क्या ये हमारा अंतिम जन्म है,या ऐसे ही हमारे अनगिनत जन्म,जीवन,मृत्यु हो चुके,ठीक ऐसे ही अनन्त बार,राम,कृष्ण,कल्कि आदि जन्मे ओर मरे है,प्रमाण रामायण,महाभारत के प्रसंग ओर सत्यास्मि महाज्ञान,,

क्या ये हमारा अंतिम जन्म है,या ऐसे ही हमारे अनगिनत जन्म,जीवन,मृत्यु हो चुके,ठीक ऐसे ही अनन्त बार,राम,कृष्ण,कल्कि आदि जन्मे ओर मरे है,प्रमाण रामायण,महाभारत के प्रसंग ओर सत्यास्मि महाज्ञान,,

स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी बता रहें है कि,,

रामायण में राम देह त्याग सम्बन्धी प्रसंग में ये विषय स्प्ष्ट किया है और ठीक ऐसा ही महाभारत के अर्जुन का अभिमन्यु की मृत्यु के बाद शोक करने पर कृष्ण द्धारा उन्हें चन्द्रलोक में वहाँ विराजमान अभिमन्यु की शक्ल के चंद्रमा से मिलने के संदर्भ प्रसंग में ये बात सत्य सिद्ध होती है कि,ये अवतार हो या तुम सामान्य मनुष्य और ये पृथ्वी ब्रह्मांड आदि, अनन्त बार जन्मे,जीये ओर मृत्यु को प्राप्त हुए है,कोई अमर नहीं है,ओर यही बार बार घटते रहना ही अमरता भी है।
श्री राम देह त्याग प्रसंग ने जब राम से मिलने यमराज साधु भेष बदल कर आते है और नियम बताते है कि,जब हम बात करेंगे तो कोई इस कक्ष में प्रवेश नहीं करेगा,यदि किया तो वो मृत्यु दंड का भागीदार होगा।
तब लक्ष्मण पहरेदार बनते है,दुर्वासा मुनि वहाँ आकर राम से मिलने को कहते है,लक्ष्मण उन्हें नहीं जाने देते और समझ जाते है कि अब उनका भी देह त्याग का समय आकर ये घटना बन घट रही है,ओर वे इस प्रसंग में दंड स्वरूप देह त्याग करके अपने मुलावतर शेषनाग में स्थित हो जाते है,ओर राम भी अपनी अंगूठी एक दरार में डालकर हनुमान जी को उसे ढूंढने को कहते है,वो दरार में सूक्ष्म रूप से प्रवेश करते हुए पाताल लोक में वासुकी सर्पराज के पास पहुँच कर उनसे श्री राम अंगूठी को ढूंढने में मदद को कहते है,वासुकी उन्हें दूर स्थान पर अंगूठी है,ये बताते है,तब हनुमान जी को वहाँ अनगिनत एक सी ही श्री राम की अंगूठियां मिलती है,वे चकरा जाते है,तब उन्हें इसी प्रसंग में श्री राम से ज्ञान मिलता है कि,मेरे तुम्हारे ओर सभी के अनन्त जन्म हो चुके है,ये चार युग भी अनन्त बार आये और समाप्त हुए और ऐसे ही होते रहेंगे और तुम भी कलियुग के अंत समय तक इस धरा पर अमर रहोगे,फिर जो जन्मा है,वो मरेगा अवश्य,यो इस कलियुग के अंत मे तुम्हारा भी देह त्याग होकर तुम अपने मूल में समाहित हो जाओगे,जैसे हम होंगे।
यो कुल मिलाकर यहां प्रसंग के संछिप्त रूप से प्रमाणिकता से पता चलता है कि,ये पृथ्वी ये ब्रह्मांड यूनिवर्स आदि और इस पर जन्म लेने वाले सभी प्रकार के प्राणी ओर धर्म स्वरूप भगवान राम,कृष्ण,महावीर,बुद्ध,कल्कि आदि व अधर्म के स्वरूप राक्षस आदि ओर इन अवतारों से पहले के चारों युगों के अवतार व इन अवतारों के विरोधी पक्ष जिन्हें हम राक्षस कहते है,वे सब के सब अनन्त बार जन्मे लीला करी ओर अपने मूल स्वरूप में समा गए,प्रश्न आता है,की ये चार युग के बाद कोन सा युग आता है?या केवल ये चार युग ही दोहराते रहते है?जो कि सम्भव नहीं,तो सत्यास्मि ज्ञान कहता है कि,जैसे विश्वात्मा यानी जिसे हम ब्रह्म या ईश्वर और ईश्वरी कहते है और साथ ही उनकी एक संयुक्त प्रेमावस्था,जिसे स्त्री व पुरुष शक्ति का एक अभेद रूपी युगल स्वरूप जिसे बीजावस्था कहते है। जिसमे वो स्थित रहते है।यही इन स्त्री पुरुष या ऋण धन,इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन की ऐसी एक अभेद अवस्था है-बीज,जो सदा बना रहता है,जैसे-बीज-व्रक्ष-फल और फिर बीज।यो ये बीज ही मूल अवस्था है।जैसे मनुष्य मर जाता है,पर उसका डीएनए यानी बीज अनंतकाल तक बना रहता है,उससे फिर से उसी मनुष्य के एक या अनन्त क्लोन तैयार किये जा सकते है।जैसे मनुष्य के वीर्य की एक बूंद में करोड़ो कीटाणु होते है,उनमें से केवल एक या कुछ कीटाणु स्त्री के बिंब में पहुँचकर एक या अनेक सन्तान पैदा करते है,सोचो यदि सारे कीटाणु पहुँच जाएं तो एक वीर्य की बूंद से करोड़ों मनुष्य पैदा हो जायेगे,जो कि एक स्त्री की सामर्थ्य नहीं है।यहां उस सन्तति प्रसंग से कई प्रश्न बन जाएंगे।उनका विषय फिर कभी।
तो ठीक ऐसे ही निखाल्स पुरुष युग की समाप्ति के बाद भी अचानक अगला स्त्रियुग नहीं आ जाता है,बल्कि बहुत काल तक पुरुष अपने पुरुष वर्चस्व को छोड़ता या घटता घटाता होने की प्रक्रिया से गुजरता है और इसी बीच स्त्री की शक्ति सामर्थ्य व्रद्धि बढ़ती जाती है,जैसे कि अब के समय मे हो रहा है की,स्त्री सभी क्षेत्रों में बढ़ती जा रही है,पुरुष के समांतर खड़ी होती जा रही है,ओर पुरुष उसे अपना सहयोग देता है,जैसे कभी पुरुष युग मे स्त्री ने दिया,यही अदलाबदली यानी क्रिया प्रतिक्रिया में कभी क्रिया की पहल होती दिखती है,तो कभी प्रतिक्रिया की पहल होती दिखती है,जैसे तालाब म कंकड़ फेंकने पर फेंके गए स्थान से क्रिया होकर तरंगे इसी सिद्धांत से तालाब के टल व तट तक जाकर वापस लौटती है,यानी क्रिया के बाद विपरीत प्रतिक्रिया से प्रारम्भ होता है,यही चलते चलते अंत मे पुनः सब शांत व स्थिर हो जाता है,यही शांति होने का नाम वेदों में जब कुछ नहीं था,न सत न असत यानी न स्त्री न पुरुष न क्रिया न प्रतिक्रिया थी,तब शून्य था,का अर्थ जानना।ठीक,यही पहचान है कि पुरुष के चारों युग समाप्त यानी कलियुग समाप्त हो चुका है ओर अब एक संयुक्त युग चल रहा है,जो स्त्री युग के प्रारम्भ की आदि भूमिका की पृष्ठभूमि ही है।तो यो ये प्रसंगों से पुरुष अवतार अपने मूल स्वरूप में प्रवेश कर गए,अब कोई पुरुष अवतार नहीं आएगा,बल्कि अब जो भी कोई एक या अनेक पुरुष सामर्थ्यशाली है या होंगे वे स्त्री सहयोग को उसकी सहायता को है और सदा सहायक होंगे।पर मूल में स्त्री ही शक्ति सम्पन्न होगी।वही अवतार लेगी,अगले चारों स्त्री युगों में,ये बात पुरुषवादी वर्चस्व के मानने वालों को हजम नहीं होगी,पर सोचेंगे तो सब समझ आ जायेगा।
यो पुरुष युग समाप्त,अब स्त्रियुग प्रारम्भ है और ये भी पूर्व के पुरुषयुगों की भांति एक निश्चित गणितीय समय गणना के अनुसार चलेगा,फिर चार बीजयुग होंगे और तब कहीं मूल सृष्टि भंग होगी।अब ये उस पृथ्वी पर ही घटित होंगे या पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर जाकर होंगे,यो समय की बात है।पर ये निश्चित ज्ञान बात है।यो ये सब अवतार ओर उनके साथ जन सामान्य जनता आदि उस काल को लेकर अनन्त बार जन्मे ओर समाप्त हुए और ये याद व समझ लेना अनिवार्य है कि,ये राम,कृष्ण,बुद्ध,महावीर,जीसस आदि ओर वे,जो इनसे भी पूर्वकाल के नामधारी अवतार हुए थे,वे सब उस अपने ही काल के अवतार थे,न कि इस वर्तमान काल के अवतार है,यो ही उनकी उपासना से चमत्कार नहीं होते और न होंगे ये,बड़ी गहन प्रयोगात्मक बात है,जैसे कि,देशकाल के साथ रोग और उनकी मेडिशन बदलाव लेती है।बस उनका मूल टिंचर बदलता नहीं,जिसे साइंस में कहते है कि,ऊर्जा नष्ट नहीं कि जा सकती केवल किसी अन्य रूप में रूपांतरित की जा सकती है।
बस यही अवतारवाद ओर जन्म मृत्यु का साइंस है,इसे गहनता से समझोगे तो सहज समझा आकर,इन व्यर्थ के मृत्यु प्राप्त अवतार या त्रिदेव त्रिदेवी आदि व अन्य अवतरित कहे जाने वाले लोगो की उपासना की जगहां,अपने मे प्रकट ब्रह्म यानी अपनी आत्मा की प्रावस्था परमात्मा को प्रकट करो,यानी अपनी उपासना करो और मुक्त हो जाओ।यही वेद कहते है कि,अपनी आत्मा को जानो,उसका ध्यान करो।
यो शास्त्र कहते है कि,भय किस बात का,तुम न कष्ट बीमारियों या मृत्यु के अन्य साधनों से अनन्त बार मरे,जीये ओर फिर ऐसे ही जीते मरते रहोगे,यो प्रश्न बनता है कि,अब इस जन्म जीवन मृत्यु के चक्रव्यूह से बाहर कैसे निकले तो,यही मोक्ष नामक अवस्था का ज्ञान करना है,यानी,प्रचलित मोक्ष की व्याख्या नहीं,जिसमे की मैं को मारना या उसका क्षय करना मोक्ष कहा गया है,बल्कि मैं की अक्षय अवस्था,कभी खत्म न होने वाला मैं,को जानना ओर उस मूल ‘मैं” जिसे गीता में कहा है,जिसे भर्मित मनुष्य कृष्ण कहते है,जो कि असल मे वेदव्यास जी का सर्ववेदज्ञान का सार संकलन है,की “मैं” अपनी प्रकृति को अपने वश में करके आजन्मा शाश्वत सनातन हूँ,यही “मैं” को जानना ही सच्चा “मोक्ष” है।जबकि वो कथित नश्वर कृष्ण या राम को पकड़ कर पूजते रहते है।जो कि कितनी बार मरा,जीया है ओर अपने मुलावतर विष्णु यानी विश्व के अणु अणु यानी कण कण में व्याप्त क्रिया शक्ति ऊर्जा मात्र है,उसमे समाहित हो जाते है,तब वे इस राम व कृष्ण रूप में है ही कहां, ये तो नश्वर व भूतकाल मात्र है।यो वो नश्वर नष्ट होने वाला अवतार है।इनसे मुक्ति सम्भव नहीं है,तब सम्भव कैसे है,तो यही महाज्ञान ‘कर्मवाद” कहलाता है,उसे जानने समझने अपनाने ओर व्यवहार में लाने का नाम भोग और योग है यानी सही से कर्म का सही से व्यवहार में लाना।ये कर्म है-सेवा-तप और दान।जिसे अनेक लेखों में समझा चुका हूं,वहाँ अध्ययन करें।
जैसे-राष्ट्रपति,प्रधानंत्री से लेकर न्यायधीश,क्लर्क ओर चपरासी ओर सामान्य जनता के अपने आधिकारिक शक्ति व पद है,उन पर वो अपने परिश्रम यानी शिक्षा,परीक्षा के उपरांत सलेक्शन या चुनाव लड़कर या लेकर उस पद पर आसीन होते है,ओर अपना कर्म कार्य का सही या गलत उपयोग करते सहज रिटायर्ड होकर या बुरे कार्य करने कारण सस्पेंड आदि दंड पाते है।ठीक ऐसे ही सब सिस्टम को जानो ओर मानो,तब इस सब सिस्टम के बीच लगभग क्या स्थिर है-वो पद और उसकी शक्ति।यो मनुष्य उस पद पर बैठेगा,लोग कहेंगे कि,अरे,आजकल शहर का डीएम या देश का प्रधानमंत्री कौन है?कोन जाति का है?किस गांव आदि का है,किस परिश्रम से किंतने प्रतिशत अंक,वोट लेकर इस पद पर बैठा है।और इसके सुधारवादी कर्म क्या है,फिर उनका जन आंकलन ओर उस कर्मो से उसका या उन सबका आगामी परिणाम तय होता है,यो सभी देवी देवता भगवान अवतार आदि को जाने,ये नश्वर है,इनके अवतरण या जन्मों की कथाएँ है ओर इनके कर्मो की लीलाएं कथाएं है,वे सब होकर फिर इनके मरने की कथाएँ भी है,तब कैसे केवल उन्हें पूजने से मुक्ति होगी,बताओ?यानी बिलकुल नहीं होगी।बल्कि उनके कर्मों को जो सभी ओर समान रूप से नियम के रूप में सब पर लागू होते है,उन्हें अपनाने ओर उन पर सही कर्म करते चलने से सच्ची मुक्ति होगी।यो ही सभी जन्में मनुष्यों को ईश्वर का अवतार कहा गया है,अवतार मतलब, मूल अवस्था से नीचे आकर जन्मना।की आप सब भी उसी मूल ब्रह्म शक्ति के रूप ओर शक्ति पाये हो,यो उस मूल शक्ति को जानो ओर उस नियम के कर्म को करके अपने मे जगाओ ओर अपने अन्दर के ब्रह्म को प्रकट करो और मुक्ति पाओ,जो किसी की देन नहीं,बल्कि तुम्हारी स्वयं की है।यही “अहम सत्यास्मि” घोष ओर रेहीक्रियायोग विधि है,उसे करो।यो गुरु यानी ज्ञानी से ज्ञान लो,उससे चिपको नहीं और उससे लिये ज्ञान और क्रिया को अपना कर इस अनन्त जन्म मृत्यु के बंधन जीवन से मुक्त हो जाओ।यो इस लेख का बार बार अध्ययन करो।
इस संछिप्त लेख में कई प्रश्न उत्तर रह गए होंगे,जिन्हें इस लेख को ठीक से पढ़ने समझने से खुद पा लोगों।
अंत मे:-यदि तुम्हें भूत भविष्य दृष्टि मिल जाये,यो देख पाओगे की,कितनी बार जन्मे,कितनी बार किस बीमारी,चोट,कष्ट से या सहज मरें ओर कितनी बार कितनी पत्नियों को या पतियों को भोगा ओर भोगोगे,तो कौन सी सच्ची पत्नी और कौन सा सच्चा पति?,ओर इस भोगों से परस्पर किंतने बच्चे बच्ची पैदा की ओर किंतनो के माता पिता तुम बने ओर किंतने तुम्हारे माता पिता बने,ये सब देख कर पागल हो जाओगे ओर तब समझोगे की,किसकी नमस्कार लू,किस किस को नमस्कार सम्मान दूं या लूं,किंतने मेरे नाम रहे और किंतने रहेंगे ओर जानोगे,की हद है,तुम यानी खुद के रूपी रूप में यानी मूल “मैं” मरता ही नहीं,अमर है।बार बार अज्ञान भ्रम को लेकर जन्मता तथा ज्ञान पाता रटता ओर उसे जीता है और मरता है,फिर भी अमर है,ओर कबतक ये चक्र है,कोई पता नहीं?तब समस्त भय खत्म।ये बिन भविष्य दृष्टि के भी केवल ज्ञान से जान समझ सकते हो और बार बार के चिंतन से इसे अभय बनाकर जो वर्तमान जीवन है,उसे बिन अपेक्षा ओर उपेक्षा के सहजता के साथ आनन्द से जी सकते है,यो जो है,उसे जानकर सही उपयोग से जीना सीखो।यदि जीना चाहते हो तो,ये ज्ञान अपनाना ही पड़ेगा।
यो,इस तन यानी पँचत्तवी शरीर और इसको संचालित करने वाला दसों उपप्राणो का मूल एक प्राण ओर इस प्राण को संचालित करने वाला दो मन और उस दो मन का भी मूल एक मन को भी संचालित करने वाली ऋण धन,बीज रूपी द्धेत आत्मा जो कि,तुम ही हो,उस तुम यानी मैं रूपी आत्मा के एक अभेद विराट रूप परमात्मा यानी ये भी तुम ही हो,उसे अपने ज्ञान चिंतन और उससे जुड़ने के कर्म जिसे शास्त्र भाषा मे योग कहते है,उसे करते हुए योगी बन,यही योगी बनने पर चारों वेद और उपनिषदों व गीता का मूल कर्मयोग वचन है,योगी बनो,वही सर्वश्रेष्ठ है,जो सत्यास्मि ग्रँथ में सहज भाषा मे पूरे क्रम से समझाया है,जो यहां लेख में मैने कहा है,यही सर्वयोग है,इसे अपना योगी बन ओर मुक्तो हो।

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
Www.satyasmeemission.org

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