बेअर्थ पल के अंग
कभी बेअर्थ ही सही
पर उस पल जियो।
आने दो उसे इंतज़ार बिना
अपने अंदर से बाहर लियो।।
बिन याद करे वो गुजरा पल
जो छोड़े चहरे सच्ची मुस्कान।
अहसास ख़ुशी दिल धड़क कर दे
आ मिटा भी दे मीठी थकान।।
भुला दे वो पिघला सब उनको
जो देती आंखों में वे आंशु यादें।
जिन्हें चाहता ओर नहीं भी
करके तोड़ें फिर जोड़े वादें।।
हटाने को हक़ खो दिया
ओर पाया भी कुछ खाली कर।
यूँ मिटाने की चाहत चलते
बार बार दिल के घर को भर।।
लौटता उस दरवाज़े तक
खटखटाये बिन वापस आता।
की अपना है या पराया है
इसी पते को बिन पता पाता।।
उसी पल को यूँ याद करूँ
ओर खोता हूँ उसी में जाग।
खुशी इसी की है लौट मिली
मुझ बरस कर मुस्कराहट बेलाग।।
यो आने दो उसे दो खोल दर
बिन किसी चाह तो सही।
वो जियेगा तुम उस बन एक
गले लगा तो जरा बेअर्थ ही सही।।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
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