ये लगभग सन् 1984 से पूर्व की बात है तब हमारी एक परिचित सदूर के ननसाल के रिश्ते की बहिन स्तन में केन्सर के रोग से पीड़ित हो गयी थी तब उन दिनों मैं अपनी साधना में लीन रहने के साथ साथ अपने गांव के कृषि के कार्य में व्यस्त रहता था तब उन दिनों हमारे पिता जी ककोड़ इंटर स्कुल के प्रबन्धक थे उनके पुस्कालय के लिए अनेक पत्रिका आती थी जिनमे कादम्बिनी पत्रिका भी थी जिसमें मैने सूक्ष्म शरीर पर अनेक लेख और देश विदेश के व्यक्तियों के अनुभव और रोग निवारक छमताओं के विषय में लेख पढ़े तब उस समय मुझे भी अंतरात्मिक प्रेरणा थी की अपनी प्राप्त अध्यात्मकि शक्तियों का उपयोग किसी भी परिस्थितियों में नही करना क्योकि तुम्हें परिस्थितियों से संषर्ष से बहुत मनुष्यतावादी समाजिक ज्ञान का परिस्थितियों पर सहज भाव से कैसे विजय प्राप्त करे इसका ज्ञान होगा तभी आध्यात्मिक शक्तियों का भविष्य में सही उपयोग कर सकोगे तब मेने अपनी उन परिचित बहिन माया के लिए पत्रिका में दिए आध्यात्मिक चिकित्सक लोगों के- डा.रमाकांत केनी बोम्बे हॉस्पिटल न्यू मेरीन लाइंस,बाबा अब्दुल खान जी मंजिल दो सो छ विलियम टाउन बेंगलोर,मिस्टर जॉन ब्रांच और मिस्टर ray branch the harry Edwards spiritual heeling sanctuary England,श्री ब्रह्म गोपाल भादुड़ी रामपुरा वाराणसी,शिव शक्ति सदन बख्शी नगर जम्मू,किशोरी लाल तांत्रिक राम सागर गया आदि,और विदेश के प्रसिद्ध चिकित्सकों के उस और अन्य पत्रिकाओं में उपलब्ध अनेक
पतों पर उनका चित्र भेज पत्राचार किया तो मेरे उन्हें भेजे लिफाफे में रखे मेरे भेजे पोस्टकार्ड पर आया की उपाय करते है (और विदेशी चिकित्सकों का कोई पत्र नही आया था) परन्तु बहुत समय बीतने पर भी कुछ नही हुआ सम्भव है इनके पास अल्प समय हो कुछ ही कृपा की हो तब भी कोई लाभ नही हुआ तब उनकी स्थिति देख मेने निश्चय किया की मैं ही इनकी चिकित्सा को अपना योग बल लगता हूँ।तब एक रात्रि में मेने अपने तख्त पर पहले बैठकर उसके उपरांत लेटे हुए अपने मंत्र से अपने अंतरशरीर में अनुलोम विलोम क्रिया योग को करते हुए उनका ध्यान किया अन्तर्वाणी हुयी अरे ये नही बचेंगी इनकी मृत्यु इसी रोग से लिखी है व्यर्थ में शक्ति क्षय मत करो पर मेरे मन में प्रतिरोध हुआ की फिर क्या लाभ जब किसी के लिए कुछ नही कर सकते तो तब पुनः अन्तर्वाणी ने कहा की इसने कोई ऐसा पूण्य नही किया जो इसे इस रोग से मुक्ति दे सके और ना ही तुमसे कोई विशेष अनुरोध प्रार्थना की है की मुझे स्वस्थ करो तुम स्वयं की करुणा भाव से इससे जुड़ रहे हो और उनके सम्बन्ध अनेक बाते दिखाई दी ये सब जान फिर भी में प्रयत्न नही त्यागा तब मेने देखा की मैं उनके पास खड़ा हूँ और उन्हें अपनी ऊर्जा दे रहा हूँ और अचानक सब लुप्त हो गया और एक झटका सा लग कर मेरा ध्यान चैतन्य होने लगा तब मेने अनुभव किया की पहले मेरा सिर तख्त पर लगा और साथ ही मेरे दोनों पैर भी धम्म से तख्त पर लगे लगा की अपने तख्त से कुछ ऊपर उठा हुआ था तभी ऐसा हुआ होगा मेने तब पूर्ण चैतन्य होकर पेशाब करने जाकर वापस आकर जप ध्यान किया और पुनः अपनी योग निंद्रा में लीन हो गया प्रातः अपनी योगाभ्यास और व्यायाम किये अपने अपने कार्यों में लग सब भूल गया तब शाम को स्मरण आया की जाकर बहिनजी से उनका हालचाल पुंछ आऊ तब उनके घर गया वे बिस्तरे पर लेती थी कुछ उठी से बेठी तब मेने पूछा की और क्या हाल है कुछ आराम है या नही तब वे बोली अरे भैया रात्रि में बड़ा आश्चर्य देखा की जाने मैं खुली आँख थी या बन्द थी वेसे कष्ट से नींद नही थी तब देखा तुम मेरे सिरहाने खड़े हो और दुधियां प्रकाश से प्रकाशित हो कुछ बोल रहे हो पर समझ नही आया और अचानक सब गायब सा हो गया मेने आँख मली पर कुछ नही था बस अँधेरा था तब कुछ देर बाद मुझे पहली बार बहुत दिनों में अच्छी नींद आई कुछ अच्छा लग रहा है फिर मैं बहुत दिनों को कृषि के काम से गांव चला गया तब लोटा तो उन्हें बाहर घूमते देख वे मुझे देख प्रसन्न हुयी बताया अब रोग बहुत कुछ घटा है बहुत ठीक अनुभव है परन्तु कुछ महीनों के उपरांत पुनः रोग बढ़ा और उनकी मृत्यु हुयी इससे मुझे ये ज्ञान पता चला की यदि रोगी कोई भी दान पूण्य जप तप सेवा नही करता है या कोई आध्यात्मिक गुरु से नही जुड़ा है तब उसे दी गयी आध्यात्मिक साहयता भी कुछ समय उसे स्वस्थ लाभ देकर पुनः उसके पाप बल उसे रोगी बना उसका कर्म फल कष्ट या मृत्यु के रूप में अवश्य देते है यही प्रकर्ति का नियम है यो
सदा धर्म के तीन पक्ष से अवश्य जुडो-सेवा और तप और दान
तब अवश्य हो कल्याण।।और जप ध्यान करने पर अनेक आलोकिक योग अनुभूति स्वयं होती है ज्यों ज्यों कोई एक मन्त्र जपने से वो पहले तन से मन में प्रवेश करता है तब वो प्रथम प्राण शरीर को मंथ कर अलग करता है यही प्राण शरीर ही अन्य मनुष्यों में अपनी प्राण शक्ति को उससे युक्त करने पर उसे स्वस्थ करता है जिसका संक्षिप्त प्रचलित नाम प्राण विद्या प्राणायाम या रेकी आदि है इससे ऊपर है मन शरीर का निर्माण होना तब अंतर्जगत खुल जाता है मन ही मन्त्र बनता है और मन्त्र ही मन बनता है तब मनोमय शरीर में कुण्डलिनी यानि मंत्र के मन्थन से प्राप्त विधुत शक्ति से नवचक्रों का शोधन और बोधन होता है तभी योगी को अनेक अलौकिक शक्तियां प्राप्त होती है यो एक मंत्र एक ध्यान विधि और चित्त एकाग्र को गुरु मूरत का ध्यान करते रहो वो प्रत्य्क्ष है यो शिष्य और गुरु में जीवित होने से आकर्षण विकृष्ण का सूक्ष्म योग मन्थन चलता है जिससे शिष्य में योगानुभूतियां उत्पन्न होती है उस समय शिष्य में गुरु की शक्तियों का ही दर्शन और लाभ प्राप्त होता है बहुत बाद में स्वयं की शक्ति प्राप्त होती है इस विषय पर आगे अन्य अपना लेख लिखता हूँ
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