कथित प्रेम नामक प्रीति रूपी बंधन रस्सी के ज्ञान पक्ष पर स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी सत्संग से भक्तों को ये ज्ञान उपदेश दे रहें हैं की…

कथित प्रेम नामक प्रीति रूपी बंधन रस्सी के ज्ञान पक्ष पर स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी सत्संग से भक्तों को ये ज्ञान उपदेश दे रहें हैं की…

बंधन रस्सी बांध कर
प्रेम करे पर प्रीत।
अंत भला ना हो कभी
प्रेम नाम पाये दुःख रीत।
विश्वास नाम बंधन जकड़
दे एक दूजे धोखों वचन।
नयन झूठे आँशु भरे
उपहार सहित कृतिम करे जतन।।
सच्चा प्रेम जिसे चाहिए
वो प्रथम ह्रदय निज के झांक।
करे आंकलित निभाव प्रीत की
तब प्रेम मिले बढ़ स्वयं गुन लाख।।

भावार्थ:-

हे शिष्य- जो मनुष्य प्रेम करने के नाम पर प्रीत नामक रस्सी का बंधन अपने प्रेमिक को बांधता है। उसके प्रेम रूपी छल का अंत दुःख और उपेक्षा की प्राप्ति के पथ पर चलता हुआ समाप्त हो जाता है। क्योकि इस प्रकार के सम्बंधों में जो भी विश्वास नाम का कथित आश्वासन एक दूसरे को दिलाया जाता है। वो प्रारम्भ से ही धोखों के वचनों पर एक वासना की प्राप्ति को ही होता है। यो इस प्रकार के प्रेम के विछोह में जो प्रेमी प्रेमिका की आँखों में जो आँशु भरे बहते है। वे भी कुछ समय को ही होने से कृतिम यानि बनावटी ही होते है क्योकि उनके पीछे अपने दिए बहुमूल्य उपहारों के उपरांत भी कुछ मनचाहे की प्राप्त नही होना ही होता है। ये एक सौदेबाजी से ही प्रारम्भ होता है, की यदि सौदा बन गया तो ठीक नही तो किसी और को देखेंगे यो जब पहले ही कोई स्थायित्त्व नही होता तो ये कथित प्रेम टिकेगा किस विश्वास और वचन के ऊपर? यो ये संसारी प्रेम एक भ्रम और प्रपंच ही सिद्ध होता है और जिसे सच्च में प्रेम करना हो जो की ज्ञान का ही दूसरा नाम है। वो प्रेंमिक पहले स्वयं में इस प्रेम सम्बंधों के प्रारम्भ से अंत तक एक कल्पना रूपी चिंतन करें उससे उसे पहले ये पता चलेगा की ये सब एक वासना की प्राप्ति और उसके उपरांत ही तो उबाऊ होकर समाप्त तो नही हो जायेगा क्या मैं अपने बल पर प्रेम कर रहा हूँ या दूसरा मुझे प्रेम करायेगा?तब उसे पता चलेगा की वासना और उसकी पूर्ति मुख्य है। इससे आगे जो आत्मिक प्रेम है वो किस प्रकार सदैव प्रेम के प्रारम्भ का ही अंत तक आनन्द देता रहेगा यही दिव्य प्रेम है। जो केवल अपने अपने वैचारिक समर्पण की ये दूजा मैं ही हूँ और ऐसा ही दूजे के प्रथम हो तब एक प्रेम सूत्र का उदय होता है की या तो किसी के हो जाओ और या किसी को अपना बना लो यो इसमें केवल किसी जो की प्रेम ही का रूप धारण किये है। यो उसी के हो जाने पर सच्चा प्रेम स्वयं बढ़ बढ़ कर लाख गुना स्वयं को स्वयं ही प्राप्त होता है। यही है निष्काम प्रेमवस्था जो गुरु प्रदत्त ज्ञान ध्यान चिंतन और सेवक भाव से संसार में शीघ्र ही प्राप्त होता है।यो शिष्य सदैव गुरु प्रदत्त गुरु मंत्र जप और ध्यान करते रहो तो अवश्य मनवांछित प्रेम की प्राप्त होती है।

स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
Www.satyasmeemision.org

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Articles

Scroll to Top