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मेरा आत्मसाक्षात्कार और त्रिदेव समानता का वैदिक व् सत्यास्मि सत्यार्थ

मेरा आत्मसाक्षात्कार और त्रिदेव समानता का वैदिक व् सत्यास्मि सत्यार्थ

अधिकतर पौराणिक कथाओं में आप भक्त जन ये पढ़ते है की किसी मनुष्य ने ब्रह्म की तपस्या की और जब देवत्त्व लाभ किया तो वो त्रिदेवों के समान हो गया तब भी उसमे एक अहंकार शेष रह गया की मैं महान हूँ और यही उसके विनाश का कारण बना यहाँ बड़ा अध्यात्म रहस्य छिपा है की जब कोई मनुष्य जो अभी आत्म सत्ता में अभिव्यक्त है उसे अपनी सम्पूर्ण सत्ता की प्राप्ति की इच्छा होती है की मैं कौन हूँ और मैं अपनी समस्त इच्छाओं की पूर्ति का साधन किसी अन्य देव देवी या अद्रश्य परमात्मा को मानता हूँ तब मैं कितना ही शक्ति से परिपूर्ण हो जाऊ तब भी मैं उस शक्ति का सेवक या वो शक्ति ही मुझे प्राप्त शक्ति का स्रोत्र रहेगी और किसी भी दिन कुछ कमी हुयी और वो शक्ति मेरी शक्ति छीन लेगी तब मैं स्वयं ही स्वयं की शक्ति की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करूँ और यही से मनुष्य आत्मसाक्षात्कार की और बढ़ता है यही गीता का योगी अर्थ है यही वैदिक ऋषि है जो अपनी आत्मा की परम् अवस्था यानि सम्पूर्णता को जानो का अर्थ है यहाँ अर्थ ये नही है की तुम और परमात्मा भिन्न है जो की भक्ति मार्गियों ने एक पृथक पन्थ खड़ा किया ये वही लोग है जो गीता और वेदों के इस वाक्य के सम्पूर्ण अर्थ को न समझ पाये न उसका आत्मसाक्षात्कार कर पाये और जिसने किया उसी ने वेदों के परे चला गया यहाँ वेदों के परे चले जाने का अर्थ ये नही है की वेदों को मानने से इंकार किया बल्कि जो वेदों में लिखा है उसे उसने अनुभूत किया अर्थात जैसे तुम कुछ सामान बाजार से लेने जाओ तब सामान की एक सूची बनाओगे और जब सामान खरीद लोगे तब सूची को एक बार देख की सब ले लिया तब उसे फेंक दोगे क्योकि अब जो चाहिए वो है सूची का क्या करोगे ठीक यही अर्थ वेदों में लिखे और अनुभव को जानने पर वेद को पढ़ते रहने उससे चिपके रहने का कोई अर्थ नही रह जाता है यही सभी धर्म पुस्तकों का यथार्थ अर्थ है हाँ कुछों ने लोगो को पुस्तक से यूँ बांधा की ताकि एक नियम को पकड़े और उसे जाने और उसी एक नियम को पकड़ कर नियम से नियमातीत हो जाये यही नियम से नियमातीत हो जाना सारे धर्मो के गर्न्थो का मूल अर्थ है।यही वेदों से परे जाने का सामान्य अर्थ है वेदों को नही मानना अर्थ नही ओर जो नही मनाते वे उस मूल वेद में जो कालांतर में हुए शाब्दिक परिवर्तन को जान लेते है यो उपस्थित वेदों को नही मानते है ये अर्थ है यही राम यही कृष्ण और यही बुद्ध यही महावीर के साथ हुया उन्होंने केवल कर्म और उसके फल की बात की ना की वेदों की यो वे स्वयं वेद बन गए यहीं से नवीन धर्मों की स्थापना हुयी ठीक यही मेने भी अपने आत्मसाक्षात्कार में अनेक रहस्यों में एक कथा से देखा की मैं गैर्विक वस्त्र में त्रिशूल लिए अपने मन मंथन करता हुआ जा रहा हूँ रास्ते में एक शिवालय दिखा उसमें अंदर पहुँचा तो देखा एक शिवलिंग है मेने उसके इष्ट का चिंतन किया तो यहाँ मेने देखा की उस शिवलिंग से वर्तमान प्रचलित वस्त्र और त्रिशूलधारी शिव जी निकले और मेने उनसे तर्क किया की मेने सुना है की शिवलिंग में शिव और शक्ति साथ है यहाँ तो केवल पुरुष व्यक्तित्त्व प्रकट हुआ है यो ये क्या समाज में फेला हुआ है ऐसे ही अनेक तर्कों के चलते हुए उनसे हम अपने अपने हाथ में पकड़े त्रिशूलों से युद्ध होने लगा तब देखा मैं थक गया तो मैं रुक गया तो शिवजी भी रुक गए मैं विश्राम को मन्दिर से बाहर आकर बैठा और विश्राम के उपरांत पुनः शिवालय पहुँचा तो पुनः शिवलिंग से शिव प्रकट हुए पर जेसे ही मैं अंदर द्धार तक पहुँचा हूँ की वहाँ प्रचलित गणेश जी मुझे रोकने को आये तब मेने उन्होंने अपने त्रिशूल से एक कपड़े की भांति लपेट कर मन्दिर से बाहर की और फेंक दिया जेसे उनका कोई मेरे सामने अर्थ नही हो और अंदर जा कर शिव जी से त्रिशूल युद्ध हुआ शिव जी शिवलिंग में ही अंदर पैर करते खड़े हुए युद्ध कर रहे है मैं पुनः थका तब विश्राम को बाहर आया शिवजी पुनः शिवलिंग में समा गए तब मैं विश्राम उपरांत पुनः शिवलिंग के समक्ष पहुँचने को हुआ ये देख शिवजी भी प्रकट हुए शांत है उनकी प्रतिक्रिया नही है तब द्धार पर ही मेने अनुभव की कि मैं किससे लड़ रहा हूँ क्या कोई शिव है या मेरा आत्म मन्थन है मैं ही तो सामने हूँ इस आत्म मन्थन तत्क्षण ही एक तीर्व आत्म कोंध ने जेसे मुझे जाग्रत किया समझ आया की क्या हो रहा है सत्य में में अपने अंदर की पूर्व मान्यताओं से और उनके चित्रण से लड़ रहा हूँ ये त्रिशूल मेरे अंदर के त्रिगुण है ये शिव भी मेरा पुरुषत्त्व पुरुष शक्ति अर्थ है और ये गणेश भी स्वयं से शक्ति प्राप्त नही बल्कि शिव से शक्ति प्राप्त एक आत्म बालक ही है एक साधक है जिसने अभी आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति नही की है यो ये मेरी सामर्थ्य का सिद्ध नही हुआ और चूँकि मैं ही सनातन धर्म के त्रिगुणों में एक गुण प्रतीक अर्थ चित्रण को मानता हूँ यो मैं उससे लड़ रहा हूँ वो मुझ से नही लड़ रहा है क्रिया मेरी और से तब प्रतिक्रिया दूसरी और से हो रही है मैं लड़ते लड़ते थक जाता हूँ तो आत्मविश्राम को बाहर आता हूँ ये शिवालय से बाहर आना अर्थ हुआ और जब मैं इस चिंतन करते हुए शिवालय के द्धारा पर रुक गया तो मेरी प्रतीक्षा में शिव शिवलिंग में खड़े है निर्विकार भाव से तब मैं ये अनुभव से गुजर रहा हूँ और सनझ आया की मैं स्वयं से लड़ रहा हूँ ये महाभाव के उदय होते ही मेने देखा शिव संसार की मान्यताओं के अपने विग्रह में समा गए और मैं वहां से आगे बढ़ गया एक और पथ पर और मेरी समाधि खुल गयी इससे आगे ही मेने स्त्री के श्रीभगपीठ और पूर्णिमाँ देवीत्त्व के अर्थ को जाना और लिखा व् स्त्री युगों की सत्य मान्यताओं के अर्थ को स्थापित किया यो ही इसके विस्तृत अर्थ को जानो यही सारे धर्म शास्त्र कथाओ में भरी है की गोरखनाथ का हनुमान से युद्ध या स्वामी नारायण का हनुमान या देवी काली आदि से युद्ध और स्वयं की विजय आदि यही है प्रचलित अन्य व्यक्तित्व को अपनी आत्म शक्ति की प्राप्ति का स्रोत्र मानने का सत्यार्थ यही आत्मयुद्ध है जो यदि काव्य में लिखा जाये तो अन्य ही अहंकारी अर्थ को उत्पन्न करेगा।यो ही प्रत्यक्ष गुरु को ब्रह्मा,विष्णु,शिव और इन त्रिगुण से परे परब्रह्म कहा है तब हम एक मनुष्य शरीर धारी गुरु में कैसे इन्हें देखते है ये पूर्वत चिंतन का ही व्यापी अर्थ है यो सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ पढ़ो उसके गुरु नियमो के एक पथ पर चलो न की अनेक देवी देव और व्रतानुष्ठान को करो केवल गुरु अनुसार चलो तब एक ही नियम तुम्हें नियमतित करता हुआ अंत में अहम सत्यस्मि के महाव्यापक सत्यार्थ की मैं ही सत्य और सनातन आदि अनादि हूँ मेरी ऊर्जा शक्ति भक्ति का आदि स्रोत मैं स्वयं ही हूँ और कोई नही इसे प्राप्त कर सभी गुरु आदि मान्यताओं से मुक्त होकर स्वयं गुरु यानि ज्ञानी योगी बनोगे यही यथार्थ गीता और वेद और उनसे परे जाना अर्थ है।तब तुममें चौदह रत्न लक्ष्मी और ऐश्वर्यों के उपरांत सोम यानि अमृत प्रकट होगा जो ग्रहण करने से तुम्हारा सोमवार यानि सोम को वरण करने वाला अर्थ व्रत होगा यही सोमवार है और जबतक ये नही समझ आये तबतक इस दिए ज्ञान को अपने में चिंतन करो न की कुतर्क यो सुतर्क और मुक्ति पाओगे।
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