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शिवलिंग-पुरुष कुंडलिनी जागरण अर्थ है


शिवलिंग के स्वरूप में दर्शाये गए सभी चिन्ह अर्थ वास्तव में पुरुष की कुंडलिनी जागरण का विज्ञानं अर्थ है-
-शिवलिंग का अर्थ-शिव माने पुरुष और लिंग माने पुरुष का पुरुषत्त्व शक्ति का जागरण है। श माने है शाश्वत सत्य पुरुष ई माने इस सत्य पुरुष में चेतना जागर्ति जिसके तीन रूप है-इच्छा+क्रिया+ज्ञान=शि है और व् का अर्थ है वर-वरदान-वरण यो जो पुरुष शाश्वत और सनातन और सत्य है वो स्वयं की इच्छा और क्रिया तथा ज्ञान से चैतन्य है तब वही पुरुष अपने में छिपे और प्रकट सभी वर यानि शक्तियों को दान या प्रकट या स्वयं की सृष्टि करता भी है और उसी को स्वयं ही वरण या धारण भी करता है यही उसका अमृत स्वरूप है जिसे सोम कहते है यही सोम को प्रकट और धारण व् देने वाला होने से वो वार भी कहलाता है यही सत्य पुरुष शिव का सोमवार कहलाता है यो उसके प्रकर्ति स्वरूप आषाढ़ माह की पूर्णिमा यानि पूर्ण प्रकाशित होने के उपरांत स्वयं को बाटना ही सावन माह का सोमवार कहलाता है।सावन माह में प्रकर्ति सभी जीवों को अपना अमृत जल बाटती है यही पुरुष का कुंडलिनी जागरण की सम्पूर्णता ही शिव अर्थ है। लिंग का अर्थ-पुरुष का मूलाधार चक्र है और पुरुष की पुरुषत्त्व शक्ति की सम्पूर्णता अर्थ है जिससे दो मार्गों का बहिर और अंतर या उर्ध्व विस्तार होता है। शिवलिंग में नीचे का भाग पुरुष के मूलाधार का आधार भाग है जिसमें तीन शक्ति का समावेश त्रिगुण शक्ति- ऋण और धन और बीज होता है यही स+त+य=सत्य या सत् गुण+रजगुण+तमगुण यहाँ स पुरुष है रजगुण स्त्री और तमगुण बीज है और यही अर्थ श+ई+व्=शिव है और जब ये त्रिगुण शक्ति चैतन्य होती है तब इसका परस्पर विलय होकर प्रथम ॐ नाँद होता है तब शिवलिंग का दूसरा भाग बनता है जो स्वाधिष्ठान चक्र है और इस ॐ का अनंत विस्तार ईं स्वरूप सप्त चक्र कुंडलिनी है तब इसका तीसरा रूप नाभि चक्र में बनता है जहाँ विश्व सृष्टि यानि सिद्धायै अर्थ प्रकट होता है यही सिद्धायै ही शिवलिंग में उर्ध्व लिंग से पहले जो योनि कुण्ड रूप है वो है जहाँ से पुरुष की जाग्रत शक्ति के दो भाग होते है एक बाहर की और संसार की भौतिक सृष्टि जो साकार कहलाती है दूसरी अंतर सृष्टि जो आध्यात्मिक जगत कहलाती है यो ये योनिकुंड प्रतीक सिद्धायै में सात अक्षर है जो सात चक्रों का प्रतीक व् बीजाक्षर भी है-स+ई+द+ध+आ+य+ऐ=सिद्धायै है यो सिद्धायै रूप कुंडलिनी शक्ति ही अपने दो चक्र नीचे मूलाधार+स्वाधिष्ठान से मध्यचक्र नाभि से सहस्त्रार चक्र तक सम्पूर्ण होती है यही सिद्धायै में ईं कुंडलिनी का उर्ध्व लिंग रूप जागरण ही शिवलिंग में पुरुष शिव का उर्ध्व लिंग स्वरूप अर्थ है। जिसके अंत से पूर्व शिव रूपी सत्य पुरुष के त्रिगुण पुनः एक एक करके त्रिगुण रूप में त्रिकुटी या आज्ञाचक्र में नमः-न+म+ह यानि “पुरुष +,स्त्री -, और (+,-) बीज” के रूप में दो दल के मध्य बिंदु चक्र है यही शिव की ध्यानस्थ अवस्था बताती हुयी शाम्भवी मुद्रा है जिसका अर्थ होता है की ध्यान करने वाला व्यक्ति तो मध्य बिंदु है और उसके दोनों और के दल में एक बहिर संसार को भी द्रष्टा भाव से देख अनुभव और भोगते हुए भी केवल साक्षी बना है ठीक ऐसे ही दूसरा दल का अर्थ है की ध्यानी मनुष्य जाग्रत होकर अंतर जगत की आध्यात्मिक संसार में भी देखता,अनुभव करता व् भोगता हुआ साक्षी बना हुआ है यही मध्य बिंदु स्थित मनुष्य आत्मा की परमवस्था प्रतीक है परमात्मा में स्थित या परमतत्व का बोध होना अर्थ ही नमः यानि नाओहम या मैं भी नहीं हूँ की निर्विकल्प समाधि अवस्था अर्थ है और शिवलिंग के उर्ध्व लिंग रूप में जो कुंडलिनी शक्ति है वो अपने चरम पर बिलकुल साक्षात् पुरुष के लिंग की भांति चीरी हुयी होती है जिसे मूत्र और वीर्य निकलता है यही यहाँ होता है की उर्ध्व शिवलिंग के अंत में कुण्डलिनी शक्ति फट्-फ+अ-ट+ट की चार अवस्था जो अर्थ+धर्म+काम+मोक्ष या चार वेद के रूप में संसार में प्रकट होना या फटना,प्रस्फुटित होना अर्थ है और शिवलिंग की चरमावस्था या अन्नतावस्था का सम्पूर्ण विस्तार ही स्वाहा अर्थ है ये स्वाहा के रूप में ही चार वेदों का 108 रूप यानि एक+शून्य+आठ- में एकोहम् बहुश्याम से शून्य रूप अंतर सूक्ष्म और बहिर स्थूल सृष्टि है और आठ का अर्थ है की मनुष्य की कुंडलिनी शक्ति सामर्थ्य अपनी अष्ट सुकार और विकार के समल्लित होकर सम्पूर्ण बनी रहती है यही 108 उपनिषद् कहलाते है। यही समझने के लिए शिवलिंग से अलग त्रिशूल जो पुरुष+स्त्री+बीज=पुरुष शिव अर्थ है।
और नन्दी का अर्थ है मनुष्य अपनी अज्ञान अवस्था में पशुत्त्व को प्राप्त होता है जिसका प्रतीक नन्दी या बैल है जो काम शक्ति और धैर्य और निरन्तर परिश्रम का प्रतीक स्वरूप है।
और सर्प कुंडलिनी का प्रतीक है।
और गंगा ज्ञान का प्रतीक है जो कुण्डलिनी के सहस्त्रार चक्र में पहुँचने के उपरान्त अमृत बनकर संसार में प्रकट होकर मनुष्य को मुक्त करती है। जो भक्त इस महाज्ञान को अपने अंतर्मन मन में बसा कर इस सिद्धासिद्ध महामंत्र का जप ध्यान करता है वो स्वयं के शिवतत्व स्वरूप को प्राप्त होता है जो केवल बेल,जल,भांग,धतूरा आदि बाहरी पदार्थो को चढ़ाकर ये विचार करता है की ऐसा करने से उसका कल्याण होगा वो संसार में उस मृग की भांति भ्रम में भर्मित रहता है की कस्तूरी कहीं और है जो की हिरण की नाभि में ही छिपी होती है यो गुरु ज्ञान पाओ और सच्ची शिव साधना को प्राप्त हो।
यहाँ पुरुष की कुण्डलिनी जागरण का सिद्धासिद्ध महामंत्र के भावार्थ के साथ सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ का शिवलिंग अर्थ संछिप्त में दिया है जिसका जो भी मनुष्य चिंतन मनन करता है वही आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर मुक्त हो जाता है। यो स्त्री को अपने श्रीभग की साधना करनी चाहिए ना की पुरुष के शिवलिंग की हां संसार में जो कथा पति प्राप्ति को शिवउपासना बताई है उसका सत्यार्थ भी स्त्री के स्वयं में छिपे पुरुष तत्व को प्रकट करने से जो की उसी के मूलाधार में छिपी कुण्डलिनी शक्ति के ही जागरण से प्राप्त होता है यो स्त्री को ये अज्ञान त्यागना होगा स्वयं का जागरण करना होगा अंन्यथा कितनी ही शिवलिंग पर जल चढ़ा ले कोई संसारी और आत्म लाभ को नहीं प्राप्त हो सकती है
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