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मंत्र सिद्धि कैसे हो और उसके जप ध्यान की सटीक विधि क्या है बता रहें है,स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी

मंत्र सिद्धि कैसे हो और उसके जप ध्यान की सटीक विधि क्या है

बता रहें है,स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी

कोई भी मंत्र हो या सिद्धासिद्ध महामंत्र सत्य ॐ सिद्धायै नमः हो, उसे अपने अंतर्मन में एक एक शब्द के स्पष्ट उच्चारण के साथ ऐसे गुंजयमान जपना चाहिए की प्राण गति धीमी और रूकती सी अनुभव हो और जब प्राण गति में अवरोध आता है। तब मन स्वयं ही रुकने लगता है और मन के रुकने से एकाग्रता की अनुभूति होती है। जिससे मंत्र मन के अंदर प्रवेश करता है।जहाँ सभी इच्छाओं का निवास और विस्तार है।मन की सभी छोटी छोटी और अपेक्षित और उपेक्षित इच्छाओं के उस विस्तार को मंत्र एक दिशा में करता है।उन्हें एकत्र करता है जिससे मन उस सूर्य की भांति बनता है जिसकी सारी किरणों को एक लेंस से एक बिंदु पर एकाग्रित किये जाने पर वही अग्नि उतपन्न की जाती है, ठीक इसी भांति मन की सारी इच्छा रूपी किरणें एक ही दिशा में गति करने से जो मूल इच्छा है वही पूर्ण होती है,चूंकि मन आत्मा की सभी भौतिक और आध्यात्मिक इच्छाओं के समूह का नामकरण है, पहले केवल इच्छा थी अब शक्ति भी साथ है तब इच्छा शक्ति बन जाती है और इच्छा सिद्ध होती है यही कुंडलिनी जागरण भी कहलाता है। मन आत्मा की समस्त इच्छाओं के समूह का नाम है ये स्मरण रहे और उसमे बिखराव ही शक्ति विहीनता है। यही बिखराव को एक करने का नाम साधना कहलाती है। यही ये नवरात्रि उपासना है। जिसका दूसरा नाम शक्ति उपासना है। यो जो इस रहस्य को जानता है, उसी का संकल्प सिद्ध होता है।इसी संकल्प का नाम व्रत कहलाता है। ना की व्यर्थ भूखे मरना व्रत है। जो साधक ये संकल्प या व्रत करता है की मैं मन और वचन और कर्म को एक करके एक ही मंत्र जिसका भावार्थ आत्म उन्नति हो, स्वयं की जागर्ति हो किसी का दासत्व ना हो,एक ही इष्ट यानि अपनी आत्मा के विस्तृत रूप परमात्मा का ध्यान करना हो और एक ही गुरु यानि ज्ञानावस्था को जानकर अपने दैनिक जीवन में एक निश्चित समयानुसार अवश्य ही साधना करें, वो कभी ना तोड़ें, यही संकल्प सच्चा व्रत और वही करने वाला सच्चा व्रती कहलाता है। तब उसके नियम है की अपने मंत्र को ये सोच कर नही जपना चाहिए की कही कोई बेठा है, वो मेरी मंत्र संख्यां की गिनती देख रहा है की, इसके इतने मंत्र हो गए अब इतनी महनत का इतना फल इसे दे दो, ये नही होता है। ये केवल मानसिक जप नही बल्कि ये मानसिक कसरत मात्र है।इससे केवल आप मानसिक रोगी हो सकते हो और कुछ नही फल मिलेगा,इसकी जगह अपने मंत्र को प्रेम से दीर्घ स्वर में मन ही मन गुंजाओ। जिससे मंत्र-प्राण और मन के आकाश में फैले मंत्र का विस्तार करो। उसे उसका अर्थ प्रकट करने दो जब मन्त्र अपना अर्थ प्रकट करेगा, तब मंत्र का अर्थ एक रूप धारण करेगा। यही रूप आपकी आत्मा का ही एक रूप होता है। तब यही रूप का नाम संसार में विभिन्न देवी देवता आदि के नामों से प्रसिद्ध है। यही रूप में अब मंत्र अपना सारा स्वरूप एक करके समाप्त हो जाता है। अब कोई मंत्र नही रहता है। केवल जो है वो उस मंत्र का रूप है, अब वही आपसे वार्ता करता है, वही आपके प्रत्येक प्रश्नों का उत्तर देता है, तब ये कैसे देता है? क्योकि आत्मा अपने व्यापक और विस्तृत रूप में जो मन के दो भागो से संसार में अंदर और बाहर ये जगत बनाकर प्रकट हो रही है। वो एक हो जाने से जो ये काल समय प्रतीत होता है।वो मिट जाता है,साधक कालातीत हो जाता है। उसे सारे भुत वर्तमान और भविष्य दिखाई देने लगता है।क्योकि सभी हमारे ही कर्मों से बने है। जब हम कर्म और उसके निर्मित होने के कारणों को जान लेते है, तब हमसे कुछ नही छिपता है और क्यों छिपेगा? सब हमारा ही है। इस आत्मा ने ही निर्मित किया है। यही आत्मा का शाश्वत ज्ञान सदा उसके पास रहता है, बस चाहिए उसे जानने वाला और जानने का उपाय यही है, जो बताया है की-मंत्र को जितना भी जपो एकाग्रता से जपो, संख्या से नही जपना।सच में संख्या को भूल जाओ, केवल स्पष्ट और धीमे व् एकाग्रता से जपो, मन इसी विधि से भागना बन्द कर देगा, किसी भी रूप का आसरा मत लो, क्योकि उससे ध्यान भटेगा, ये जानो की जो मंत्र जप रहे हो, वो स्वयं एक व्यक्तित्त्व है, वो जीवन्त है, उसका एक रूप है, जो आपकी वृति के अनुसार स्वयं प्रकट होगा। मंत्र को गुंजयमान करो, अपने चिद्धाकाश यानि मन के आकाश में फैलने और गुजने दो।ये मंत्र इसी आकाश में अपने को जप रूपी संघर्ष से प्रथम रूप बिंदु प्रकाशमें बदलता है। आगे यही मंत्र संघर्ष से बढ़ता हुआ एक ज्योतिर्मय ज्योति बनता है और आगे यही मन्त्र के सभी अक्षर ओर उनकी मात्राएं गल कर उतनी या उससे अधिक अनेक ज्योति या अनगिनत प्रकाशित ज्योतियाँ सफेद,नीली हरे आदि सप्तरंगों की बनती बगड़ती है। आगे इनमें से एक ज्योति चमकीले सायंकालिन आकाश जैसी नीलवर्ण बनकर स्थिर हो जाती है। और इसी मे मंत्र पूर्णतया मिटाकर अपना रूप और आकार प्रकट करेगा। तब वही रूप नीलवर्ण का स्वरूप धारण कर निलवर्णीय सत्यनारायण या नीलवर्णि कृष्ण या राम या शिव या विष्णु आदि देव व् काली गोरी देवी दिखती है। निराकारवादि केवल ज्योतिर्मय मनोआकाश में प्रकाशित मंत्र को मंत्रमय वाणी के साथ दर्शन करते है। जिसे वेदों में ऋषियों को मंत्र द्रष्टा कहते है की, उन्हें मंत्र और उपदेश के प्रत्यक्ष दर्शन ओर वाणी सुनाई आई।यही अन्य धर्मों में अल्लाह या गॉड की आवाज कहा है, यो आप अपने उस मंत्र को केवल और केवल गुंजन करने में ध्यान लगाये। बाकि मंत्र के करते करते आप कब खो जाओगे, ये तुम्हे स्वयं पता नही चलेगा, शरीर से परे ये विधि तुम्हे स्वयं ले जायेगी।शरीर के होने का उपस्तिथि भान कम से लेकर मिट जाएगा।इस अन्नमय कोस या शरीर से आप प्राणशरीर में प्रवेश करोगे। वहां सभी प्रचलित भस्त्रिका कम्पन त्रिबंध ओर हुंकार आदि योगिक क्रिया होंगी और वही से शीघ्र आप मन से मन में प्रवेश कर मन और माया और मनुष्य इस एक अवस्था की प्राप्ति करोगेँ। जहाँ सब एक है अर्थात आप मनुष्य है, मन भी आपका है और मन की शक्ति भी आपकी है।तब जो चाहोगे चमत्कार होंगे।यहाँ से आगे आपकी आत्मा है और उसके विस्तार की परमावस्था परमात्मा है यही विश्राम है। यही सभी रूप आदि ईश्वर आदि दर्शनों का स्वयं रूपी होकर देखना और दिखाना ही आत्मसाक्षात्कार है।यो केवल इस सिद्धासिद्ध महामंत्र या कोई मंत्र को इस विधि यानी रेहीक्रियायोग विधि करते हुए अपने पर या पार्टनर पर ध्यान देते हुए जपो।

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
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