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क्यों प्रत्येक मनुष्य को धारण करना चाहिए सिद्धासिद्ध महामंत्र का सिद्धि कुंडलिनी यंत्र

क्यों प्रत्येक मनुष्य को धारण करना चाहिए-सिद्धासिद्ध महामंत्र का सिद्धि कुंडलिनी यंत्र:-

कुंडलिनी सिद्धि यंत्र महिमा

बता रहें हैं,स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी

सिद्धासिद्ध महामंत्र-सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा का कुंडलिनी सिद्धि यंत्र में स्थापित चिन्हित व वर्णित महिमा कैसे है,ये जाने-

कुंडलिनी विज्ञान को यंत्रस्वरूप दर्शाता,ये महायंत्र सम्पूर्ण विश्व में अकेला और सम्पूर्ण फल देने वाला है।
ये साधक से योगी होने तक कि अपने आप में सम्पूर्ण योगजीवन यात्रा है।
इस महायंत्र के दोनों ओर के दो अर्द्ध वृत हैं –

1-जिसमें सीधे हाथ का वृत है-
सत्य:-

सत्य जो कि पुरुष शक्ति है,इसी सत्य से त्रिगुण-तम-रज-सतगुणों की उत्पत्ति है,जिसको धर्म शास्त्रों में सत्यनारायण कहते है और इन्ही सत्य पुरुष के अनगिनत नाम है-जैसे-ब्रह्मा-विष्णु-शिव आदि और इन्हीं सत्य को इन त्रिदेवों के परमरूप में-1-परब्रह्म-2–महाविष्णु-3-महाशिव या परमशिव आदि कह कर उस मत पंथ को सम्पूर्ण बताया गया है,इसी सत्य के लोक स्थान को सतलोक के रूप में वर्णित किया है तथा इसी सत्य पुरुष के बीजदान करने से ही स्त्री ॐ में प्रजनन शक्ति बनकर समस्त जीव,जगत आदि की उत्पत्ति होती है,तभी सत्य को यहां मंत्र में प्रथम स्थान दिया है और सत्य पुरुष की सिद्धि यंत्र में त्रिशक्तियों का भावार्थ कैसे है,ये जाने-
1-स यानी स्वयं सनातन शाश्वत शक्ति से सिद्धि तक।
2-त यानी महातत्व से तत्वतीत तक।
3-य यानी यंत्र या सम्पूर्ण स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर रूपी जीवंत यंत्र शक्ति या-ऋण शक्ति-पिंगला नाड़ी-सूर्य शक्ति को दर्शाता है।

2- अब कुंडलिनी सिद्धि यंत्र में जो वाम यानी उल्टे भाग का जो अर्द्ध वृत है,जिसमें ॐ स्त्री शक्ति है,उसका अर्थ जाने-

ॐ यानी स्त्री शक्ति का कुंडलिनी सिद्धि यंत्र में मंत्रात्मक स्थापन भावार्थ कैसे है,ये जाने,

यानी ॐ सभी मंत्र,वर्ण, अक्षर आदि से लेकर भाषा व समुदायों की जननी होने से स्त्री शक्ति है यो,ही ॐ सब मंत्रों के पहले लगता है और उन्हें पूर्ण करता है,यो इस ॐ स्त्री की त्रिशक्तियों-जिन्हें स्त्रितत्व के त्रिगुणों-1-तमगुण-2-रजगुण-3 -सतगुण के रूप में-1-ब्राह्मणी या सरस्वती-2-लक्ष्मी-3-आदि शक्ति,सती, पार्वती,काली दुर्गा आदि या 10 महाविद्याओं के रूप में वर्णित और इनके लोक वर्णित कर पुराणों में बताया है।यो,ॐ स्त्री शक्ति का कुंडलिनी सिद्धि यंत्र में किस प्रकार से मंत्र भावार्थ है,वो जाने-
1-अ-अनादि से अनन्त तक।
2-उ-उर्वरा से ऊर्ध्व तक।
3-म-मम यानी स्वयं के धन शक्ति,चंद्र शक्ति या इंगला नाड़ी आदि के बोध से महातत्व के बोध तक।

3- कुंडलिनी सिद्धि यंत्र के मध्य का भाग,जिसे कुंडलिनी जागरण पथ या सुषुम्ना पथ आदि कहते है,जहां सिद्धासिद्ध महामंत्र का ‘सिद्धायै’ का मंत्र यंत्र भावार्थ कैसे वर्णित है,वो जाने:-

नीचे के प्रारम्भ में षट्कोण निर्माण में सत्य पुरुष शक्ति का ऊर्ध्व त्रिकोण यानी लिंगस्वरूप शक्ति और ॐ स्त्री शक्ति का निम्न त्रिकोण यानी योनिशक्ति के मिलन से मुलाधार चक्र में जाग्रत सुषुम्ना शक्ति यानी कुंडलिनी शक्ति के जाग्रति का निर्माण है।

सिद्धायै:-

सिद्धायै यानी ये सत्य पुरुष व ॐ स्त्री के मिलन से जड़,चेतन,स्थूल,सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म,जीव,जगत रूपी निर्मित सम्पूर्ण विश्व,जगत,संसार आदि की सिद्धावस्था या सम्पूर्णता और उसके सम्पूर्णत्व के परम विकास का ऊर्ध्व मार्ग का स्वरूप है।

जिसमें सिद्धायै के 7 अक्षर से बने 7 कुंडलिनी चक्र हैं-

1-सं-(मुलाधार चक्र)
2-ईं-(स्वाधिष्ठानचक्र)
3-दं(नाभिचक्र)
4-धं-(ह्र्दयचक्र)
5-आं-(कंठचक्र)
6-यं- (आज्ञाचक्र )
7-एं- (सहस्रारचक्र) है।

आप यहां ये भी कहेंगे कि,इन पुरुष व स्त्री बीजाक्षरों में पुरुष बीजाक्षर पहले व स्त्री बीजाक्षर बाद में होने से नीचे दिए शब्द अर्थ बने है,ऐसे इसके विपरीत क्यों नहीं बने या बन सकते है,बन सकते है,पर यहां विषय ये है कि,पुरुष ही बीजदान करता है और स्त्री बीज ग्रहण करके पालन पोषित कर सृष्टि-“सिद्धायै” के रूप में नवजीव जीवन को प्रदान करती है यो,यही सिद्धायै नामक सम्पूर्ण सृष्टि ही उसका नवबीज व जीव दान है,यो,उसके बीज को पहले रखकर शब्द नहीं बनाएंगे।
अब यहां पुरुष और स्त्री के बीजों से क्या शब्द और शक्ति कुंडलिनी व जीवन उपयोगी फल की सृष्टि होती है,जाने..

मुलाधार चक्र:-

पुरुष बीज-लं और स्त्री बीज-भं मिलकर लभ यानी प्राप्त करना और विस्तार में “लाभ” बनता है,यानी आनंद संसार रूपी समस्त लाभ बनता है,जिस लाभ से मुलाधार चक्र यानी इस संसार की सृष्टि का निर्माण होता है।

स्वाधिष्ठान चक्र:-

इसमें पुरुष बीज-वं और स्त्री बीज-गं मिलकर वग यानी हिलना या गति,अठ्ठकेलियाँ और शब्द विस्तार वाग यानी आनन्द बनता है।

नाभि चक्र:-

इसमें पुरुष बीज-रं- यानी (रमण) और स्त्री बीज सं यानी (गर्भस्थ जीव-सृष्टि) मिलकर बनता है-रस यानी वस्तु का मूल रूप पदार्थ व उसका सीधा स्वाद और रस से आगे उपयोगी शब्द रास यानी आनन्दमयी विलास क्रीड़ा आदि,यानी नाभिचक्र से ही जीव को सृष्टि होकर रस और उसके रास आनंद की प्राप्ति होती है।

ह्रदय चक्र:-

इसमें पुरुष बीज-यं यानी (योनि यानी किस योनि में जन्में हो,पुरुषयोनि में जन्में हो) व यज यानी ऋषितत्व कि प्राप्ति और स्त्री बीज-चं यानी चर यानी जड़, चराचर सम्पूर्ण जगत चैतन्य और उसको भासित,अनुभव आदि करने वाला चित्त व उसका चिद्धकाश आदि मिलकर बनते है-यच यानी भवसागर पार करने की साधन नोका व प्रार्थी आदि तथा विषय अर्थ में एक आंख वाला यानी प्रज्ञाचक्षु स्थिति की प्राप्ति होती है।

कंठचक्र:-

इसमें पुरुष बीज-हं यानी हम यानी स्वयं की उपस्थिति का बोध उच्चारण और स्त्री बीज-मं यानी मम यानी मैं स्वयं की उपस्थिति का बोधपूर्ण उच्चारण।
अब इन दोनों बीजों का एकीकरण शब्द बना-हम यानी दोनों के अहम “मैं” के प्रेमिक एकीकरण की प्राप्ति होती है।

अब इससे आगे ये विषय आता है,इन स्त्री व पुरुष व स्त्री बीजों के संयुक्त बीजार्थ का सम्बंध सिद्धायै रूपी 7 बीजाक्षरों से कैसे व क्या जीवनार्थ देता है,जाने,

पहले जाने सिद्धायै के 7 बीजाक्षर-

1-सं- से शाश्वत सृष्टि करना।
2-ईं-से शाश्वत इंद्रिय यानी शरीर की इच्छा करना।
3-दं-से शाश्वत देवत्त्व देह की प्राप्ति करना।
4-धं-से शाश्वत धर्म की प्राप्ति करना।
5-आं-से शाश्वत आत्मा की प्राप्ति करना।
6-यं-से शाश्वत योनि यानी मूल पुरुष व मूल स्त्री योनि की प्राप्ति करना।
और यै के ऊपर लगी दो ऐ की मात्राओं से
7-एं-से शाश्वत एकत्व और उसके अंनत आनंद विस्तार की प्राप्ति करना।

4-सिद्धायै का सिद्धि यंत्र में स्थित मंत्र यंत्र भावार्थ स्वंरूप किस प्रकार से है ये,जाने,

अब जाने पुरुष व स्त्री कुंडलिनी बीजमंत्रों के संयुक्त बीजों का सिद्धासिद्ध महामंत्र में स्थित सप्त कुंडलिनी चक्रों का शब्द स्वंरूप-“सिद्धायै” से निर्मित मनुष्य कुंडलिनी मुलाधार चक्र:-

मुलाधार चक्र में पुरुष और स्त्री के बीजमंत्रों का एकीकरण से बना सिद्धायै यानी पुरुष सत्य व स्त्री ॐ दोनों के ढाई गुणों-जैसे-पुरुष के सत्य में-1-स-2-त-3-य में स यानी ऋण शक्ति है और त यानी अर्द्ध तत्व पुरुष का बीज वीर्य शक्ति है तथा य यानी धन शक्ति है,यो, ये ढाई गुण हुए और ठीक ऐसे ही स्त्री शक्ति ॐ के भी ढाई गुण है-1-अ-2-उ-3-म,यहां अ स्त्री का धन शक्ति है या इसे विज्ञान भाषा में X कहेंगें और उ यहां स्त्री का अर्ध बीज यानी रज शक्ति है तथा म स्त्री का ऋण शक्ति या विज्ञान भाषा में X है,योग भाषा में ये दोनों X1,X2 हैं यो,ये ढाई गुण हुए। अब पुरुष व स्त्री के ढाई+ ढाई गुण मिलाकर = 5 गुण या 5 तत्व। यो,ये पुरुष व स्त्री के 5 बीज या 5 तत्व बीज,मिलकर ऊपर दिए शब्द बनते है।
यहां ओऱ भी योग विस्तार को- सत्य पुरुष के ढाई के दोगुणा 5 बीज विस्तार-लं, वं, रं, यं, हं, में से लं और वं बीज,स बीज से निर्मित हैं और कैसे हैं ये भी आगे बताऊंगा
ठीक ऐसे ही ॐ स्त्री के ढाई बीजाक्षर है,जिनका विस्तार बीजरूप है-1-भं,2-गं,-3-सं-4-चं,-5-मं, इसमें अ के विस्तार धन शक्ति बीज भं है और ऋण शक्ति बीज गं हैं तथा उ अर्द्ध बीज रज का बीज है-सं और मं बीज का विस्तार-धन शक्ति बीज चं और ऋण शक्ति बीज मं हैं।
यो,पुरुष व स्त्री के ये अर्द्ध पंच+अर्द्ध पंच बीज मिलकर,जोकि असल में ढाई+ढाई बीज ही के विस्तार होने से 5 बीज ही बनते है-तभी दोनो के मिलन से 5 बीज व 2 स्वयं होकर 7 बीजाक्षर वाले सिद्धायै यानी सम्पूर्णता की प्राप्ति होती है।यहां जो समझ न आये,उसे ऐसे जाने जैसे कि-ॐ से कैसे 52 वर्णाक्षर की उत्पत्ति हुई है?,वही सूत्र यहां उपयोग में है।हर बीजाक्षर का एक बोध शब्द है-जैसे-लं जोकि पुरुष के लिंग का संक्षिप्त बीज है और जैसे-भं जोकि स्त्री के भग यानी योनि का संक्षिप्त बीज है।ये सब ज्ञान पूर्वत लेखों में बताया जा चुका है।
यो,सत्य पुरुष की कुंडलिनी के ढाई बीजों का विस्तार 5 बीज और ॐ स्त्री की कुंडलिनी के ढाई बीजों का विस्तार 5 बीज का संयुक्त मिलन से सिद्धायै रूपी संपूर्ण कुंडलिनी जागरण का बीज समीकरण कैसे है ये,आगे जाने,

1-मुलाधार चक्र:-

तो,सिद्धायै यानी सम्पूर्णता प्रदान करने वाली कुंडलिनी शक्ति के जागरण का प्रथम स्तर मुलाधार चक्र में-
जब पुरुष बीज-लं + स्त्री बीज-भं मिलकर बना “लाभ” ये भौतिक लाभ व आध्यात्मिक लाभ का, सिद्धायै का पहला बीजाक्षर सं यानी स्व और दोनों स्वयं का एक रूप या अनेक रूपों की स सृष्टि से मिलकर बना भौतिक व आध्यात्मिक लाभकारी सृष्टि की उत्पत्ति करता या होना अर्थ है।
और स-सुषुम्ना यानी दो मन की एक युगल अवस्था,इस अवस्था की शरीर विज्ञान में सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं,जिसमें मन की दो धाराएं-1-ऋण-पिंगला,सूर्य, पुरुष शक्ति-2-धन-इंगला,चंद्र, स्त्री शक्ति,जो, मिलकर एक शक्ति प्रवाह का ऊर्ध्व विस्तार बनाते है,वह कुंडलिनी कहलाता है,यो, सुषुम्ना नाड़ी ही कुंडलिनी नाड़ी भी है।
ठीक ऐसे ही आगे-

2-स्वाधिष्ठान चक्र में:-

पुरुष बीज-वं यानि वीर्य व स्त्री के बीज-रज स्वरूपी
से मिलकर गं यानी गर्भ धारण या निर्माण करता है,तब सिद्धायै का ईं यानी इच्छा या ईशत्त्व रूपी लाभकारी सृष्टि की इच्छा शक्ति को जन्म व पालन कर प्रदान करता है।
ग यानी गरी यानी स्त्री बीज शक्ति जो स्त्री के गर्भ को निर्मित करने का मुख्य कारक है।यो,पुरुष बीज-व यानी वीर्य और स्त्री बीज ग यानी गरी मिलकर वग या वाग माने दो शक्तियों की गति करते विस्तार करती हैं और जहां गति कर विस्तार करने पहुँचती है,वो स्थान है,इन दोनों शक्तियों को ग्रहण करने वाला गर्भ।तब दोनों बीज शक्तियां एक होकर गर्भ में पहुँचकर-
जो, सिद्धायै का दूसरा बीजमंत्र ई यानी ईशत्त्व शक्ति है-उस ईश तत्व की जो ई इच्छाशक्ति को प्रकट उद्धभव या जन्म या निर्मित करते है।ये स्वाधिष्ठान यानी स्वयं का निवास स्थान,जिसे स्त्री या प्रकर्ति का गर्भ कहते है,जहां पुरुष हो या स्त्री अपना स्वंरूप नए रूप में प्रकट करता है,वहां सम्पूर्ण से सिद्ध होने तक का लाभ पाता है।

अब आगे सिद्धायै के तीसरे चक्र नाभिचक्र में पुरुष और स्त्री के बीजों के एक होने से कौन सी सृष्टि बनती है ये जाने,
3-नाभि चक्र:-

नाभि चक्र में पुरुष का बीज-रं यानी अग्नितत्व या रमण या रमना यानी वहां से सर्वत्र विस्तारित होने की ओर अग्रसित होना तथा स्त्री नाभि चक्र का स्त्री बीज-सं यानी सफलता या सिद्ध करने को गर्भस्थ जीव-जीवन की सृष्टि करने,पालने,सशक्त,समर्थ बनाने आदि के लिए जीवन शक्ति देना।यो,दोनो-र+स= रस और रस से मिलने वाला रास आनन्द की प्राप्ति होती है।जो,दोनों की सिद्धायै यानी सम्पूर्णता के तीसरे चरण या चक्र के बीज-दं से देवत्त्व देह की प्राप्ति करता सम्पूर्णता सिद्धई की ओर बढ़ता है।

अब आगे सिद्धायै के चौथे सिद्ध चरण या चक्र में क्या जीव विस्तार है,वो जाने,
4-ह्रदय चक्र:-
सिद्धायै यानी जीव की सिद्धावस्था के चौथे चरण या चौथे चक्र में पुरुष कुंडलिनी बीज-यं यानी पुरूष की योनि में जन्मना और स्त्री कुंडलिनी बीज-चं यानी चर यानी जड़ से लेकर चराचर यानी सम्पूर्ण जीव,जगत,चैतन्य और उसको भासित करने वाला चित्त और उसका आकाश चिद्धाकाश आदि,जिनके मिलन से अपने जीवन विस्तार का जो शब्द अर्थ बनाते है-यं+चं=यच यानी भवसागर पार करने का साधन या नोक या प्रार्थी या सभी विषय और उनके सभी अर्थों में अपनी एक आंख वाली यानी प्रज्ञाचक्षु स्थिति की प्राप्ति से ऋषित्त्व को प्राप्त होने वाला होता है।जो अपनी सिद्धायै के चौथे चरण चक्र के बीज-धं यानी धर्म की धम्म शाश्वत अवस्था-दया,दान,सुचिता, मृदुलता गुणों को धारण कर उसकी प्राप्ति करता है।

अब सिद्धायै के पंच चरण चक्र में क्या जीव विस्तार है,वो जाने,
5-कंठ चक्र:-

सिद्धायै यानी जीव की सिद्धावस्था के पंचम चरण चक्र में पुरुष कुंडलिनी बीज मंत्र-हं यानी हम यानी पुरुष तत्व की स्वयं की उपस्थिति का बोध उच्चारण मैं और स्त्री कुंडलिनी बीजमंत्र-मं यानी मम यानी स्त्री तत्व की स्वयं की उपस्थिति का बोध उच्चारण यानी मैं,इन दोनों अहम या मैं के प्रेमिक एकीकरण का सिद्धायै यानी सम्पूर्णता के पंचम चरण चक्र में सिद्धायै के पंचम बीज-आं यानी आत्मा का बोध होता है,की,मैं पुरुष शरीर धारण कर एक स्वतंत्र आत्मा हूँ और मैं स्त्री शरीरधारी एक स्वतंत्र आत्मा हूँ।जहां दोनों मैं आत्मा मिलकर “हम” हैं एक सम्पूर्ण “आत्मा”।और इस एकत्त्व आत्मतत्व अवस्था का अनादि आरम्भ से लेकर अंनत तक अहंरहित बोध करते हैं।
अब यहां आकर पुरुष के पंचत्तवी बीजमंत्र और स्त्री के पंचत्तवी बीजमंत्र एक दूसरे में समाहित होकर अहंकार रहित बोध को सिद्धायै नामक सिद्ध सम्पूर्ण अवस्था के पंचम स्तर चक्र में स्थित होकर सम्पूर्ण होते हैं।

अब इससे आगे जो सिद्धायै कि,छठा चरण चक्र है।वहां क्या हैं,वो जाने,
6-आज्ञाचक्र:-

सिद्धायै नामक सम्पूर्ण जीवन अवस्था की पुरुष व स्त्री तत्वों की संयुक्त युगल कुंडलिनी जागरण प्रेमावस्था के छठे चरण चक्र में बीजमंत्र है-यं यानी “यम” जिसका अर्थ है-मृत्यु, पर किसकी पुरूष व स्त्री के अहम या मैं बोध की या उसके योगनियमों के पँचनियमों-1-सत्य-2-अहिंसा-3-ब्रह्मचर्य-4-अस्तेय-5-अपरिग्रह,के एकीकरण सभी विकल्पों यानी सभी सविकल्प अवस्था की।
दोनों के मैं यानी अहमों कि या दोनों के म यानी मन की दो धाराओं और उन दो धाराओं से निर्मित-1-संकल्प-2-विकल्प की एक अवस्था आज्ञा भाव या प्रभुत्व करने की, सत्ता, शासन करने की इच्छा और उस शाश्वत इच्छा की शाश्वत शक्ति-इच्छाशक्ति की मृत्यु होकर केवल प्रेमशक्ति का उदय और प्राप्ति होती है।की,सब मेरे ही स्वंरूप हैं,कौन किस पर किस लिए तथा क्यूं शासन करें,जब सब मैं या हम ही तो है,हमारे ही स्त्री और पुरुष रूप में अनन्त स्वंरूप हैं।तब इस अवस्था की प्राप्ति होने पर एक समता का भाव आता है और उस समता के महाभाव की शक्ति का उदय और प्राप्ति होती है,जो सर्जनात्मक है,वही सर्जनात्मक शक्ति ही निस्वार्थ प्रेम और उसकी अवस्था प्रेमिक की प्राप्ति होती है।सर्वत्र प्रेम है और उसी प्रेमशक्ति से सर्वत्र जीव जगत आदि की सृष्टि आनन्द स्वंरूप में हो रही है,उसी प्रेमानन्द में रास यानी जीवन है तथा उसी प्रेमानन्द में विलय हो जाता है,जिसे सामान्य भाषा मे मृत्यु कहते है।तब दोनों अहम मैं मन के एक होने से समाधि होती है।जो धीरे धीरे सुपाच्य की तरहां होकर स्थायी और जागरूक होती है,वहां सुषुप्ति समाप्त हो जाती है,सदा की जागरूकता की प्राप्ति होती है,वहीं आत्मसाक्षातकार का प्रथम चरण उपलब्ध होता है,जो आप ही हो।कि,मैं बिन अहं के सदा से हूं।अब इसी आज्ञाचक्र में और ऊपर पर,यहीं विस्तार है-निर्विकल्प अवस्था ओर उसकी प्राप्ति निर्विकल्प समाधि की,शाश्वत जाग्रति का बोध।इसी आज्ञाचक्र का सम्पूर्ण विस्तार का ही नाम सहस्त्रार चक्र कहलाता है।यहां सिद्धायै का अंतिम बीजमंत्र-यै में य के ऊपर लगी दो ऐं मात्राएं ही दो म-म की केवल स्वयं के होने की उपस्थिति हैं और उनके यानी मैं ऊपर लगी दो ऐं मात्राएं ही स्वयं के अहम म के अंनत विस्तार व बोध को व्यक्त करती- ए-ए हैं।यो,ये ऐं ही महाज्ञान शक्ति है।

7-सहस्त्रार चक्र:-

सिद्धायै के यै बीज में ही प्रकट है-सहस्त्रार चक्र,इसी ‘यै’ के ऐं से आज्ञाचक्र के ही अंनत विस्त्रित रूप सहस्त्रार चक्र यानी अनन्त विस्तरित चक्र या सम्पूर्णता सिद्धायै की प्राप्ति होती हैं।जहां दोनों मैं अपने एक युगल रूप में अपना अपना स्वयं में सम्पूर्ण आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं।
अब आगे सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट स्वाहा में नमः और ईं व फट् तथा स्वाहा का अर्थ जाने।
ऊपर के बताए ज्ञान में सत्य पुरुष व ॐ स्त्री के समस्त बीजमंत्रों की सम्पूर्णता सिद्धायै में योग अर्थ व्याख्या पूरी हो गयी है।
अब यहां केवल नमः और ईं व फट् व स्वाहा की योग अर्थ व्याख्या बताता हूँ।

जिसे आप एक बार फिर से प्रचलित वैदिक व सामाजिक उपयोगी पूरे ज्ञान से समझेंगे-

5-नमः का अर्थ :-

सिद्धि यंत्र में ऊपर त्रिपुंड है,जिसमें नमः की त्रिशक्ति व्याख्या इस प्रकार से है कि-

जिसमें-नमः यानी मैं रूपी पुरुष मैं अहम का तथा स्त्री मैं अहम की महाज्ञान प्राप्ति पर अहंरहित बोध है-नमः यानी-नाओह्म अर्थात मैं नहीं हूं।न से ना-अ से अहम या आ से मैं नामक अपना अहं का आत्म बोध-ह से होना।यानी मैं आत्मा हूँ ये अहम से भी रहित होना ही नमः अर्थ है।

5-ईं का अर्थ:-

सिद्धि यंत्र में जो त्रिपुंड से ऊपर जो ज्योति बनी है,उसका ईं भावार्थ इस प्रकार से है कि,

ईं यानी ईम एक आत्मशक्ति या इच्छाशक्ति या कुंडलिनी शक्ति का सत्य पुरुष और ॐ स्त्री के मिलन से उत्पन्न संयुक्त ऊर्जा स्फुरण की ध्वनि नांद या शाश्वत अनहद नांद।जो सत्य पुरुष को उसके स-त-य में बसी होकर उन्हें जाग्रत चैतन्य व क्रियाशील करती है,ठीक ऐसे ही स्त्री ॐ में-अ-उ-म,में बसी होकर उन्हें जाग्रत चैतन्य व क्रियाशील करती है।

6-फट् का अर्थ:-

सिद्धि यंत्र में जो फट् को चारों दिशाओं में चार तीरों के रूप में चिंहित किया है,उसका भावार्थ इस प्रकार से है कि,

और आगे दोनों के एकीकरण सिद्धायै में 7 चक्रों में जाग्रत चैतन्य क्रियाशील करती हुई, नमः यानी नाओहम तक अंत करके पुनः फट् से पुनर्जागृति पुनर्जीवन आदि चतुर्थ रूपों में-1-अर्थ यानी बाल्य से ब्रह्मचर्य यानी शिक्षाकाल तक-2-काम यानी कर्म के प्रत्येक प्रकार के प्रयोगिक जीवन ग्रहस्थी तक व-3-धर्म यानी ध-जगत में सब कुछ धारण करने योग्य है,कुछ भी व्यर्थ नहीं है-र- रमण यानी जो देखा,पाया,अनुभव आदि किया,उसे अपने में आत्मसात रमित रमण करने,जिसे वानप्रस्थ या गुरु होना कहते है,जिसमें जो पाया जीया उसे आगामी अपने ही स्वरूपों को शिक्षा दीक्षा में देने तक फिर आगे-मोक्ष यानी स्वयं के मैं की क्या व कैसे अक्षय अवस्था है,उसमें स्थिर व स्थित होना ही धर्म कहलाता है।यही फट् है,जो चार वेदों के रूप में मनुष्य को ब्रह्मज्ञान के रूप में सदा से प्राप्त है।जो इसे जानता मानता है-वही सनातन धर्मी है।

7-स्वाहा:-
सिद्धि यंत्र में जो ऊपर कमल है, उसमें स्वाहा का भावार्थ इस प्रकार से है कि,

स्वयं का अवतरण करने का ज्ञान स्वाहा अर्थ है।स्व माने स्वयं,आहा माने आवाहन यानी अपनी आत्मा की पुनरावतरण करना यानी अवतारवाद करना।
पुनः सत्य पुरुष व ॐ स्त्री के अभेदावस्था की आनन्द इच्छा-आनन्द क्रिया-आनन्द ज्ञानमयी होना है।
यही सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा अर्थ है और इस सिद्धासिद्ध महामंत्र का ये सिद्ध कुंडलिनी महायंत्र का चित्रण अर्थ है।

कुंडलिनी सिद्ध महायंत्र को अपने गले में ह्रदय तक धारण करने से संसार के समस्त दोषों-जैसे-कालसर्प दोष,पितृदोष,ग्रहण दोष,ग्रहदोष,शापदोष,ऋण दोष,वंशव्रद्धि नाश दोष,देव दोष,दैविक प्रकोप,जीवहत्या दोष,प्रेमभंग दोष,गुरु दोष,चाण्डाल दोष,शरीरबन्धन,गर्भबन्धन, कंगाल योग,दरिद्र दोष,कलह योग,कारावास दोष,अवनति दोष,ब्रह्महत्या दोष,मतिभ्रम दोष,मंत्र,तंत्र,यंत्र भंजन दोष,
आदि सर्व दोष नाश व निवारण होता है,ये है संछिप्त में सिद्धासिद्ध कुंडलिनी सिद्धि यंत्र का वर्णन।

इसे पहनने से आपके-1–अन्नमय कोष-2-प्राणमय कोष-3-मनोमय कोष-4-विज्ञानमय कोष-आनन्दमय कोष की रेहिक्रियायोग के साधना अभ्यास से उत्पन्न ऊर्जाशक्ति बनती है,ये सिद्धि यंत्र उसको आपके बाहरी भौतिक शरीर पर एकत्रीकरण यानी इकट्ठा कर अपने में रक्षा कवच बना कर रखता है,जब भी विपदा आदि या उन्नति के समय अचानक से आपको आंतरिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है,तब ये सिद्धि यंत्र उस ऊर्जा को,जिसका की,ये आपके भौतिक स्थूल शरीर से बाहर ओरामण्डल के रूप में बनकर समस्त विश्वव्यापी जीव जगत ओर समस्त नवग्रहों के ब्रह्मांड से सम्पर्क होता है,तब उनकी आपसे जन्मों के अनन्त कर्मो की क्रिया यानी पुण्यबल और प्रतिकिया यानी पाप बल का लेनदेन होने से उन कर्मों का शुभ अशुभ फल मिलता है,उन सबके प्रभाव को ये कुंडलिनी सिद्धि महायंत्र अपने में ग्रहण ऊर्जा से तुरंत ही प्रतिकार करके आपकी हर प्रकार से रक्षा कर सर्वकल्याणकारी,मंगलकारी सहायता करता है।
यो,आप इसे पहनकर जो भी,जिस भी,इष्ट, देव,देवी या अपने गुरु आदि के मंत्रों के जप अनुष्ठान करेंगे,उसकी ऊर्जा को सबसे अधिक बढ़ाएगा और सर्वलाभ देगा।
●दक्षिणा-101 रुपये।
●यंत्र का वजन-30 ग्राम।
●3 इंच लंबाई और 2 इंच चौड़ाई।
नोट-साथ ही यंत्र के मध्य बने ह्रदय चक्र में अपना राशि रत्न या महादशा रत्न भी लगा सकते हैं।
(जो भक्त इस यंत्र को अपने घर पर ही मंगाना चाहते हैं उनका डांक खर्च अलग से होगा)

सम्पर्क सूत्र-
बाबा अंकित जी-9568665710
महंत मोहित जादोन जी-8923316611
महंत शिव कुमार जी-9548171554

तो,आज ही,पहने-सिद्धासिद्ध कुंडलिनी सिद्धि महायंत्र और पाये भौतिक व आध्यात्मिक सर्वभौमिक लाभों से भरा सुखी जीवन।

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
पता-सत्य ॐ सिद्धाश्रम(सोसायटी व ट्रस्ट रजि.) शनिदेव मन्दिर कोर्ट रोड़ बुलंदशहर(उ.प्र.)भारत।
www.satyasmeemission.org