9 जुलाई गुरुपूर्णिमा पर्व पर भगवान विश्वामित्र की देव और दैत्यों में समान प्रतिष्ठा और असुरों को आर्य बनाने का महान अभियान ओर परम् वेदज्ञ शिष्य शुनःशेप की प्राप्ति कथा:-

भारतवर्ष में इनके विषय में अपने अपने प्रदेश में अनेक कथा कही जाती है दक्षिण में ये कथा है की भगवान महर्षि विश्वामित्र महान तपस्वी थे उन्हें बचपन में गुरुकुल से ही उन्हें मन्त्रों के दर्शन होने शुरू हो गए थे इसलिए उन्हें एक दरिद्रता के वशीभूत सो गाय लेकर अपने पुत्र को बेचने वाले ब्राह्मण के पुत्र शुनःशेप में उन्हें अपनी प्रतिभा दिखायी देती थी, उन्होंने उस वैदिककाल में असुरो और आर्यों दोनों को समान अधिकार दिलाने के लिए कठिन परिश्रम किया देवों तक का भी परिक्षण किया की वे कितने सामर्थ्यशाली और कहाँ तक स्वार्थी है इसीके चलते उन्होंने नयी सृष्टि स्वर्ग सिद्धार्यन का निर्माण किया जिसमे सब कुछ था सबके लिए सब कुछ समान था सभी को अधिकार था कोई भेद-भाव न था, सम्पूर्ण आर्यावर्त में उनकी तूती बोलती थी वे ऐसे ऋषि थे जिनका लोहा उनके गुरु भी मानते थे ऋषि अगस्त और ऋषि लोपामुद्रा दोनों ही उन्हें अत्यंत प्रेम करते थे जब शम्बर राज द्वारा इनका अपहरण होता है तब इन्होंने अपनी प्रतिभा और आध्यात्मिक शक्ति द्वारा असुरों को भी प्रभावित किया परंतु अंतिम समय जब देखा की असुर उनका बलि ‘उग्रदेव” (असुरों के देव यानी शिवलिंग) को देने वाले हैं उस समय उनका विचार हुआ की क्या देव भी मनुष्य की बलि लेते हैं-? ये व्यथित हो उठे तब असुर राजकन्या उग्रा के कारण इस प्रसंग को हल करते है, वे यह मानते थे की असुरो को भी आर्य बनाया जाय सभी को समान शिक्षा, समान अधिकार दिया जाय उनके मन को ‘लोपामुद्रा’ ही समझती थीं क्यों की उस गुरुकुल की वही अधिष्ठात्री देवी भगवती थीं तब इन्होंने वेदिक रीति से गायत्री और आत्मविद्या प्रदान कर असुरों को वेदिक ज्ञान दिया यथार्थ अर्थ समझाया
वे भरतश्रेष्ठ आर्यों की एकता के प्रतिक भी थे तत्सु, भरतों व अन्य आर्यों को एक कर सम्राट देवदास के पुरोहित बने एक साथ दो कार्य करते हुए की भरतों के सम्राट भी और आर्यों के पुरोहित भी पूरा सप्तसिंधु आर्यवर्त्य उनके आगे नतमस्तक था उसी बीच एक घटना होती है, इनके शिष्य सत्यव्रत त्रिशंकु पुत्र राजा हरिश्चंद्र को जलोदर रोग हो जाता है, इस सम्बंध में एक अलग कथा प्रचलित है कि राजा हरिश्चंद्र के अनेक रानियां थी लेकिन उनके कोई संतान नहीं थी वरुण देव के प्रार्थना के पश्चात् उन्हें पुत्र सुख प्राप्त हुआ लेकिन वरुण देव ने कहा कि उसी पुत्र का यज्ञ मुझे चाहिए यानी बलि चाहिए, पुत्र पैदा होने के पश्चात् राजा ने वरुण देव से कहा कि बालक रोहिताश्व को जब दांत निकल आये तब यज्ञ होगा देव ने तथास्तु कहा उसके पश्चात् राजा ने जब बालक जवान हो जाय तब यज्ञ होगा लेकिन रोहिताश को जब पता चला कि उसका बलि होने वाली है तो वह भयभीत होकर जंगल में चला गया जब उसे पता चला कि उसके पिता को जलोधर रोग हो गया है वे जल्द ही मर जायेगे उसे बड़ी ग्लानि हुई और अपने पिता राजा हरिश्चंद्र से मिलने के लिए राज्य जाने वाला ही था कि नारद ऋषि से उसकी भेट होने पर उन्होंने उसे पिता से मिलने से रोका कहा तुम्हारा भ्रमण ही ठीक है वह अपने राज्य नहीं गया उसे पता चला कि वरुण देव को यदि उसके बदले कोई और बलि मिल जाय तो भी चलेगा यदि वह ब्राह्मण हो तो अति उत्तम..राजकुमार रोहिताश को जंगल में एक अजिगर्त अंगिरा नाम के ब्राह्मण से भेट हुई सौ गाय लेकर उसने अपने मझले पुत्र शुनःशेप को बेच दिया उसे राजदरवार में लाया गया अब एक दूसरी समस्या आ गयी कि कौन पुरोहित यजमान होगा आर्यावर्त में हाहाकार मच गया अभी तक केवल असुरो के देव ही इस प्रकार की बलि लेते थे आज आर्यों के देवों को क्या हो गया ? अब इस कसौटी पर विश्वामित्र को खरा उतरना था क्योकि पुरे आर्यव्रत में कोई भी यज्ञवेत्ता यह यज्ञ करने को तैयार नहीं थे तब भगवन विश्वामित्र इस दायित्व को तैयार हुए पुरे आर्यावर्त में उनकी घोर आलोचना होने लगी कि वे ये क्या कर रहे हैं ? वे आर्यावर्त के सबसे शक्तिशाली राजा दियोदास के राज पुरोहित थे उनका पुत्र सुदास जो विश्वामित्र से गुरुकुल से ही उनके वैदिक ज्ञान के संशोधन और उच्चतर विज्ञानं के प्रति अन्य ब्राह्मणों द्धारा विशेषकर ऋषि वशिष्ठ के कारण विरोध रखता था तभी वह उनके स्थान पर वशिष्ठ को पुरोहित बनाना चाहता था परंतु इधर ऋषि विश्वामित्र की बड़ी बहिन सत्यवती की पुत्री रेणुका के पति ऋषि जमदग्नि दोनों ही इस यज्ञ के हेतु रवाना हो गए दोनों ही एक-दूसरे को बचपन से केवल जानते ही नहीं था बल्कि एक प्राण दो शरीर थे उधर जमदग्नि पुत्र राम जो आगे चलकर परशुराम कहलाये उनकी भी मित्रता शुनःशेप से हो गयी थी वह अत्यंत मेधावी था परशुराम भी शुनःशेप को बचाना चाहते थे और विश्वामित्र को यह पता था की यदि वे यज्ञ करने नहीं गए तो यह बड़ा अनर्थ होगा उस निरपराध बालक का बध होगा और आर्य देवता वरुणदेव भी कलंकित होगे उधर राजा दिनो- दिन दुखी हो रहे थे यज्ञ वेदी पर उपस्थित विश्वामित्र के सामने समस्या कौन शुनःशेप को बाधेगा तब फिर से दुराचारी पिता अजिगर्त ने १०० धेनुए ले कर अपने पुत्र को बांध दिया, पुनः १०० धेनुएँ और लेकर अपने ही पुत्र का बध करने को भी तैयार हो कर तलवार ले खड़ा हो गया, ये देख विश्वामित्र बड़े ही असहज हो रहे थे दूसरी तरफ शुनःशेप वरुणदेव से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था साथ ही भगवन विश्वामित्र और भगवन जमदग्नि को देख धन्य भी हो रहा था, यहाँ शुनःशेप की विशेषता तो देखिये वह म्रत्यु के मुख में है परन्तु उसे वरुणदेव से मिलने की छटपटाहट तीर्व हो रही है उसे अपनी मृत्यु के स्थान पर वरुण देव दिखायी दे रहे ।इसी विशेषता को भगवन विश्वामित्र ने अपने मन ही मन शुनःशेप के भाव को पढ़ने लगे यो अपने से उसका भाव एकात्म किया इस आत्मविधि से गुरुदेव विश्वामित्र ने वे उसे अपने में प्रकट वेद मन्त्रों का दर्शन कराने से संयुक्त किया और उस शुनःशेप को हृदयांगमय कर गुरु शिष्य एकात्म हो गए जिसके फलस्वरुप उसने वैदिक मन्त्रों के दर्शन शुरू कर दिए, सूक्त और ऋचाएं गुंजायमान होने लगीं प्रत्येक ऋचा से वरुणदेव प्रसन्न हो कर हरिश्चंद्र के एक-एक बंधन खोलने लगे ज्यों-ज्यों एकात्म भाव से वह ऋचाओं को बोलता मंत्र दर्शन करता बंधन अपने- आप खुलते जाते औए राजा हरिश्चंद्र का जलोधर रोग ठीक होता जाता उसके एक-एक ऋचा के पाठ करने के साथ-साथ उसके भी आत्म बंधन खुलते गए और साथ ही राजा हरिश्चंद्र का पेट कम होता गया, अंतिम मंत्र पढ़ते-पढ़ते उसके सभी बंधन खुल गए और हरिश्चंद्र निरोग हो गए इस प्रकार की आत्मशक्ति युक्त एकाकार समाधि से शुनःशेप मंत्र दर्शन करते मूर्छित होकर गिर पड़ा, पुनः चेतना आने पर शुनःशेप को भगवन विश्वामित्र ने अपनी गोद में बैठा लिया, तब अजिर्गत ने विश्वामित्र से कहा हे ऋषि मेरे पुत्र को पुनः हमें दे दीजिये, विश्वामित्र ने कहा नहीं, देवो ने इसे मुझे दिया है यो ये अब मेरा पुत्र है मैं इसे शिक्षा दीक्षा दे उत्तम ऋषि बनाऊंगा कुछ शास्त्रों में शुनःशेप को विश्वामित्र की असुर पत्नी उग्रा का पुत्र माना गया हैं जबकि उपरोक्त बात की पहले ऐसे ही अनेक प्रतिभावान शिष्यों को गुरु अपने संरक्षण में ले लेते थे यो वे सब उनके पुत्र या पुत्री कहलाते थे यही सत्य है इस प्रकार भगवन ऋषि विश्वामित्र की जय- जयकार होने लगी उन्हें अपना अध्यात्मिक उत्तराधिकारी मिला गया, उन्होंने केवल शुनःशेप को ही नहीं बचाया केवल राजा हरिश्चंद्र को ही नहीं निरोग किया (यानी वरुणदेव के शाप से मुक्ति दिलाया) बल्कि देवों को कलंकित होने से भी बचा लिया, और जिन ऋषियों के मन में ये षड्यंत्र था कि इस यज्ञ में ऋषि का उपहास और अपयश होगा उन्हें निराश होना पड़ा, यो भगवन विश्वामित्र सुर-असुर दोनों में प्रतिष्ठित हुए थे सभी को साथ लेकर चलने की क्षमता रखने के कारण वे भारतवर्ष के सूर्य थे वे दूरदर्शी, राष्ट्रवाद-तत्वज्ञान के प्रेरकपुंज वैदिक महर्षि है।इनके विरुद्ध अनेक भृष्ट कथाओं को घड़ कर इनकी महान छवि को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा पर सूर्य कभी भी बादलो से अधिक देर तक ढका नही रह सकता वो पुनः चमकता है और वर्तमान में यही हो रहा है।
इस कथा आख्यान को “हरिश्चन्द्र-आख्यान भी कहते हैं। इसका “चरैवेति चरैवेति” गान विश्वप्रसिद्ध है।और भगवन विश्वामित्र शिष्य शुनःशेप ऋषि ऋग्वेद के प्रथम-मण्डल के 7 सूक्तों (24–30) के द्रष्टा भी हैं। इनके दृष्ट मन्त्रों की संख्या 97 है। सायण ने इसमें तीन मन्त्र और जोडे हैं, इस प्रकार कुल संख्या 100 हो गई है। शुनःशेप-आख्यान में इस प्रकार कुल 100 मन्त्र हैं—-“ऋक्शतमाथं शौनःशेपम् आख्यानम्।” यह आख्यान धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र और नृवंशविज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। राज्याभिषेक के समय राजा को यह आख्यान अवश्य सुनाया जाता था।तथा इस कथा से निम्न ज्ञान उपदेश मिलता है की:-
1-हमें कभी वचनभंग नहीं करना चाहिए इसी दंड स्वरूप राजा हरिश्चन्द्र को जलोदर रोग हो गया।
2-नारद मुनि रोहिताश्व को उपदेश देते हैं कि जीवन संघर्षमय है इससे भागो मत, बल्कि उसका डटकर सामना करो और कर्मठ बनो, सदैव सक्रिय रहो, चलते रहो—“चरैवेति–चरैवेति।”
3-लोभी व्यक्ति कुछ भी कर्म कर सकता है। वह विश्वास का पात्र नहीं होता। अजीगर्त ब्राह्मण ने लोभ में आकर अपने ही पुत्र को बेच दिया। इसलिए लोभ नहीं करना चाहिए।
4-वेदों में जो देवताओ को नर व् पशुबलि का उल्लेख है वह असत्य है इसीका विरोध और निराकरण वेदज्ञ महर्षि विश्वामित्र ने किया।
5-गुरु अपने साथ अपनी आत्मशक्ति से शिष्य को संयुक्त करता हुआ जब मन्त्र देता है तभी मंत्र में शक्ति उत्पन्न होकर शिष्य का कल्याण करती है मन्त्रों में शक्ति है, जिसके कारण हरिश्चंद्र और शुनःशेप दोनों ही शाप बन्धन से मुक्त हो गए और शुनःशेप वेदज्ञ बना।
6-मानव हृदय की सबसे बडी दुर्बलता पुत्र-प्रेम है। वह पुत्र-प्रेम के लिए कुछ भी कर सकता है। यहाँ तक कि परमात्मा को भी त्याग सकता है। हरिश्चन्द्र ने यही किया।
7-जो व्यक्ति वैदिक जीवन से दूर हो जाता है, वही अनैतिक कर्म करता है। वही राजसत्ता का दुरुपयोग करता है। धन के बल पर रोहित ने निर्धन लोभी ब्राह्मण अजीगर्त को खरीद लिया और उसे अपने पुत्र की बलि के लिए मना लिया।
8-शुनःशेप में स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ था। अतः उसने अपने लोभी पिता अजीगर्त का परित्याग कर दिया।
9- यहाँ वर्ण परिवर्तन भी दिखाया गया है। शुनःशेप ब्राह्मण अजीगर्त का पुत्र था, किन्तु विश्वामित्र का दत्तक पुत्र बनकर वेदज्ञ ऋषि बना यो जो जैसा कर्म करेगा, उसका वर्ण वैसा ही हो जाएगा।
10-यहाँ भगवन विश्वामित्र का सभी जनजातियों में जाकर उन्हें शिक्षा दीक्षा देकर आर्य बनाने हेतु सभी सामाजिक कुरूतियों को संशोधित करते हुए उन्हें वेदों के मुख्य ज्ञान आत्मा को जानो से जोड़ा यो अनेक स्वार्थी ब्राह्मणो ने उनके विपक्ष में षड्यंत्र किये जो उन्होंने अपने परुषार्थ से विफल किये यो सदा अपने शुभ कर्म को करते हुए अपने ज्ञान लक्ष्य की और चलते रहो यही चरैवति चरैवेति विश्व गान अर्थ है।
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