होली का पर्व कथा और स्त्री शक्ति नवजागरण:-
होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र और पूर्णिमां देवी की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ भी कहा जाता था। उस समय किसान के खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में प्रचलित था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत यानि नववर्ष का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन ब्रह्म ने अपने शरीर के दो भाग करके स्वयं को ही प्रथम पुरुष मनु और प्रथम स्त्री सतरूपा के रूप जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि भी कहते हैं।तभी इसी दिन अहम् ब्रह्मास्मि घोष हुआ था।
होलिका दहन उत्सव:-
होली का पहला कार्य झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को बहिनों द्धारा भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना और परस्पर बांटा जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का प्रतीक भी है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।अब इतना प्रचलन नहीं रहा है।
सार्वजनिक होली मिलन समारोह:-
होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं।छोटे बड़े बच्चे पिचकारियों से परस्पर रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर अपने परिचितों में सबसे मिलने जाते हैं।किसी बड़े स्थान पर प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं।
होली के एक और रंग पर अपनी कविता से स्त्री शक्ति की महानता को बताते हुए स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी कह रहें हैं की…
रति-काम-शिवत्त्व जागरण दिवस में नारी की महानता के अनंत रंग-रंग पंचमी की सभी को शुभकामनाएं…
सती यज्ञ में जल मरी
शिव पति का देख अपमान।
शिव ने सुन सुसर दक्ष कर्म
भेज वीर दक्षसर मिटाया दंभिमान।।
प्रिय विरह वेदना अग्नि
जले ह्रदय के श्मशान।
सती शव ले विश्वभर
विश्वम्भर तांडवित अमावस अंज्ञान।।
तब हरि सुदर्शन दुःख काटते
सती शव एक सौ आठ।
इस रिक्तता की अधिकता से
शिव एकल हुए प्रेमवहीन विराट।।
शक्ति मिटी प्रकर्ति घटी
त्रिगुण रहे जगत दो शेष।
रँगविहीन हो गया जगत
रह गयी अष्ट कला मात्र अवशेष।।
प्रेम विहीन हो वेराग्य बढ़ा
शिव बने शक्ति बिन खिन्न।
स्वयं समाधि निर्विकल्प हुयी
स्वयं से स्वयं हुआ ज्यों भिन्न।।
प्रेम हीन बेरंग देख
देवता संग चिंतित हुआ जगत।
निकला समाधान कामदेव रति
वैराग तोड़े रागी ये भक्त।।
शिव का वेराग्य चले तोड़ने
कर कामदेव देवत्त्व आवाहन।
काम पुष्प अमोघ बाण चला
शिव चित्त को किया विचलाहन।।
प्रेम विरह विक्षिप्त शिव प्रेमी
क्रोध बना प्रेमिक अनुराग।
टूट समाधि विरह अग्नि की
कामदेव पड़ी अग्नि अधिराग।।
भस्म हुए कामदेव जगत से
प्रयास परिणाम गया व्यर्थ।
काम ही मूल कर्म का जग में
व्यक्तित्त्व आधार नही अब अर्थ।।
काम की शक्ति रति कामना
रही वहीं देख जीवंत।
बिन काम के कामना रति कैसी
निम्न उच्च बिन मध्य फंसी विरहंत।।
रति तड़पती बिन आधारे
काम बिन कर्म त्रिजगत विलुप्त।
थमी सृष्टि बन निष्प्रयोजन
सर्व क्रिया प्रतिक्रिया हुयी अलुप्त।।
देव दैत्य क्रिया प्रतिक्रिया नामा
मिटने लगी त्रिजगत सृष्टि।
बिन आधार क्या भाव महाभाव
हुए क्षण अक्षण विलुप्त अंतरदृष्टि।।
यूँ प्रेम विरह वेराग्य भी ढलकर
आधारहीन हुआ निष्प्राण।
लौटने लगे शिव निर्विकल्पता पाकर
बिन प्रेम प्रयोजन क्या निर्वाण।।
खुली सम्यक हो त्रिकाल द्रष्टि
सभी कामनाओं को अधर पाया।
रूप अरूप बन स्थूल सूक्ष्म
अनु विनयहीन एक मात्र छाया।।
शिव हुए स्तब्ध देख ये
बिन काम कर्म क्या शक्ति।
निज अनुभव भी विलीन है यूँ ही
मैं भी मिट गया बिन आशक्ति।।
चेतना बिना नही अवचेतन
और नही कोहम् बिन सोहम।
यूँ शिव भी शव बन जाएं इन बिन
शिव अंतरचित्त हुया ओहम्।।
यही दुर्बोध चिंतन से उपजा
पुनः काम कर्म का बीज।
अंकुरित हुए काम अतिसूक्ष्म
पल्लवित हो हर देह यूँ रीझ।।
काम कामना एक हुए क्रिया
रति बन प्रकट चतुर्थ कर्म।
रूप अरूप हुया काम रूपांतरित
मन बन मानुष पुनः चार धर्म।।
शक्ति की ही विभक्ति पाकर
शिव भी हुए रहित भक्ति।
शक्ति बिन शिव भी क्या तत्वी
यही भावार्थ है महा रति।।
यूँ रति ही सती सुक्ष्मरूपा
और वही है अनादि शाश्वत शक्ति।
शव में ई युक्ति शिव शक्ति बन
शिव शक्ति रति है भक्ति मुक्ति।।
शिव शक्ति रति काम मिलन का
यही दिवस है महापावन।
बसंत ऋतु लिंगोउत्सव बन
प्रकर्ति में सब उर्ध्व पावन।।
काम भाव प्रकर्ति व्यापे
और रति फले फुले हमजोली।
कामनाएं परिपूर्ण हो मचलती
कामोउत्सव खेल खेलीं।।
गेहूं बाली नाम होला है
वही पूरण है बसंत ऋतु झोली।
गेहूं कट कर आता जन घर
यही होलाउत्सव है होली।।
यूँ स्मरण रहे बुरा नही कुछ भी
काम बिन नही अकाम यति।
क्रिया बिन ना भोग योग है
यही काम रति की है अभिव्यक्ति।।
सृष्टि उत्पन्न काम से होती
और कामनाएं है प्रकति रूप।
पँच तत्व ये जगत शरीरी
काम रति का प्रत्यक्ष स्वरूप।।
काम के चार बाण है
जो चले सभी पर बन आशक्त।
आशक्ति से प्रणय प्रेम तक
अष्ट स्वरूप है काम रति विभक्त।।
अर्थ काम धर्म मोक्ष भी
काम रति की ही है देन।
इन दोनों बिन मुक्ति अर्थ क्या
इच्छित कर्म शक्ति बिन हेन।।
द्धैत से ही प्रेम अतुल
नर नारी एक अद्धैत हो भक्ति।
एक बिना भोग योग प्रेम ना
एक दूजे बिन अर्थ मात्र विभक्ति।।
पूरक है भोग योग कर्म कर
यही सत्यार्थ काम रति युक्त भक्ति।।
सती जन्मी पार्वती बन हिमपर्वत
प्रेम तप किया घनघोर।
ध्याया पाया शिव यति पति रूप
पुनः प्रेम जीवन्त हुआ बन मनमोर।।
त्रिगुण हुए सम्पूर्ण विश्व में
शिव हरि ब्रह्मा निज आत्म शक्ति।
खिली अमावस पूर्णिमाँ बन जग
षोढ़ष कला चैत्र बन होली भक्ति।।
रंगत लोटी सप्त रंग लेकर
भक्त भक्ति बनी गुलाल।
अधीरता मिटी धीरता अबीर बन
दोनों मिल प्रेम बने लग भाल।।
खुशियाँ के रंग से भर गया जगत ये
इस पगलपन में मचा धमाल।
चल रहे थे एक दूजे लट्ठ विरहन के
वही लट्ठ चले प्रेम भर चाल।।
पँच प्रकर्ति सम्पूर्ण हो गयी
खिले सप्त कमल संग कमली।
यही बनी रंग पंचमी होली
प्रेम रंग रास रंगी गोपी पगली।।
नारी की महानता अर्थ
कामदेव जन्मे शिव वर से
कृष्ण पक्ष पंचमी ले अवतरण।
कृष्ण रुक्मणी पुत्र प्रद्युम्न बन
हर्षित हुआ द्धारका जन जन।।
कृष्ण शत्रु शम्भरासुर पातक
अपह्रत किया प्रद्युम्न जातक।
फेंका समुंद्र निगला मछली ने
रति रसोइयन मायावती बन पालक।।
पाला पोसा सभी विद्या सिखाई
बड़ा हुआ जन्म उद्धेश्य बताया।
कामदेव स्वरूप प्रद्युम्न वरित कर
शम्भासुर का वध तब कराया।।
लौटे प्रद्युम्न रति माया के संग
श्री कृष्ण रुक्मणी आशीष पाया।
उद्धेश्य जन्म का किया हर पूर्ण
लोट निज लोक पुनः काम कर्म अपनाया।।
नारी की यही महिमा अपार
सत्य प्रेम करें तो करे उद्धार।
उठ जाग नारी शक्ति पहचानों
यही प्रेम पंचमी पर्व ज्ञान है सार।।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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