क्या प्रेम पूर्णिमां व्रत द्धारा पति पत्नी में भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण और सभी लौकिक अलौकिक मनोकामनाओं की पूर्ति के साथ अंत में आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हो सकती है? इस पर महर्षि अत्रि मुनि और महासती अनसूया का उत्तर…[भाग-2]

क्या प्रेम पूर्णिमां व्रत द्धारा पति पत्नी में भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण और सभी लौकिक अलौकिक मनोकामनाओं की पूर्ति के साथ अंत में आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हो सकती है? इस पर महर्षि अत्रि मुनि और महासती अनसूया का उत्तर…

               [भाग-2]

इस पर दोनों ने उपस्थित ऋषियों, भक्तों से कहा-की-आप इस विषय में इस वेदिक ज्ञान को सदा स्मरण रखें की-
1-ईश्वर ही प्रेम है या प्रेम ही ईश्वर है।
2-इस ईश्वर रूपी प्रेम के दो भाग है-1-पुरुष-2-स्त्री।और तभी इन्ही दोनों के प्रेम के भोग और योग से ये समस्त जीव जगत की प्रेम सृष्टि हुयी है।
3-तब ये दोनों स्त्री और पुरुष के रूप में सर्व प्रथम ईश्वर जीवित रूप में प्रेमिका और प्रेमी बना और इसी रिश्ते को और प्रगाढ़ बनाने के लिए परस्पर प्रेम के 7 वचनों को साक्षी बनाकर पति और पत्नी बना है और इसी प्रेम के भोग और योग से अपनी प्रेम मूर्ति संतान को पैदा करने से वो माता और पिता बना है।
4-यो ईश्वर के इन दो भाग स्त्री और पुरुष के रूप में सदा जीवित बने रहने वाली संतान रूपी प्रेम सृष्टि यानि फिर से स्त्री और पुरुष ही वही शाश्वत ईश्वर होता है।यो जब वही ईश्वर स्त्री और पुरुष में सदा बना रहता है।तब वो कैसे अपूर्ण हो सकता है? अर्थात वो सदा पूर्ण है।तभी तो वेद कहते हैं कि-अपनी आत्मा को जानो और उसे ध्याओ और अपने को पाओ।तब तुम देखोगे की-तुम ही वही ब्रह्म हो-तभी वेदांत का अहम् ब्रह्मास्मि उद्धघोष संसार में प्रसिद्ध और सत्य है।यो जो ब्रह्म है,वही तुम स्त्री और पुरुष के रूप में सत्य है।यो इससे आगे का वेदिक घोष है-अहम् सत्यास्मि-यानि मैं ही सत्य हूँ।यो तुम्हारे रूप में सदा वही ईश्वर जीवित और शाश्वत है।तभी तो तुम्हें अपने ध्यान करने पर अपना आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है।यदि तुम ईश्वर नहीं होते,तो कैसे तुममें इश्वरतत्व की प्राप्ति होती? अर्थात ये साधना और ध्यान करना ही आत्म प्रेम है।और इसी आत्म प्रेम की साधना को चाहे अपने में करो या अपने ही अर्द्ध भाग दूसरे में करो।तो तुम्हें अपनी ही आत्मा के सम्पूर्ण रूप की प्राप्ति होगी।

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5-ये दूसरे में ध्यान भी उससे प्रेम होने पर ही होता है।चाहे वो गुरु और शिष्य के बीच हो या प्रेमी और प्रेमिका के बीच हो या भगवान और भक्त के बीच हो या पति और पत्नी के बीच हो।केसी भी करो,दो के एक होने का नाम ही अद्धैत का साक्षात्कार यानि ईश्वर या आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होना कहते है।ये आत्मसाक्षात्कार ही प्रेम की सम्पूर्णता की प्राप्ति है।प्रेम की सम्पूर्णता यानि जैसे चंद्रमा, पूर्णिमां के दिन सम्पूर्ण प्रकाशित होता है।यो चंद्रमा को आत्मा कहा गया है और उसके सम्पूर्ण प्रकाशित होने को प्रेम प्रकाशित होना कहा गया है।और यही प्रेम पूर्णिमां है।
6-तब हमें अपने ही अर्द्ध भाग प्रेमी या प्रेमिका या पति और पत्नी में ही परस्पर प्रेम ध्यान से इस इश्वरत्त्व की प्राप्ति पूर्ण रूप से प्राप्त होगी।इसमें कोई संशय नहीं है।
7-वेदों से पूर्व भी और वेदकाल में भी यही ज्ञान ब्रह्म और ब्राह्मी ने अपनी संतान ऋषियों और उनकी पत्नियों को दिया है।की तुम स्वयं मेरी ही प्रेम संकल्प की सृष्टि हो,यो अपने में ही ध्यान करके तुम मुझे ही प्राप्त करोगे।
8-जिस प्रकार से पिता माता की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर उसकी संतान का अधिकार सिद्ध है।ठीक वेसे ही मेरे समस्त साकार यानि स्थूल यानि भौतिक सम्पत्ति सम्पदा और निराकार यानि सूक्ष्म यानि आध्यात्मिक सम्पत्ति,सम्पदा पर सम्पूर्ण अधिकार है।यो किसी भ्रम में मत रहो की-कोई और है,जो तुम्हें ये प्राप्त करायेगा।बस मेरे और अपने इस प्रेम सम्बन्ध को जानो और उसका प्रेम से ध्यान स्मरण करो और पाओगे की-तुम और मैं एक ही है।
9-यो सभी वेदिक काल से वर्तमान तक सभी ऋषियों इर् उनकी पत्नियों यानि मैं अनुसूया और मेरे पति अत्रि ने परस्पर एक दूसरे में प्रेम ध्यान किया,और प्रेम आत्मसाक्षात्कार को पाया और यही अन्य सिद्ध मनुष्यों ने इसी प्रकार से प्रेम ज्ञान को जानकर स्वयं में ध्यान किया और आत्मसाक्षात्कार को पाया और पाएंगे।यो तुम भी यही करो।
13-आप देखोगे की-देवी सती ने और बाद में देवी पार्वती शिव का ध्यान करने उन्हें पति के रूप में वरदान लेकर प्राप्त किया।यहाँ कितना प्रत्यक्ष ज्ञान है की- स्त्री ईश्वर में पति की इच्छा तभी कर सकती है,जब वो उसमें एक मात्र पुरुष ही देख और अनुभव कर रही हो।यानि पहले स्वयं को उसी के समान मानती हो,की मैं उस ईश्वर रूपी शिव या अन्य देव के समान हूँ।तब इसी महाभाव जो की प्रेमभाव है,इसे पकड़ कर ही उन्हें या अन्य को साधना और पति प्राप्ति की सिद्धि मिली।अन्यथा उसमें ये कमजोर भाव आया की-मैं तो कुछ नही हूँ और ईश्वर तो महान है।तब कैसे राजा और रंक का मिलन होगा?
यो यहाँ ज्ञान यही बताता है की-जो साधक है,वो सर्वोच्चता की प्राप्ति को साधना इसीलिए कर पा रहा है,की वो भी सर्वोच्च और परम् है।अन्यथा जो सच्च में कमजोर है,उसमें कभी भी सर्वोच्चता की भावना पनप और उदय हो ही नहीं सकती है।क्योकि उसमें है,वो वही ब्रह्म है,वही ईश्वर है,तभी इसमें ये ब्रह्मत्त्व या ईश्वर का भाव पैदा होता है और उसे प्राप्त होता है।
अब चाहे ये अपने को भक्त और दूसरे को भगवान मान कर प्रेम साधना करके अपने में भगवत स्वरूप की प्राप्ति कर लें।या चाहे तो अपनी प्रेमिका या प्रेमी या पति में या पत्नी में वही ब्रह्म या ब्राह्मी मानकर प्रेम साधना करके प्रत्यक्ष प्रेम जीवन को प्राप्त किया जा सकता है।जैसे मैं और मेरे पति अत्रि जी।
14-तब सबने पूछा हे देवी कैसे करें ये आपस में प्रेम साधना?:-

तब देवी अनुसूया बोली-की,जब भी तुम किसी अपने प्रेम का चुनाव करो या इसे यो मानो की-पूर्वजन्म के अधूरे प्रेम के कारण इस जन्म में ये पति या पत्नी मिली है।तब इस कही ज्ञान बात को चिंतन में लेकर,
सबसे पहले उस बने सम्बन्ध को पूर्णतया स्वीकारो।
शास्त्र इसी को कहते है की-
1-वचन से-2-मन से-3-तन से एक दूसरे को प्राप्त करोगे,तो तुम्हें जीवित अवस्था में ही परस्पर साक्षात् इश्वरत्त्व की प्राप्ति हो जायेगी।
अब यहाँ इन तीन ब्रह्म वाक्य का ही चिंतन और ध्यान अध्ययन करो-की-
वचन के स्तर पर एक दूसरे के होने:-
ये ही प्रेम विवाह के 7 वचन कहलाते है।इन्हें किसी अन्य के कहने या सुनने से नहीं अपनाये।बल्कि अपने आपस में एक दूसरे से ये वचन कहते और उन्हें ह्रदय से अपनाते हुए बोले।तब इनका सच्चा अर्थ,जो की दिव्य प्रेम है,वो आपके प्रेम और गृहस्थी जीवन में प्रकट होगा।
ये 7 वचन कौन से है-

  1. तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!।

(यहां कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नी का होना अनिवार्य माना गया है। पत्नी द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नी की सहभा‍गिता व महत्व को स्पष्ट किया गया है।

  1. पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
    वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!!

(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

यहां इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रख वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।

  1. जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात
    वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं!!

(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे यह वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं।)

  1. कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
    वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ:।।

(कन्या चौथा वचन यह मांगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जब कि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दा‍यित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूं।)

इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उत्तरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए, जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।

  1. स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्‍त्रयेथा
    वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या!!

(इस वचन में कन्या कहती जो कहती है, वह आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्व रखता है। वह कहती है कि अपने घर के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मंत्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

यह वचन पूरी तरह से पत्नी के अधिकारों को रेखांकित करता है। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढ़ता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।

  1. न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्वेत
    वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!

(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्‍त्रियों के बीच बैठी हूं, तब आप वहां सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आपको दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

  1. परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या।
    वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमंत्र कन्या!!

(अंतिम वचन के रूप में कन्या यह वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगे। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

इस वचन के माध्यम से कन्या अपने वधु भविष्य को पूर्ण करती है।
इन 7 वचनों में आप देखेंगे की-यहां कन्या अपने वर लड़के से कह रही है।ना की कोई मध्यस्थ ब्राह्मण पंडित कह रहा है।इससे सिद्ध होता है की-
ये दिव्य प्रेम के 7 वचन को हमें आपस में कहना चाहिए।
हम दोनों ही परस्पर एक दूसरे के प्रेम के और प्रेम को साक्षी है।अन्य कोई नही।
और जो यहाँ 3 सामाजिक मध्यस्थ है-
1-यानि वर वधु के परिजन वो भी केवल पहले हमारे सहमति के उपरांत हमारे प्रेम के साक्षी मध्यस्थ है।न की वे सर्वेसर्वा है।
2-यहां दूसरा मध्यस्थ है-ब्राह्मण या पण्डित विवाह कराता,वो हमारे वचनो का साक्षी है,न की हम उसके कहे वचनों के साक्षी है।
3-तीसरा मध्यस्थ है-समाज,जो हमारे परस्पर इन 7 वचनो के वचन से और मन से और तन से साक्षी होने का सहमति साक्षी है।की अब आप हमारे सम्बंधों में समल्लित हो गए हो।
जबकि- ये समाज पहले आपके व्यक्तिगत सम्बंधों के उन कारणों को जानना और परखना चाहता है की-जो आप कह रहे हो,उसे निभा भी पाओगे या ये सतही स्तर का प्रेम वचन है,जो कभी भी भंग हो सकता है।
यो ये सब वेदिक वचन जो की वेदिक नारी ऋषि सूर्या ने प्रेम और विवाह को चुने।
यो इन पर गम्भीरता से चिंतन करना चाहिए।और अपने वचन के निर्वाह के स्तर को पक्का करना चाहिए।
इसी प्रकार के परस्पर प्रेम को साक्षी मानकर 7 परस्पर वचन के लिए और दिए जाने पर ही सच्चे और दिव्य प्रेम का वचन में उदय होता है और इसी7 वचनो के परस्पर सच्चे पालन करने से ही वचन सिद्धि होती है।इस वचन सिद्धि से ही मन में सच्चे प्रेम का उदय और प्राप्ति की सिद्धि होती है।जिसे मन की सिद्धि कहते है।
-यदि आप शारारिक भोग की पूर्ति को तो पति पत्नी का सम्बंध रखें और योग की प्राप्ति को गुरु या ईश्वर से प्राप्ति सम्बन्ध रखें,ये दोनों पक्ष् विरोधिक और मन के भटकाव वाले हो जायेंगे।भोग कहीं और योग कहीं?? ये दोनों एक साथ नहीं चलते है।यो ये दोनों एक में ही रखो और स्मरण रखों की परस्पर ही भोग और योग से पूर्णत्त्व प्राप्त करोगे।
अन्यथा गुरु या ईश्वर में भोग के बाद का ध्यान योग नहीं देगा।बल्कि परस्पर सम्बन्ध को भी नष्ट कर देगा।गुरु से ज्ञान लो और परस्पर ही भोग और योग करो और इस भोग और योग के एक होते समय अपने दूसरे प्रेम साथी की आत्मा का ध्यान अपने में एक होने का विचार सहित ध्यान करोगे,तब परस्पर एक होने के महाभाव के उत्पन्न होने पर इश्वरत्त्व आदि सब वहीँ प्राप्त होगा।ये सनातन सत्य है।

मन के स्तर पर एक दूसरे के होने का अर्थ:-

ये मन की उच्चता का 7 प्रेम स्तर परस्पर एक दूजे में प्रेम ध्यान करने से प्राप्त होता है।जिसे कुंडलिनी जागरण के 7 स्तर कहते है।इस प्रेम ध्यान से ही मन शरीर यानि सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति होती है।और जब मन शरीर यानि सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति होती है,ठीक तभी ही सच्चे प्रेम रमण की शक्ति प्राप्त होती है,जिसमें वीर्य या रज के स्खलन नहीं होता है और ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचर्य यानि सक्रिय ब्रह्मचर्य की सच्ची प्राप्ति होती है।ये है मन की सिद्धि होना।अमर देह की प्राप्ति होना।
इससे आगे दिव्य प्रेम की प्राप्ति प्रेम पूर्णिमां व्रत कथा से कैसे करें..
[भाग-3] में जानें

स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
Www.satyasmeemission. org

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