भारत माता की नारित्त्व अवतरण पूर्णिमाँ सत्यास्मि ज्ञान


जब जब धर्म की होगी हानि
तब तब मैं लुंगी अवतार।
दुर्गा काली बन कर
मैं काटू अधर्मी शीश तलवार।।
दुर्गावती मैं ही बनती
और बनती लक्ष्मी बाई।
लड़ती स्व स्वतंत्रता हेतु
बन कर अवंतिका बाई।।
जब पुरुष नही देता है संग
और बढ़ता जाता है अहंकार।
समझे नारी को अबला दासी
तब मैं आ काटू अहं विकार।।
शुंभ निशुंभ को मेने मारा
और रावण राम के हाथों तारा।
कंस दुर्योधन कर्ण और कितने
वध केवल संकल्प मुझ नारा।।
रूप मेरा धर विष्णु मोहनी
शिव संकट भस्मासुर मारा।
मेरे रूप की ओट सदा ले
अमृत दैत्य छीन देवों दिया सारा।।
अनगिनत ऋषि काम को शोधा
मेनका बन विश्वामित्र विबोधा।
शकुंतला पुत्री जन्म जगत दे
भरत महान भारत जग बोधा।।
प्रकर्ति बन सृष्टि जग करती
सती बन शिव रास विहारे।
मेरे अंग अंग बन पीठ
जग कल्याण मनुष्य सिद्ध तारे।।
मेरे विरह में कविता जनती
मेरी प्रसन्नता जनते काव्य।
महागाथा लिखी महिमा मेरी
मिल जाऊ धन्य वो साव्य।।
कटाक्ष मात्र मेरी ही बनते
तुलसी प्रेमी विद्य कालिदास।
मुझे एक्त्त्व आत्म नर अपने
खीर मेरी बुद्ध खा बोध विलास।।
मैं युक्त हो युक्ति देती
मैं मुक्त हूँ यो मुक्ति देती।
मैं माया सुप्ति बन जन कर
ब्रह्म से मनुष्य योग सुप्ति देती।।
मैं द्रष्टा और द्रश्य की जननी
यूँ बंधन हूँ मुझ मायावी जग।
बिन मेरे नहीं मुक्त हो कोई
मेरे त्याग विराग से जगता जग।।
भोगो नही संयुक्त प्रेम हो
और भोग मध्य कुंडलिनी ज्ञान।
नर नारी ही इंगला पिंगला
एक्त्त्व नाम सुषम्ना मन भान।।
भोग समय एक मन करना
तन मन आत्मा एक कर ध्याना।
वासना में रासना ध्यान धर
यही द्धैत में अद्धैत है पाना।।
जग में जो प्रदर्शित शिवलिंग
वह मेरा ही योनि लिंग है।
आकृर्ति उसकी ध्यान से देखो
वो मेरा बीज ग्रहण सृष्टि प्रसव त्रिलिंग है।।
मैं आकर्षण और विकर्षण
और तीसरा सृष्टि गुण हूँ।
इन त्रिगुण के गुण के कारण
मैं ही त्रिकोण त्रि सगुण हूँ।।
शव में ई शक्ति मैं बन कर
मैं ही पुरुष स्वरूपी शिव हूँ।
विश्व सृष्टि कर मैं पालन
यो मैं विश्व अणु विष्णु दिव हूँ।।
पुरुष तो केवल बीज है मेरा
जिसे संचित ग्रहण नवीन मैं करती।
एक युगल रूप भिन्न कर उसके
संग्रहित कर ब्रह्म रूप मैं धरती।।
हिम पर्वत गुहा में बन कर
अपने भग में हिम सृष्टि झरती।
जिसे भ्रम वश शिवलिंग जग समझें
वो श्रीभग पीठ नाम मुझ धरती।।
मेरे गर्भ से प्रकट पर्वत
उन्हीं की उर्ध्व सब हैं चोटी।
उन्हें पूजते शिव लिंग पिंडी
जो है मेरी अल्प वर्ध मोटी छोटी।।
मैं ही अधिक जगत में जन्मी
मेरा दूजा रूप पुरुष है।
मैं प्रथम मुझ उपरांत परिवर्तित
मुझ गर्भकाल सृष्टि पुरुष है।।
तभी औषधि देते माँ को
जिसे खा बनता नर मुझसे।
इस रहस्य को जो भी समझे
जाने महिमा नारी नर मुझसे।।
मुझ बिन पुरुष नपुंसक होता
भोग भोग मैं नही परास्त।
मैं अनंत पुरुष को भोगू
पर पुरुष सूर्य मुझ बिन त्रास्त।।
चन्द्र बन मैं ही प्रकाशित
सात किरण सूर्य कर वर्द्ध।
सौलह रश्मि बन पूर्णिमाँ
शीतल करती प्राणी दे वर्द्ध।।
चार नवरात्रि मैं ही व्यापु
देती नो दिवसीय गर्भ ज्ञान।
चार वेद चार कर्म धर्म मुझ
बन प्रकट सजीव जीव माँ महान।।
मैं विक्षिप्त मूढ़ अज्ञानी
तब जन्में मुझसे सर्व विष दैत्य।
मैं स्व आत्म ज्ञान ध्यान जब करती
जन्में मुझे से अमृतमय अद्धैत्य।।
चार युग मैं पुरुष को देकर
बढ़ाया उसका स्व सम्मान।
भ्रम वश करता अपमान नारी का
अब चार युग नारी है मान।।
यो अनंत महिमा मुझ है नारि
जो मुझे ना जाने वो अहंकारी।
मिटा मैं देती प्रेम और क्रोध से
दे निज से मुक्ति मैं स्व नारी।।
हे-नारी समझ ये विज्ञानं
और अपना आत्म निज ध्यान।
बन जन आत्म से परमात्मा
यही है अहम् सत्यास्मि ज्ञान।।
 

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