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आत्मा की 7 अवस्थाओं का आत्मसाक्षात्कार का क्रमज्ञान रहस्य, स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी

रेहि  क्रिया योग ओर आत्मा की 7 अवस्थाओं का आत्मसाक्षात्कार का क्रमज्ञान रहस्य,,

बता रहें है,महायोगी स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी,

रेहीक्रियायोग से आत्मसाक्षात्कार के 7 प्रकार:-
मनुष्य की आत्मसाक्षात्कार की 7 योगिक अवस्थाएं ओर उनका शरीर के 7 चक्रों में स्थान कहाँ हैं,जाने-
1-आत्मा-मुलाधार चक्र।
2-अंतरात्मा-स्वाधिष्ठान चक्र।
3-ब्रह्मात्मा-नाभि चक्र।
4-परात्मा-ह्रदय चक्र।
5-परमात्मा-कंठ चक्र।
6-अहम ब्रह्मास्मि-आज्ञा चक्र।
7-अहम सत्यास्मि-सहस्त्रार चक्र।
1-आत्मा:-जब मनुष्य के ध्यान का आरम्भ होता है कि,मैं कौन हूं,क्या हूं?मेरे जीवन और उसका उद्धेश्य क्या व कैसे है?
तब वो अपने को इस प्रश्नों के साथ अज्ञानी व एक दीनहीन तुच्छ अकेला प्राणी मानता ओर जानता है,तब उसे अपनी ये अनुभूति ओर अपने होने की उपस्थिति के ज्ञान की अवस्था को-आत्मा कहते है।
2:-अंतरात्मा:-
और जब वो अपने को बाहरी जगत से आंतरिक जगत की ओर समेटता है,तथा उसे ज्ञान व अनुभव होता है कि,मैं भी हूँ,,मेरा भी एक अलग स्वतंत्र व्यक्तित्त्व है।
तब अपनी उस व्यक्तित्व उपस्थिति व अनुभव दर्शन की ज्ञान अवस्था मानने जानने को-अंतरात्मा कहते है।
3:-ब्रह्मात्मा:-
और जब व्यक्ति ध्यान की अवस्था में नाभि चक्र पर पहुंच कर,मैं ही इस भोग योग सृष्टि को स्वयं भी करने में सामर्थ्य रखता हूं,इस ज्ञान दर्शन अनुभूति को जानने व मानने लगता है,तब उस अवस्था में उसकी ज्ञान स्थिति को-ब्रह्मात्मा कहते है।
4:-परात्मा:-
और जब ध्यानी व्यक्ति अपने ध्यान से ह्रदय चक्र में पहुँचता है,वहां उसे अपनी ज्ञान दर्शन अनुभूति का जो आत्मिक अनुभव होता है,तब उस जानने व मानने की अवस्था को-परात्मा कहते है।
5-परमात्मा:-
और जब व्यक्ति अपने ध्यान की और उच्चतर ज्ञान अनुभूति दर्शन की अवस्था में पहुँचकर जो भी आत्मिक अनुभूति को वाणी लेखन,प्रतिभा से अन्यों में व्याख्यित करता है,तब उस अवस्था को जानने व मानने पर-परमात्मा कहते है
6-अहम ब्रह्मास्मि:-
और जब व्यक्ति अपनी ध्यान की पराकाष्ठा की चरम सीमा पर होता है तथा अनुभव करता है कि,मैं ही सब जीव मनुष्य पदार्थो में व्याप्त होकर एक शाश्वत व्यक्तित्व हूँ, तब मैं ही ब्रह्मांड हूं, यो मैं ही ब्रह्म हूं, तब इस ज्ञान अनुभव दर्शन की अवस्था को-अहम ब्रह्मास्मि कहते है।
7-अहम सत्यास्मि:-
और जब व्यक्ति अपनी समाधि-सविकल्प-निर्विकल्प की समाप्ति पर सभी प्रकार द्धेत भावों को केवल एक स्वयं रूप में, एक स्वयं के सत्य अनुभव में स्व सत्य दर्शन करता है, की,मैं ही सत्य सनातन शाश्वत सदा हूं,तथा उस सभी पर सहज नियंत्रण होता है,तब उसी सत्य अवस्था को-अहम सत्यास्मि कहते हैं।
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जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
www.satyasmeemission.org

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