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सत्यास्मि दर्शन का चार्वाक और सनातन चिंतन

जेसे अनेक ब्रह्मर्षियों के विषय में उनकी अनेक संतानों को लेकर भ्रांतियां है की महर्षि वशिष्ठ के सो पुत्र थे अथवा भगवन विश्वामित्र के सो पुत्र थे ये एक प्रकार से असम्भव है क्योकि जो ब्रह्मज्ञानी है जिन्हें आत्मतत्व का साक्षात्कार हो गया है वे ऊर्ध्वरेता योगी बन जाते है उनमे काम का विकार बढ़ने से किसी अनगिनत सन्तानों को उतपन्न करने की इच्छा नही होती है बल्कि वे प्रयोजन से अल्प संतति करते है उनके संतानो की भीड़ नही होती है बल्कि एक या दो सुयोग्य संतान ही होती है जो उनके ज्ञान को भविष्य में अन्यों को प्रदान कर सके तब इतनी सन्तान कैसे हुयी ये इसी भांति है जेसे की वर्तमान में अनेक आभाव ग्रस्त बच्चों को उनकी प्रतिभा को देखकर उन्हें गोद ले लेना उन्हें अपनी संतान का अर्थ देना है मुख्यतया ये उनके सन्तान रूपी शिष्य होते थे जो उनके आश्रमों में निशुल्क शिक्षा दीक्षा प्राप्त करते हुए उनके दिव्य ज्ञान को संसार में प्रकाशित करते थे ठीक यही उदाहरण यहाँ है की जो प्राचीन कथाओ ने भृष्ट रूप से प्रस्तुत किया है कि भगवन विश्वामित्र जी ने अपने पचास पुत्रों से असंतुष्ट होकर उन्हें शाप दिया की वे चांडाल हो जाये वे ही अनेक निन्म जातियों के पूर्वज हुए और पचास पुत्रों को उच्च ज्ञान दिया जो ब्राह्मण बने ये सत्य नही है बल्कि ये उनके शिष्य थे जो सभी जातियों के बच्चे विद्यार्थी थे जो ज्ञान प्राप्त कर अपने समाज में जाकर अथवा अपने अपने रुचिनुसार कार्यों को अपनाकर सामाजिक जीवन व्यतीत करने लगे। महाभारत के युद्ध के उपरांत ही ये अपूर्ण और मनचाहा धर्म इतिहास लिखा गया है जिसने हमारे सनातन धर्म की बड़ी ही क्षति की है हमें इन्हीं कथाओं के कारण नीचा देखना सुनना पड़ता है आज आवश्यक्ता है इन्हें नवीनता और वैज्ञानिकता तथा योगिक तथ्यों को उजागर करते हुए संशोधित करते लिखा जाये जो जातिवाद की उच्चता निम्नता से परे केवल सामाज को ज्ञान देने के अर्थ से भरी हो तभी इन प्राचीन कथाओ का लाभ होगा अन्यथा इस प्रकार की पथभ्रष्टता से भरी कथाओं के पढ़ने से नास्तिकवाद की जड़ अधिक गहरी हो जायेगी जिससे समाज योग और ज्ञान को लेकर संदेह और भ्रान्ति से भर कर पथभ्रष्ट हो जाता है। जो ऋषि तत्ववेत्ता थे वे ऐसे कैसे विरोधिक व्यवहार कर सकते है? ये चिंतन का विषय है जैसे चार्वाक दर्शन के विषय में भ्रान्ति है की वो नास्तिकवादी दर्शन है जबकि सभी जिज्ञासु प्रारम्भ में नास्तिकवाद के प्रश्नो से ही धर्म को समझने का प्रारम्भ करता है यो आप देखेंगे की चार्वाक दर्शन में पहले नास्तिकवादि प्रश्न और उन्हीं को पकड़े रहने पर जोर है की प्रत्यक्षवाद ही सत्य है तो ये बात सत्य भी है मनुष्य जो अपने सामने देखता है वही तो उसे समझ आता है अब उसके पीछे जो सूक्ष्म है जिससे वो प्रकट है वो उसे नही दिखाई दे रहा है यही दिखाई देना उसे समझना और उसकी अनुभूति कराने और करने को जो सूक्ष्म दृष्टि चाहिए वही अस्तिकवाद दर्शन कहलाता है जैसे किसी भी भवन की नींव नही दिखाई देती है परन्तु ऊपर का भवन दिखाई देता है यो नींव को भी खोदने पर ही देख पाते है लगभग यही आस्तिकवाद का दर्शन यानि उत्तर है। चार्वाक दर्शन भौतिकवादी प्रत्यक्ष प्रश्न हैं और वेद उपनिषद उसके सूक्ष्म से अति सूक्ष्म तत्वी उत्तर है यो दोनों एक दूसरे के पूरक है-
?चार्वाक दर्शन का सत्यार्थ?
खाओ पीयो आनंद करो
ये जीवन का है अर्थ।
इस जीवित जगत से और परे
ये चिंतन है व्यर्थ।।
एक स्त्री एक पुरुष है
और इनकी सभी अभिव्यक्ति।
यही बढ़ संसार ये
ये भोगवाद की शक्ति।।
सभी मान्यताएं बंधन है
यही बंधन मनुष्य क्रंदन है।
यो जो इच्छा है भोगो उसे
यही भोग भोग मुक्ति जग बंधन है।। ईश्वर,न्याय,ज्ञान,ध्यान
और प्रत्यक्ष परे का मान।
अद्रश्य तत्व परिकल्पना
मुर्ख मनुष्य ज्ञान अभिमान।।
निठल्ला सोचे यही सब
कर्मठ करता कर्म।
आलसी ही ध्यान ज्ञान नाम
अप्रत्यक्ष नाम फैलाये भ्रम।।
आस्तिक वाद के प्रश्न ये
हम मनुष्य मात पिता कोन।
कहाँ से आये और जाना कहाँ
इस जीवन अर्थ के पीछे कौन।।
भोग क्या योग क्या
और क्या है स्थूल सूक्ष्म।
तन प्राण मन आत्मा
इनका क्रम चक्र क्या सूक्ष्म।।
जो ये विषय चिंतन करे
वही प्रश्न और उत्तर कर्ता।
वही आत्मा एक अभिन्न सर्व
बन जीवंत परमात्मा विचरता।
भोग कहे कर्म को
और योग कहे व्यवहार।
कर्म और व्यवहार दोनों
यही कर्ता आत्म ज्ञान सार।।
पुरुष स्त्री और बीज
ये त्रिगुण सदा विद्यमान।
स्त्री पुरुष प्रत्यक्ष जग
यही बीज बन सूक्ष्म जान।।
ज्यों बीज में है वृक्ष फल
और प्रत्यक्ष फल में बीज।
बीज स्थाई सदैव रहे
यही ईश्वर नाम है बीज।।
यही ध्यान जो शेष बचे
वही आत्म ज्ञान विज्ञानं।
मिटे प्रश्न उत्तर द्धंद
यही अहम सत्यास्मि प्रज्ञान।।

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