No comments yet

भक्त अनिल ध्यानी का आध्यात्मअंत*


15 अप्रैल 1968 जन्में इस भक्त अनिल गुप्ता के घर से अचानक कहीं चले जाने पर की मैं गुरु की खोज और तपस्या के लिए तीर्थों पर जा रहा हूँ इस बात को लेकर इसकी माता और इसका भाई मनोज मेरे पास आये की गुरु जी इसका पता बताओ और इसे वापस यहीं ले आओ तब मेने इसका फोटो देखा और अनिल का ध्यान करते हुए उसे ट्रेन में बेठे जाते देखा तब उसका मन स्तम्भन कर दिया और ये वापस लोटा इसे पता चला की कोई सिद्ध गुरु जी है जिन्होंने मुझे व्यर्थ भ्रमण यात्रा से रोक कर वापस आने की प्रेरणा दी तब वो यहाँ आया और उसने गुरु मंत्र लिया और शहर में ही एक ट्रेक्टर एजेंसी पर नोकरी करता ब्रह्चर्य का जीवन व्यतीत करता आश्रम में सेवा जप ध्यान करता अधिक समय लगाने लगा
उस समय अनेक नए भक्त ध्यान के लिए आश्रम में गद्दी वाले कमरे में सायंकाल में मेरे पास बैठकर ध्यान करते तब उन्हें निरन्तर शक्तिपात के कारण गम्भीर ध्यान और उच्चकोटि के दर्शन होने प्रारम्भ होते गए किसी को स्वयं ही तेज भस्त्रिका हो रही है तो कोई सिर को आकाश की और ताने भावावेश में बेठा है तो कोई बैठे बैठे ही अपने आगे की और झुकता हुआ भूमि में माथा लगाये ध्यानस्थ है उस समय के इसके ध्यान सहयोगी रहे- तब विपिन मिश्रा,मंजीत सिंह,अम्बुज शर्मा,नितिन अग्रवाल,निश्चल शर्मा,अजय शर्मा आदि धीरे धीरे अनिल के ध्यान गहरे होते गए उसे देहभान नही रहता था और कितना ही शोर शराबा होता उस पर कोई प्रभाव नही पड़ता वो जो भी दिव्य दर्शन देखता की मैं विष्णु जी के चरणसेवा कर रहा हूँ उस दिव्यता के अनुभव से उसके मुख पर एक मधुरता मुस्कान बनी ही रहती चाहे कुछ देर हो या चार घँटे हो वो ऐसे ही एक ही मुद्रा में बैठ रहता मुझे ही उसे आवाज देकर बाहर निकालना पड़ता तब वो अपनी अकड़ी जड़वत देह को बड़ी देर में सही सहज करता अपने नित्यकर्म और अपने घर जाता वहाँ भी भोजन उपरांत अधिकतर ध्यान में ही लगा रहता यो उसे इसी ज्ञान को देने के लिए की शक्ति के दर्शन और शक्ति के स्वयं में अनुभव करने में और किसी अन्य में अपने में अनुभव की गयी शक्ति का शक्तिपात करने में कितनी भिन्नता है इसी लिए उसी के साथ मेरा अन्य भक्त नितिन अग्रवाल मौनू जिसका ध्यान विशेष नही लगता था उसका कारण था वो कभी किसी देवी तो कभी किसी देवता की उपासना करता अनेक मंत्रो के जप करने में ज्यादा आनन्द आता यो जापक तो था पर ध्यान से बाहर था इसकी कथा और समय कहूँगा..तब मेने अपनी ही गद्दी के तख्त पर अनिल को बैठकर ध्यान करने और नितिन के सिर पर हाथ रखते हुए की तेरी ऊर्जाशक्ति का प्रवाह मोनू में हो रहा है ऐसा अनुभव करते ध्यान करना और अनिल ने यही किया ध्यान तुरन्त लग गया और उससे पूछने पर उसने मंदी आवाज में कहा की हां मेरे अंदर से शक्ति उठकर मेरे हाथ से होती हुयी इसके सिर से सारे शरीर में जाती स्पष्ट दिख रही है उधर मोनू से पूछने पर वो अपना ध्यान लगा रहा था आँखे बन्द किये ही बोला मुझे कुछ अनुभव नही हो रहा स्फुरण सा कम्पन सा भी नही अनुभव हो रहा है मैं बोला करते रहो यो आपनी चाय लेने चला गया थोड़ी देर लगा कर चाय लेकर वापस आया तो मोनू तो कभी अनिल के हाथ से अपना सिर लगाये तो कभी नीचे को झुका सा थक कर बैठ जाये उधर अनिल का हाथ सीधा रहकर काँप रहा था उससे पूछा क्या शक्ति जाती लग रही है वो बोला हाँ पर मोनू को कुछ अनुभव नही हो रहा था तब मेने कहा चलो अब इस सबसे बाहर आओ और चाय पीओ तब अनिल धीरे धीरे सहज हुआ मोनू तो ऐसे ही था दोनों चाय का प्रसाद पीने लगे तब मेने कहा मोनू अब घर जाकर ध्यान लगाना और अनुभव बताना कई दोनों बाद तक इस विषय पर कोई चर्चा नही की सब और दिनों की तरह वहीँ ध्यान ज्ञान सभा चलती रही इस विषय पर फिर चर्चा हुयी तो मोनू बोला मुझे कुछ नही दिखा अनिल बोला की मेने तो इसके बाद भी मोनू का ध्यान किया था ऐसे ही अनेक परीक्षण हुए तब मेने सबसे कहा की इतना आसान नही होता है ऊर्जा को अन्य शरीर में प्रवाहित करना और उसे आध्यात्मिक दर्शन करने और ये जो रेकी आदि स्पर्श चिकित्सा समाज में चल रही है ये भी मरीज को स्वस्थता की आवश्यकता है और रेकी या स्पर्श चिकित्सक को एक कोर्स रूप में उसे ऊर्जा देने का काल्पनिक चित्रण प्रस्तुत करने का अभ्यास जबकि वास्तव में ये है नही बड़ा गम्भीर विषय है साथ है चाहे स्पर्श से करो या कुछ दूर से करो दोनों के अशुभ और शुभ कर्मो का एक दूसरे में आदान प्रदान होता है और एक समय ऊर्जा देने वाले की ऊर्जा ह्रास होती जाती है अंत में वो बहुत सी परेशानियों से घिर जाता है यो ही यहां तुम्हे ये प्रयोग कराया है की सच क्या है सामने आये कल्पना और सत्यता में कितनी भिन्नता है यो अनेक वर्ष बीते अच्छा पढ़ा लिखा होने पर भी वो तार्किक और ज्ञान के अर्थ अथवा जो देख रहा है उसे सही से बताने में अक्षम होने से मैं उससे कहता अरे अनिल तू कहीं बेठा बेठा सोता रहता है तूने ध्यान की एक तन्द्रा अवस्था को पकड़ लिया है यदि तू अब इसमें अपना चिंतन नही लगाएगा तो तू इसी में फंस कर रह जायेगा उच्चतर योगिक अवस्था को भक्ति के साथ जो हो रहा या किया जा रहा है उसका ज्ञानात्मक आंकलन करना चिंतन करना अति आवश्यक होता है अन्यथा भक्ति उन्मादी होकर विछिप्त हो जाती है साधक पागलपन को प्राप्त हो जाता है तो वो कहता की गुरु जी सब स्वयमेव होगा बस ध्यान करना ही अच्छा लगता यो सभी उसे ध्यानी कहने लगे तब मैंने अनेक बार सामूहिक ध्यान सभा में सबके सामने उसे समझाया की यही तो आत्मा की बहिर और अंतर निंद्रा है उसके माया जाल भी बड़े गहरे है यो सारे मनुष्य लेट कर सोते है तब भी एक ध्यानावस्था ही होती है जो केवल स्वप्नावस्था ही बनी रहती है इसमें प्राणों के शोधन के चलते मन्द मन्द या तेज स्वास् परस्वास् की गति से पेट और फेफड़ों में गति करने वाले दोनों प्राण शक्ति का अन्तर्संघर्ष होने से भस्त्रिका प्राणायाम जैसी अवस्था बनती रहती है जो केवल प्राणों के संघर्ष से उत्पन्न ऊर्जा के प्रकाश को उत्पन्न करती है जिसे साधक आईएम सबसे प्राप्त ध्यान अवस्था की निंद्रा जो बेठे बैठे बनती है उसमे देखता है यहाँ प्राण जगत और प्राण शरीर की प्राप्ति होने से दिव्य स्वप्नों का निमार्ण होता है ये भी मनोभाव से ज्यादा कुछ नही है ये उत्साह बढ़ाते है परन्तु साधक इन्हें देखता देखता इन्हीं में फंस जाता है तब एक अवस्था और उच्चतर उदय होती है वो जो संकल्प करता है वही देखता और अनुभूत करता है क्योकि पंचतत्वो और उनके पंचगुणों-रूप+रंग+स्पर्श+शब्द+गन्ध का उदय और उनकी प्राप्ति और अनुभूति करने और कराने की शक्ति आती है यही सम्पूर्ण सिद्धियां हो की केवल मन की उच्चतर मायाविक शक्ति और दर्शन है प्राप्त होती है तब साधक इन्हें प्राप्त कर जगत में योगी कहलाता है परन्तु यहाँ योगी नही साधक या भक्त ही बना रहता है अभी मन और माया के ही दर्शन कर रहा है यो यहां से पुनः निम्नता भ्रष्टता की प्राप्ति सम्भव है यो यही जब ये सब दर्शन होने लगे तुम तन्द्रा यानि मन की जाग्रत अवस्था में बैठकर दर्शन देखने लगो ठीक तभी साधक को नित्य ज्ञान सत्संग करना और सुनना और उस सब देखे अनुभव पर मनन करना अति ही अनिवार्य होता है अन्यथा सब कुछ नष्ट भ्रष्ट होने के पुरे योग बनते जाते है ये उस सहित सभी ने सुना परन्तु उस पर अमल नही किया इसी का परिणाम आगामी अनिल का योगान्त है की मेने उसे कहा की अभी यहाँ पर मैं जो खोज रहा हूँ उसमे समय् लगेगा तू इतने जितने भी सिद्धपीठ और वहाँ जितने गुरुओं की समाधि है प्रसिद्ध मन्दिर है वहाँ जाओ उनके पास बैठकर ध्यान लगाना और अनुभूत करना की उनकी साधना और सिद्धि में कितनी सत्यता है उसे अपनी डायरी में लिखों आगे चलकर जब तुम यहाँ लौटोगे तब यहाँ के नवीन भक्तों को अपना अनुभव बांटना तब वो वहाँ गया ध्यान करता लिखता परन्तु उससे मेरे यहाँ तो चिंतन को लेकर डांट पड़ती और बाहर उसकी ध्यान में अनेक घण्टे एक मुद्रा में बेठे रहने के कारण प्रसिद्धि और प्रसंसा मिलती बस यही वही हुआ जो मैने उस सहित अन्य भक्तों से मन माया के दूषित प्रभाव के विषय में चेताया था वो यहां से हटने लगा और वृंदावन हरिद्धार जाता वहाँ दीक्षा ले उनके आश्रमों में घूमता हुआ प्रसंसा पाता हटा जुड़ गया यहाँ आश्रम में नही आकर यहाँ के पूर्वत भक्तों के घर जाता उनके पूछने पर की गुरु जी के यहाँ नही गया तो कहता गुरु तो मेरे वही है पर वे सदा डाँटते रहते है मुझे कुछ समझते ही नही है यो मैं वहाँ डांट खाने नही जाता और अब तो उन्ही स्थानों में आनन्द आता है वहाँ के अनेक सेठ जी मुझे बड़ी श्र्द्धा से सेवाकर करते सम्मान देते है यो धीरे धीरे यहां आना बन्द हो गया अब जब उसका अंतकाल आया तब एक दिन शाम को मैं यज्ञ कर रहा था वो आश्रम में आया और साष्टांगप्रणाम करते हुए चरणों में बैठ गया मैं बोला चल वहाँ बैठ मैं यज्ञ कर आता हूँ तब मैं यज्ञ समाप्त कर अपने लिए चाय बनाकर लाया और उसे प्रसाद रूप पीने को दी और पूछा की अब क्या कर रहा है? तब वो बोला की हम कुछ लोग हिमालय पर ऊपर जा रहे हैं मैं बोला क्यों? बोला और गम्भीर ध्यान करने के लिए अब नीचे कुछ ध्यान नही लग रहा है मैं बोला अरे तुझे यहाँ इतने ढोल पीटने पर भी कोई फर्क नही पड़ता था अब तू कह रहा है की गम्भीर ध्यान नही लगता है ये क्या बात हुयी और तुझे कोई उच्चकोटि के सिद्ध महात्मा के दर्शन नही हुए उनकी कृपा नही हुयी और तेरे अंदर कोई उच्चतम अनुभूति अनुभव नही हुयी तो बोला अजी गुरु जी सिद्धियों से दूर ही रहना चाहिए बस कर्म करते रहना चाहिए का मुझे ही उपदेश सुना दिया तब मुझे कहना पड़ा की भई जब कसरत करते है तो शरीर के सुगठित स्नायुमण्डल बनने का स्वयं सहित अन्य लोगो को भी पता चलता है तब क्या उन शरीर के सुगठन को अपने से अलग कर लेगा उनसे मुक्ति है? उन्हें छिपा सकता है ज्यों फूल खिलता है पूर्ण होता है उसकी गन्ध सहित उसका रूप स्वयं प्रकट होता है उसे फूल छिपा नही सकता है ठीक यही सही सही साधना करने पर उसकी शक्तियों का अपने शरीर में अनुभव होने लगता है और ज्ञान बढ़ता है और औरों को भी होता है यही तो ज्ञान चिंतन करना कहता आया हूँ तुझसे और तू वहीं का वहीं अटका है उसे तुरन्त लगा मुझे फिर डाँटने लगे ये तो है नही की इतने दिनों बाद आया हूँ मेरे से जुड़े मेरी प्रसंसा करते लोग सेठ की कहानियाँ सुने मुझे से कहे भई अनिल तू तो भक्त बन गया लगे बस डांटने ये मनोभाव उसके चहरे और मानसिक तरंगों से मुझे आने लगी फिर भी मेने उससे पूछा की और बता बोला सब ठीक है बस अब ध्यान बढ़ा रहा हूँ यो वृंदावन से शुक्रताल आश्रम में पहुचकर कर हिमालय जा रहा हूँ तब मेने कहा की तुझमें अभी तक कोई सुधार नही आया वहीं का वहीं बना है ये ध्यान शक्ति तुझे यहाँ से मिली और तू समझ बैठ जाने किसकी कृपा है यो आज से तेरी ये ध्यान शक्ति यहीं रहेगी जा..उसे प्रसाद देकर जाने को कह दिया तब वो नमन कर छुब्ध मन से चला गया और मैं भोजन कर थोड़ी देर बाद अपने ध्यान में चला गया तभी मुझे एक प्राचीन सिद्धि देवी श्लोक उद्धभव हो कर स्वयमेव अंतर्मन में चलने लगा साथ ही पूरी रात्रि लगा जैसे मुझमें कोई डंक से मार रहा हो तभी लगा की ये अनिल है जो क्रोधित है तब मुझे अनुभव हो चला अब इसका काल आ गया ईश्वर इसकी रक्षा करे सदबुद्धि दे और बात आई गयी हो गयी इसके कुछ महीनों बाद अपनी अकाल मृत्यु से पूर्व अनिल आश्रम आया चरण वन्दन कर बैठ गया मैं बोला बैठ मैं चाय लाता हूँ आकर चाय का प्रसाद उसे दिया तब वो बोला की मेरा ध्यान भंग है कृपा करो गुरु जी मैं बोला अनिल अब केवल आत्म चिंतन कर अपने अनुभवों का स्मरण अध्ययन कर उन्हें ही ध्या उनसे सीख वो बोला जेसी आज्ञा और प्रेम से नमन कर चला गया कुछ माह बाद ही पता चला की शुक्रताल की तरफ किसी आश्रम में उसी के कमरे में उसकी गोली मार कर हत्या कर दी उस पर चोरी का आरोप और आत्महत्त्या का आरोप लगा ये सुन बड़ा ही दुःख हुआ की कैसा सीधा सरल भक्त था और कितना ध्यान सेवा करता था और अंत क्या हुआ यही है प्रारब्ध ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे…
(ज्योतिष जिज्ञासुओं के लिए उसकी जन्म कुंडली दी है)

Post a comment