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9 जुलाई गुरु पूर्णिमा पर्व पर भगवन विश्वामित्र और शरणागत शिष्य सत्यव्रत ‘त्रिशंकु’ के मनोरथ को नवीन अमर स्वर्ग निर्माण कथा:-

इस बीच इक्ष्वाकु वंश में त्रिशंकु नाम के एक राजा हुये। त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे अतः इसके लिये उन्होंने वशिष्ठ जी अनुरोध किया किन्तु वशिष्ठ जी ने इस कार्य के लिये अपनी असमर्थता जताई। राजा सत्यव्रत ने वशिष्ठ से प्रश्न किया की हे गुरुदेव जब आपने मेरे से सभी प्रकार के गुप्त और प्रत्यक्ष पूण्य यज्ञानुष्ठान और मनवांछित द्रव्यों के सभी प्रकार के दान कराये है तब क्या ये शरीर में दान किये या आत्मा ने? और यदि आत्मा ने किये तो वो बिना इस शरीर के कैसे अपना मनोरथ पूर्ण कर सकती है? अतः ये शरीर ही आत्मा की समस्त प्रयोजनो का कारक है तब ये भी आत्मा की भांति उसी पूण्य को प्राप्त अवश्य होगा अन्यथा ये मृत होने पर स्वयमेव ही दान पूण्य कर लेता? अतः मेरी आत्मा का यही सहयोगी वस्त्र है तो मेरी इच्छा है की मैं अपने सभी शुभ कर्मो में सहयोग देने वाले वस्त्र के साथ ही पुण्यबलो से सज्जित होकर स्वर्ग जाऊ? तब गुरु वशिष्ठ ने अनेक तर्क दिए की ये शरीर पंचतत्वो से निर्मित होने से इसकी सीमा प्रकति से ऊपर नही है ये यही प्राप्त हुआ और यही छोड़ना पड़ता है जिसके विपरीत सत्यव्रत ने कहा की मेने भी गुरुकुल में चारो वेदों और समस्त उपलब्ध कर गुरु प्रदत्त ज्ञान प्राप्त किया तब जब भी देवताओ को मेरे और मेरे पूर्वजों की अपने दैत्यों के साथ युद्ध में आवश्यकता पड़ी तब तो वे मुझे और पूर्वजों को स्वर्ग में मन्त्रणा को बुला लेते थे और अब ऐसी व्यर्थ पंचतत्वी अतार्किक तर्क देकर मुझे तृष्कृत कर रहे है और सो अश्वमेध यज्ञ करने पर इंद्र का पद प्राप्त होता है जो की मैं भी आप और अनेक वेदिक ऋषियों के द्धारा सम्पूर्ण करने पर पूर्ण किये हूँ तब मैं क्यों वहां नही जा सकता हूँ ऐसे अनेक अकाट्य तर्कों को सुनकर वशिष्ठ ने अंत में ये कहकर पीछा छुड़ाया की तुम अभी क्षत्रिय हो तुम तपोबल से शुद्ध आत्मशरीर को प्राप्त नही हो यो सजीव स्वर्ग नही जा सकते ये सुन सत्यव्रत ने कहा गुरुवर शरणागत आये शिष्य और भक्त की इच्छा पूर्ण करनी और उसके लिए सर्वसामर्थ्य होने पर ही ब्रह्मऋषि कहलाता है तथा शिष्य भक्त की इच्छा अवश्य पूर्ण करना इष्ट और गुरु का कर्तव्य है जो की आप नही कर रहे है यो मैं आपको अपने कुलगुरु होने के गोरवान्वित पुरोहित पद से हटाता हूँ ये कह सत्यव्रत ऋषि आश्रम से चले गए। त्रिशंकु ने यही प्रार्थना वशिष्ठ जी के पुत्रों से भी की,जो दक्षिण प्रान्त में घोर तपस्या कर रहे थे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कहा कि जिस काम को हमारे पिता नहीं कर सके तू उसे हम से कराना चाहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तू हमारे पिता का अपमान करने के लिये यहाँ आया है। और तुमने तीन अपराध किये-1-अपनी मनोकामना पूर्ति को ब्राह्मण को दान का प्रलोभन-2-पिता के विपरीत उसके पुत्रो को विरोधी कार्य करना-3-और गुरु के कथन की अवज्ञा करनी यो वशिष्ठ जी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चाण्डाल हो जाने का शाप दे दिया।
तब ये शाप सुनकर सत्यव्रत ने उन ब्राह्मण कुमार ऋषियों से कहा की तुमने मुझे अकारण ही शाप दिया है जबकि ये तुम्हारी मेरी मनोकामना सम्पूर्ण करने की असमर्थयता से अधिक और खीज से अधिक नही है यो तुम भी इस अकारण मुझे दिए शाप के प्रतिफलभागी होंगे।मैं अवश्य किसी और योग्य और सामर्थयशील योगी के निकट जाकर शरणागत होता हूँ और वे खिन्न मनोदशा ले कर वहाँ से चले गए।शाप के कारण त्रिशंकु चाण्डाल बन गये तथा उनके मन्त्री तथा दरबारी उनका साथ छोड़कर चले गये। फिर भी उन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा का परित्याग नहीं किया। वे विश्वामित्र के पास जाकर बोले अपनी इच्छा को पूर्ण करने का अनुरोध किया। विश्वामित्र ने कहा तुम मेरी शरण में आये हो।शरणागत आये शिष्य का मनोरथ पूर्ण करना ईश्वर और गुरु का कर्तव्य होता है यो मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा। इतना कहकर विश्वामित्र ने अपने उन चारों पुत्रों को बुलाया जो दक्षिण प्रान्त में अपनी पत्नी के साथ तपस्या करते हुये उन्हें प्राप्त हुये थे और उनसे यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये कहा। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कि वशिष्ठ के पुत्रों सहित वन में रहने वाले सब ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण दे आओ।
सभी ऋषि-मुनियों ने उनके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया किन्तु वशिष्ठ जी के पुत्रों ने यह कहकर उस निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया कि जिस यज्ञ में “यजमान चाण्डाल और पुरोहित क्षत्रिय” हो उस यज्ञ का भाग हम स्वीकार नहीं कर सकते। यह सुनकर उन अहंकारी ब्राह्मणों को विश्वामित्र जी ने क्रुद्ध होकर उन्हें कालपाश में बँध कर यमलोक जाने और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करने का शाप दे दिया और यज्ञ की तैयारी में लग गये।
विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठ जी के पुत्र यमलोक चले गये। वशिष्ठ जी के पुत्रों के परिणाम से भयभीत सभी ऋषि मुनियों ने यज्ञ में विश्वामित्र का साथ दिया। यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्ध्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ। इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुये आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुये स्वर्ग जा पहुँचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गये। त्रिशंकु की पीड़ा की कल्पना करके विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया। इसके बाद उन्होंने नये इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिये लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे। इन्द्र की बात सुन कर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह “सिद्धार्यन नामक स्वर्ग’ मण्डल हमेशा रहेगा तथा ज्ञानगंज नामक सप्तऋषिमंडल भी भविष्य के मेरे सिद्धान्तों को मानने वाले राजाओं और योगियों का दिव्य स्थान होगा और ये सत्यव्रतत्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इस सुद्रढ़ वचन के आगे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने अपने स्थानों को वापस चले गये।और इसी घटना से इक्ष्वाकु वंश में आगे सभी सत्यव्रत पुत्र हरिश्चंद्र इनके पुत्र रोहताश्व आदि सम्राटों ने वशिष्ट और उसकी संतान ऋषियों को अपने कुलपुरोहित पद से हटा दिया था।।और जो वर्तमान में ऋषि नाम वशिष्ट गर्न्थो में दिखाई देता है वो बाद के कालों में स्वयंवर्णित कथाओं के माध्यम से अनावश्यक अपनी प्रतिष्ठा को डाला गया आप स्वयं सोचे।।
ये शास्त्र वर्णित महाराज त्रिशंकु नामक तारा (और उसमें स्थिर सिद्धार्यन स्वर्ग और उसके निकट के सप्तऋषिमण्डलीय तारे) आकाशमण्डल में त्रिकोण रूप में विद्यमान है ये पृथ्वी से त्रिशंकु यानि तीन कोणीय तारा(=तीस महापद्म मील) सदर हैं, ऐसा वर्तमान खगोलज्ञ कहते हैं ।इस पर खोज की आवशयकता है जिससे अनेक पृथ्वी और स्वर्गादि के अनेक रहस्य सुलझेंगे।और भविष्य के योगसाधको के लिए भगवन विश्वामित्र ने निम्न योग उपदेश दिया की:-
और योग साधको को कहा की:-
वैदिक विधि जपे तपे
और करे आत्मिक ध्यान।
सहत्रार उर्ध्व ज्योति स्थित
मिले सिद्धासिद्ध ज्ञानगंज स्थान।।
वहाँ दूँ मैं ज्ञान योग
अप्राप्य सूर्य विज्ञानं।
क्षण महायोग रहस्य दूँ
जो करें नीलवर्णी ज्योति ध्यान।।
वहाँ दूँ मैं ज्ञान योग
अप्राप्य सूर्य विज्ञानं।
क्षण महायोग रहस्य दूँ
जो करें नीलवर्णी ज्योति ध्यान।।
यहीं प्रवेश गुप्तद्धार
और कहीं नही जग।
यहीं सत्य कैलाश शिवा
यहीं पूर्णिमा योग सिद्ध जग।।
यहाँ काल नही त्रिकाल भी
सदा विराजे मोक्ष।
विदेही योग सम्पूर्ण यहीं
परा अपरा मोक्ष यहीं सोक्ष।।
त्रिकुटी ही ब्रह्मयोनि नर नार
और यहीं श्री भगपीठ।
इसमें अद्धभुत शुक्र नक्षत्र है
वहीं योगी द्धियप्राण योगपीठ।।
इसी भ्रमर गुहा में योगबल
प्राण देह से जाये।
तब पहुँचे सिद्धज्ञान गंज
सिद्ध गुरु ही बने सहाय।।
सवा करोड़ सिद्ध गायत्री
तदुपरांत सवा करोड़ जपे गुरुमंत्र।
तब प्राप्त हो सिद्ध देह
तब प्रवेश पाये सिद्धार्यन नक्षत्र।।
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