निंदा ओर निंदा रस पर ज्ञान कविता
निंदा ओर उसके रस यानी निंदा रस की महिमा ओर उसका सही अर्थ और उपयोग बताते हुए स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी अपनी ज्ञान कविता के माध्यम से इस प्रकार से कहते है कि,
निंदा रस आनंददायी बहुत
जयों पनघट खड़ी लें रस नार।
पंगत की संगत में ओर बढ़े
ख़ुसपुस कर इस लेन देन व्यापार।।
ओर क्या कहा,ये उकसाहट इस
बस रहन दो,कर छोड़ें बात।
अरे नहीं,सच्च,कह चहरे बदले भाव
बदले में कुछ लगी कह दें कर घात।।
थाह अथाह ले देते एक दूजे
ओर उसके फल का कर इंतज़ार।
नजरों में ओर बातों में कुछ रख
निंदा रस का दे उपहार।।
ओहो,क्या कहने,हद है
ओर कुछ न मिला उसे।
मुंह बना होठ पिचका कह हूं
फ़वती कस फिर निंदा रस पी हंसे।।
छोड़ो जाने दो,ऐसे क्या मुंह लगना
ये भी कोई आदमी है।
मियां ओर मसूर की दाल
एसो की दुनियां में क्या कमी है।।
ये तो पुरानी बात थी
अरे कुछ नई सुनाओ।
हम भी खेले खाये है जनाब
लगी को अभी मत बुझाओ।।
निंदा रस सदा जवान रखे
संग लेकर अष्ट विकार।
संगत जीने को दे ज़माने
बढ़ाये खूब महफिलें यार।।
यो ज्ञानी कह गए महिमा निदा
निंदक को नज़दीक रखो।
प्रसंसक को कुछ दूर
यो सदा परिश्रम फल चखो।।
निंदा भी एक भाव गुण
जो देता दृष्टि हर पक्ष।
क्या कर रहा ओर हो रहा क्या
ये जान कहता दूजे रख साक्ष।।
निंदा अर्थ बुरी आलोचना
जिसमें हित अहित शब्द उपयोग।
किसी बात का विरोध दमन
उत्तर देना कह टोक रोक अयोग्य।।
निंदा पीछे भाव क्या
केवल कटुता भरा द्धेष।
या केवल विरोध असत्य का
किये कथन पीछे मात्र लाभ निज शेष।।
निंदा नियंत्रण मनुष्य भाव पर
जिस भाव उद्धेश्य देय पीड़ा।
असभ्य भाषा उपयोग रोक
निंदा नहीं बनने देती मनोरंजन क्रीड़ा।।
निंदा देती नव चिन्तन
ओर देती किये पूर्व शोधित विचार।
कहां कमी मुझ स्वभाव में
क्या संशोधित करूँ व्यवहार।।
यदि निंदा हो धृष्टता भरी
ओर हर बार वही पुनरावर्ती।
ऐसे निंदित मनुष्य त्याग संग
ओर सावधान त्यागो निंदित वृति।।
निन्दा अंकुश अज्ञान दे
ओर निरंकुशता रोके सत्ता।
ओर रोकती आत्महीनता को
प्रताड़न दे कर नत्था मत्था।।
यो निंदा का सही अर्थ जान
उपयोगी बनाओ सही दिशा।
निंदा गुण अवगुण बनाओ नहीं
यही सत्यास्मि ज्ञान मिटाये निंदा निशा।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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