ज्येष्ठ पूर्णिमां को शुक्रदेव और शुक्राचार्य जयंती पर इनकी महिमा के विषय में स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी बता रहें है की…
कौन हैं शुक्राचार्य:-
हिन्दू धर्म ग्रंथ पुराणों के अनुसार राक्षसों के गुरु हैं और क्यों बने ये दैत्यों के गुरुदेव..
असुराचार्य, भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र जो शुक्राचार्य के नाम से अधिक विख्यात हैं। इनका जन्म का नाम ‘शुक्र उशनस’ है। पुराणों के अनुसार यह दैत्यों के गुरु तथा उनके कुल पुरोहित है।
कथा हैं,की- भगवान के वामनावतार में तीन पग भूमि प्राप्त करने के समय, यह राजा बलि को इस स्थिति से बचाने के लिए वे बलि की झारी (सुराही) के मुख में जाकर बैठ गए थे और बलि द्वारा दर्भाग्र (कुशा) से सुराही को साफ करने की क्रिया में इनकी एक आँख फूट गई थी। इसीलिए यह “एकाक्ष” भी कहे जाते थे। आरंभ में इन्होंने अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया था, किंतु जब वे अपने पुत्र के प्रति पक्षपात दिखाने लगे, तब इन्होंने भगवान शंकर की आराधना कर भगवान शंकर से मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके प्रयोग से उन्हें युद्ध में मृत्यु होने पर मृत योद्धा को पुनः जीवित करने की शक्ति प्राप्त थी। इसी गुरु विद्या के कारण देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते। इन्होंने एक हजार अध्यायों वाले “बार्हस्पत्य शास्त्र” की रचना की। ‘गो’ और ‘जयन्ती’ नाम की इनकी दो पत्नियाँ थीं।असुरों के आचार्य होने के कारण ही इन्हें ‘असुराचार्य’ या शुक्राचार्य कहते हैं।
एक पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि शुक्राचार्य ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी और उनसे मृतसंजीवनी मंत्र प्राप्त किया था, जिस मंत्र का प्रयोग उन्होंने देवासुर संग्राम में देवताओं के विरुद्ध किया था जब असुर देवताओं द्वारा मारे जाते थे, तब शुक्राचार्य उन्हें मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग करके जीवित कर देते थे। यह विद्या अति गोपनीय ओर कष्टप्रद साधनाओं से सिद्ध होती है।जो यहां संछिप्त में दी गयी है।इसका एक मंत्र रूप दुर्गासप्तशती में दिया गया है-
ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्यै मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।।
मृतसंजीवनी विद्या:-
विनियोग – अस्य श्रीमृत्संजीवनी मंत्रस्य शुक्र ऋषि:, गायत्री छ्न्द:, मृतसंजीवनी देवता, ह्रीं बीजं, स्वाहा शक्ति:, हंस: कीलकं मृतस्य संजीवनार्थे विनियोग:।
मृतसंजीवनी महामंत्र :- ॐ ह्री हंस: संजीवनी जूं हंस: कुरू कुरू कुरू सौ: सौ: हसौ: सहौ: सोsहं हंस: स्वाहा।
शुक्र जिसका संस्कृत भाषा में एक अर्थ है शुद्ध, स्वच्छ, भृगु ऋषि के पुत्र एवं दैत्य-गुरु शुक्राचार्य का प्रतीक शुक्र ग्रह है। भारतीय ज्योतिष में इसकी नवग्रह में भी गिनती होती है। यह सप्तवारों में शुक्रवार का स्वामी होता है। यह श्वेत वर्णी, मध्यवयः, सहमति वाली मुखाकृति के होते हैं। इनको ऊंट, घोड़े या मगरमच्छ पर सवार दिखाया जाता है। ये हाथों में दण्ड, कमल, माला और कभी-कभार धनुष-बाण भी लिये रहते हैं।
विष्णु पंथियों ने इनकी महिमा मंडित कर इन्हें निम्न करने सदा प्रयास किया है।
थे। श्रीमद्देवी भागवत के अनुसार इनकी माँ काव्यमाता थीं। शुक्र कुछ-कुछ स्त्रीत्व स्वभाव वाला ब्राह्मण ग्रह है। इनका जन्म पार्थिव नामक वर्ष (साल) में श्रावण शुद्ध अष्टमी को स्वाति नक्षत्र के उदय के समय हुआ था। कई भारतीय भाषाओं जैसे संस्कृत व् अन्य सभी भाषाओँ व् प्रदेशो में सप्ताह के छठे दिवस को शुक्रवार कहा जाता है। शुक्र ऋषि अंगिरस के अधीन शिक्षा एवं वेदाध्ययन हेतु गये, किन्तु अंगिरस द्वारा अपने पुत्र बृहस्पति का पक्षपात करने से वे व्याकुल हो उठे। तदोपरांत वे ऋषि गौतम के पास गये और शिक्षा ग्रहण की। बाद में इन्होंने भगवान शिव की कड़ी तपस्या की और उनसे संजीवनी मंत्र की शिक्षा ली। यह विद्या मृत को भी जीवित कर सकती है। इनका विवाह प्रियव्रत की पुत्री ऊर्जस्वती से हुआ और चार पुत्र हुए: चंड, अमर्क, त्वस्त्र, धारात्र एवं एक पुत्री देवयानी।
इस समय तक बृहस्पति देवताओं के गुरु बन चुके थे। शुक्र की माता का वध कर दिया गय आथा, क्योंकि उन्होंने कुछ असुरों को शरण दी थी जिन्हें विष्णु ढूंढ रहे थे। इस कारण से इन्हें विष्णु से घृणा थी। शुक्राचार्य ने असुरों और दैत्यों का गुरु बनना निश्चित किया और बने। तब इन्होंने दैत्यों को देवताओं पर विजय दिलायी और इन युद्धों में शुक्र ने मृत-संजीवनी से मृत एवं घायल दैत्यों को पुनर्जीवित कर दिया था।
शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को विवाह प्रस्ताव हेतु बृहस्पति के पुत्र कच ऋषि ने ठुकरा दिया था। कालांतर में उसका विवाह ययाति से हुआ और उसी से कुरु वंश की उत्पत्ति हुई।
महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य भीष्म के गुरुओं में से एक थे। इन्होंने भीष्म को राजनीति का ज्ञाण कराया था।
शुक्रनीति राज्यनीति का अमोघ ग्रन्थ है:-
शुक्रनीति एक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ है। इसकी रचना करने वाले शुक्र का नाम महाभारत में ‘शुक्राचार्य’ के रूप में मिलता है। शुक्रनीति के रचनाकार और उनके काल के बारे में कुछ भी पता नहीं है।
शुक्रनीति में २००० श्लोक हैं जो इसके चौथे अध्याय में उल्लिखित है। उसमें यह भी लिखा है कि इस नीतिसार का रात-दिन चिन्तन करने वाला राजा अपना राज्य-भार उठा सकने में सर्वथा समर्थ होता है। इसमें कहा गया है कि तीनों लोकों में शुक्रनीति के समान दूसरी कोई नीति नहीं है और व्यवहारी लोगों के लिये शुक्र की ही नीति है, शेष सब ‘कुनीति’ है।
शुक्रनीति की सामग्री कामन्दकीय नीतिसार से भिन्न मिलती है। इसके चार अध्यायों में से प्रथम अध्याय में राजा, उसके महत्व और कर्तव्य, सामाजिक व्यवस्था, मन्त्री और युवराज सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार शुक्र लाभदाता ग्रह माना गया है। यह वृषभ एवं तुला राशियों का स्वामी है। शुक्र मीन राशि में उच्च भाव में रहता है और कन्या राशि में नीच भाव में रहता है। बुध और शनि शुक्र के सखा ग्रह हैं जबकि सूर्य और चंद्र शत्रु ग्रह हैं तथा बृहस्पति तटस्थ ग्रह माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार शुक्र रोमांस, कामुकता, कलात्मक प्रतिभा, शरीर और भौतिक जीवन की गुणवत्ता, धन, विपरीत लिंग, खुशी और प्रजनन, स्त्रैण गुण और ललित कला, संगीत, नृत्य, चित्रकला और मूर्तिकला का प्रतीक है। जिनकी कुण्डली में शुक्र उच्च भाव में रहता है उन लोगों के लिए प्रकृति की सराहना करना एवं सौहार्दपूर्ण संबंधों का आनंद लेने की संभावना रहती है। हालांकि शुक्र का अत्यधिक प्रभाव उन्हें वास्तविक मूल्यों के बजाय सुख में बहुत ज्यादा लिप्त होने की संभावना रहती है। शुक्र तीन नक्षत्रों का स्वामी है: भरणी, पूर्वा फाल्गुनी और पूर्वाषाढ़ा।
श्रेष्ठ स्थान:-द्वितीय, तृतीय, सप्तम एवं द्वादश में अति शुभ फल देता है।
तटस्थ स्थान:- छठा एवं अष्टम में सामान्य फल है।
मध्यम स्थान:- प्रथम, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम एवं एकादश में धीरे धीरे लाभ देता है,प्रारम्भ में हानि से सबक देता हुआ अंत में लाभ देता है।
शुक्र जीवनसंगी, प्रेम, विवाह, विलासिता, समृद्धि, सुख, सभी वाहनों, कला, नृत्य, संगीत, अभिनय, जुनून और काम का प्रतीक है। शुक्रा के संयोग से ही लोगों को इंद्रियों पर संयम मिलता है और नाम व ख्याति पाने के योग्य बनते हैं। शुक्र के दुष्प्रभाव से त्वचा पर नेत्र रोगों, यौन समस्याएं, अपच, कील-मुहासे, नपुंसकता, क्षुधा की हानि और त्वचा पर चकत्ते हो सकते हैं।
वैदिक ज्योतिष के अनुसार ग्रहीय स्थिति दशा होती है, जिसे शुक्र दशा कहा जाता है। यह जातक पर २० वर्षों के लिये सक्रिय होती है। यह किसी भी ग्रह दश से लंबी होती है। इस दशा में जातक की जन्म-कुण्डली में शुक्र सही स्थाण पर होने से उसे कहीं अधिक धन, सौभाग्य और विलासिता सुलभ हो जाती है। इसके अलावा कुण्डली में शुक्र अधिकतर लाभदायी ग्रह माना जाता है। शुक्र हिन्दू कैलेण्डर के माह ज्येष्ठ का स्वामी भी माना गया है। यह कुबेर के खजाने का रक्षक माना गया है। शुक्र के प्रिय वस्तुओं में श्वेत वर्ण, धातुओं में रजत एवं रत्नों में हीरा और फिरोजा है। इसकी प्रिय दशा दक्षिण-पूर्व है, ऋतुओं में वसंत ऋतु तथा तत्त्व जल है।
शुक्र और शुक्राचार्य जयंती:-
इनका जन्म पार्थिव नामक वर्ष (साल) में श्रावण शुद्ध अष्टमी को स्वाति नक्षत्र के उदय के समय हुआ था। और शुक्र ग्रह का जन्म ज्येष्ठ पूर्णिमां को हुआ था।यो इन दोनो का एक ही अर्थ महत्त्व होने से ज्येष्ठ पूर्णिमां को जयंती मनाई जाती है।
शुक्रदेव स्तुति:-
🌼!!शुक्रदेव स्तुति!!🌍
हे शुक्रदेव एकाक्षी।
सदा शुभत्त्व पाक्षी।।
शुक्रवार दिन कृपालु।
शुक्र ओज दयालु।।
हे खिले नीलवर्णी।
सदा हित कृपा करणी।।
हे जप माला धारक।
भक्तों के तारक।।
नील पुष्प हस्त शोभयमान।
मिटाते गर्वित अभिमान।।
संजीवनी विद्या के ज्ञाता।
शरण जीवन पुनः पाता।।
सहमति मुख उर्जस्वती भगनी।
दैत्य विघ्न कभी न अंगनी।।
शुद्ध शुक्ल उज्ज्वल शुभ अर्थी।
वेद ज्ञान उत्थान प्रकर्ति।।
वैभव ऐश्वर्य के वरदाता।
शुं मंत्र जपते ही पाता।।
श्वेत वस्त्र प्रभा स्वर्ण तन।
दिव्य प्रेम तुम दाता जन।।
बीस साल अखंड यशदाता।
बीसा यंत्र सुख अथाता।।
देते दिशा बन शुक्र तारे।
हे शुक्रदेव नमन उद्धारे।।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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