#गुरुकृपासेकुंडलिनीजागरणकेनवांग_योग🌞
#सत्यास्मिसत्संग में #स्वामीसत्येंद्र_सत्यसाहिबजी भक्तों से कहते हैं कि,
गुरु में शिष्य शिष्य में गुरु
तब जगे कुंडलिनी आत्म तरु।
दोनों मध्य हो प्रेम रति
स्थूल सूक्ष्म एक हो उदित अरु।।
आत्म कुंडलिनी तब जगे
जब नवधा भक्ति जानों।
आत्म मंत्र,सत्यसेवा,सत्संग
प्रीति,त्याग,अहं को भानों।।
गुरु शिष्य अर्थ कर धारण
और एक प्रेम कर अर्थ।
एक पथ चले निरंतर
इससे परें सभी व्यर्थ।।
यूँ करें अपने में गुरु ध्यान
और आत्म नाम का जाप।
मैं नहीं सब गुरु बसें
इस एकाकार मिले तब आप।।
भावार्थ👉
जब शिष्य अपने अंदर गुरु को धारण करके की ये देह मेरी नही है-गुरु की है। और मेरे स्थान पर गुरु ही योग विराजमान् है।तब गुरु मंत्र स्वमेव चैतन्य हो कर सम्पूर्णत्त्व को प्राप्त होता है। और इस आत्म पथ पर चलने के लिए नो प्रकार की भक्ति चाहिये।जो इस प्रकार से है ।गुरु यानि ज्ञान से प्रेम हो और व्यर्थ के विषयों का त्याग करें तथा अपने अंदर जो अहंकार है, उसे दो तरहां से भाने यानि अध्ययन करें की मैं कौन हूँ? और जो सत्य मैं है वो कौन? और किसे कहते है ? तब जो गुरु है, जिसके तुम शिष्य बने हो,उससे किसी भी प्रकार का भेद आपमें है या नही ? इसका अध्ययन करें, की मेने गुरु तो बना लिए है।क्या सच में मैं उनका शिष्य बना हूँ ? या बनी हूँ? कहीं उनसे मेरा कोई आंतरिक या बहिर विरोध तो नही है? तब ये ज्ञान ध्यान चिंतन ही मन को शुद्ध करता है ।इससे गुरु में अपना सच्चा समर्पण का भाव उत्पन्न होता है।
तब गुरु को धारण करने का अर्थ समझ आता है।इस सत्यसंग को नित्य अपने में मनन करें और गुरु से अपनी सभी जिज्ञासाओं को पूछे और उनसे प्राप्त उत्तर का अध्ययन करता अपनाये। ये सत्संग है और तब गुरु और शिष्य में क्या सम्बन्ध है?वही ज्ञान जानने पर प्रेम बनता हुया प्रेम का अर्थ प्रकट होता है।तब एक ही पथ पर चलता है भिन्न भिन्न सिद्धांतों को मानना त्यग जाता है-जैसे आप किसी एक ही मार्ग पर चलकर ही लक्ष्य पर पहुँच सकते है ना की बदल बदल कर अनेक मार्गों को अपनाते अपना लक्ष्य कभी नही पा सकते हो, यो इस ज्ञान से परे सभी व्यर्थ है।यूँ अपने में गुरु को संयुक्त करके तब आत्म मंत्र का जाप करें और तब मैं नही गुरु ही सब कर्ता है। ये भाव धारण करता अपने को गुरु में एकाकार करने पर स्वयं ही अपने आप की प्राप्ति होती है।यही #सत्यास्मि_आत्मसाक्षात्कार है।
#जयसत्यॐसिद्धायैनमः🙏
#स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिबजी
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