझोगे तो सारा रहस्य समझ आ जायेगा,की अखण्ड ब्रह्मचर्य का केवल अर्थ है,की सम्पूर्ण जीवन मे किसी भी स्त्री या किसी भी पुरुष से सम्भोग नहीं करना,बस,चाहे उसे अपने आप स्वप्नदोष हो या अपने आप शारीरिक क्रिया से वीर्य या रज का स्खलन होता रहे,वैसे जब किसी दूसरे के विषय मे सम्भोग का विचार नहीं करोगे,तो आपकी लिंग इंद्री स्वयं ही निष्क्रिय हो जाती है।
ओर करोगे तो कोई फर्क नही पड़ता है,
जैसे कि विश्व प्रसिद्ध महान भविष्यवेत्ता फ्रांस के नेस्ट्रोडम्स ने अपने विवाहित व बच्चे पैदा करके भी भोग पूर्ण जीवन मे तीनों कालो को देखने की महान शक्ति प्राप्त की थी,जो कि उन्हें गृहस्थी रहते हुए,अपनी अधिकतर आय को गरीबो में बांटने ओर सप्ताह में दो बार मोन रहने और घोर तपस्या के बल से मिली थी,ना कि किसी अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालन से,समझे भक्तो,,
बस अब जो मैं मुख्य बात कह रहा हूँ कि,अपना नियमित जप ओर तपो बल बना रहना चाहिए,ओर इस गृहस्थी भोगी जीवन के बीच बीच मे एकांत में रहकर घोर जप तप करते रहने से ऊपर दिए गए तपस्यवियों वेदव्यास हो या द्रोणाचार्य हो या कृपाचार्य हो या अर्जुन या कर्ण या अश्वत्थामा हो या कृष्ण आदि की तरहां सिद्धि बनी रहती है,पर अमरता न इनमे से कोई रहा न कोई रहेगा,अश्वत्थामा को मिले शाप को छोड़कर।
तो भक्तों अखण्ड बह्मचर्य का ये झुठी कथाओं का सच्च समझ आ गया होगा।नहीं आया तो इसी लिख के प्रमाणों को ठीक से अध्ययन करना,तो समझ जाओगे,।
यही सब उदाहरणों से आप गुरु नानक,कबीर,रैदास,नेस्ट्रोडम्स आदि के गृहस्थी जीवन मे उनके जप तप बल से ही उनकी दिव्य शक्तियों की प्राप्ति को जानो।
यो ही आप आज से ही, संसार की सबसे महान सर्वश्रेष्ठ ध्यान विधि- रेहीक्रियायोग के साथ सत्य ॐ सिद्धायै नमः का नियमित अभ्यास करोगे,तो सब समयानुसार प्राप्त होगा।।
शेष फिर कभी,,
इस सम्बन्धित ओर भी अधिक जानकारी के लिए,,यूटीयूब चेनल swami satyandra ji,पर वीडियो देखे।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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