9 जुलाई के गुरुपूर्णिमा पर्व पर विश्वगुरु भगवन विश्वामित्र और सूर्यवँशी हरिश्चंद्र पुत्र अयोध्या सम्राट रोहताश्व का रोहतास गढ़ का किला और कर्मनाशी नदी की सत्यकथा:-


पिता श्री हरिश्चंद्र ने भी अपने पिता श्री सत्यव्रत त्रिशंकु के लिए श्री गुरुदेव भगवन विश्वामित्र द्धारा स्वनिर्मित नवीन स्वर्ग.. सिद्धार्यन स्वर्ग को स्वर्गारोहण करने के उपरांत अयोध्या में बारह वर्ष तक राज्य किया इसके उपरांत उन्होंने एक सदूर एक रमणीक भूमि का चयन करते हुए वहाँ अपने विहार के लिए एक रोहतास किले का निर्माण कराया यो इनके विहार करने के इस रमणीय प्रदेशीय कारणों से वर्तमान में बिहार नाम पड़ा यहाँ पर अपने पिता के इंद्र के स्वर्ग में गुरुदेव विश्वामित्र के द्धारा भेजे जाने के समय जो ऐतिहासिक घटना हुयी जिसमें वशिष्ट और उसके पुत्र ने इनके पिता को सशरीर स्वर्ग भेजने के उपक्रम करने के स्थान पर उन्हें शाप देकर त्रिशंकु बना दिया था उस स्थान पर ही गुरुदेव विश्वामित्र ने स्वर्गारोहण यज्ञ किया था वहाँ एक नदी बहती थी जिसका नाम था..अवनाशी
उसी नदी के तट पर जहाँ से त्रिशंकु स्वर्ग से वापस गिराये गए और पुनः उन्हें गुरुदेव विश्वामित्र ने आकाश में रोककर अपनी आत्मशक्ति से नवीन स्वर्ग सिद्धार्यन की सप्तर्षिमण्डल ज्ञानगंज के साथ रचना की उसमें त्रिशंकु को नवीन इंद्र बनाया “इसी सिद्धार्यन और सप्तर्षिमण्डल ज्ञानगंज का ही सम्बन्ध हिमालय के गुप्त ज्ञानगंज से है” तब ठीक उसी स्थान पर यज्ञानुष्ठान के स्थान को चुनकर ये किला बनवाया और उसमे अपने श्री गुरु विश्वामित्र द्धारा बताये आत्मज्ञानी विद्या पूर्णिमा देवी की आराधना के लिए तपस्या यज्ञानुष्ठान आदि करते रहते थे।और गुरुदेव विश्वामित्र द्धारा उनके शिष्य वंशज सत्यव्रत त्रिशंकु और सत्यवादी हरिश्चंद्र व् रोहताश्व को आध्यात्मिक बली बनाने की अद्धभुत कथा को सुन और जानकर अनेकानेक अयोध्यावासी सहित भारतवर्ष के अनगिनत ऋषियों ने इस स्थान पर अपने तपोनिवास बनाये और इस नवीन सिद्धार्यन स्वर्ग की प्राप्ति की यो आगे चलकर इसी अवनाशी नदी का नाम कर्मनाशी नदी पड़ा की इसमें स्नान करके जो भी तपस्या करता है वो इस नवीन सिद्धार्यन स्वर्ग में बिना किसी जातिपाति के अपने कर्मो से शुभ फलों की प्राप्त करता दिव्यानन्द को प्राप्त करता है।महाभारत के उपरांत इस स्थान के महत्त्व को इस स्थान के ऋषियों के विपरीत अनेक ऋषियों ने विपरीत कथाएँ लिख इसे शापित बताते प्रचार किया जिसका परिणाम आज भी देखा जाता है।यो कथाओं में छिपे सत्य को जानो उसे स्वीकारो और अपना कल्याण करो। वहाँ पर एक सतयुगी शिवलिंग भी था जो विश्वामित्र ने तब स्थापित किया था जब उन्होंने वशिष्ट से तपोबल के कारण पराजित होने के उपरांत यहीं बैठ कर शिव जी से दिव्यास्त्र प्राप्त किया और यहीं कालांतर में एक योनितंत्र जिसे शुभता व शुद्धता में श्रीभगपीठ कहते है की स्थापना पूर्णिमा देवी के श्रीभगपीठ के रूप में की थी जिससे वहाँ की तपस्यारत स्त्री ऋषियां अपनी कुण्डलिनी की अपने स्त्रीलिंग की चतुर्थ धर्म अर्थ,धर्म,काम,मोक्ष के प्रतीक चतुर्थ नवरात्रियों-चैत्र-बैशाख-क्वार-माघ माह में आने पर भौतिक व् आध्यात्मिक यानि गुप्त नव्रात्रि के नाम से जानते है उसकी साधना करते आत्मसिद्धि की प्राप्त करें जो बौद्धकाल में विभत्सव रूप बन जाने के कारण सिद्धार्यन स्वर्गिक ऋषियों ने स्वयं लुप्त कर दी थी।तो इस स्थान पर केवल शिवलिंग ही शेष रह गया जो वर्तमान में रोहताश्व शिवलिंग के नाम से प्रसिद्ध और मनोरथ पूर्ण करने वाला तीर्थ बना है साथ ही यहाँ के किले से आती रोहताश्व की आत्मा की डरावनी आवाज नाम से प्रसिद्ध है और किले के पत्थरों से रक्त निकलने का भी घटना को एक फ़्रांसिसी इतिहासकार बुकानन ने अपने लेखन में किया है जबकि ये किला अनेको काल तक हिन्दू राजाओ के अधिकार के उपरांत कालांतर में शेरशाह सूरी के अधिकार से होता मुगलों के अधिकार में आया जहाँ उन्होंने इसमें स्थापित दिव्यता को अपवित्र करते नष्ट किया और अपनी जादुई उपाय किये जिसके फलस्वरुप यहाँ एक ओंकार की ध्वनि आती थी जो इनके अपवित्रकर्मों से विक्षिप्त होकर एक भयावह ध्वनि में बदल गयी है आज आवश्यकता है इस स्थान पर वैदिक विधान से मन्त्रज्ञानुष्ठान किये जाये और पुनः विश्वामित्र जी और उनके वंशज शिष्यों हरिश्चंद्र पुत्र महाराज रोहताश्व के तपोबल की व्रद्धि करें तब हमारे अनेको ऐसे गुप्त तीर्थो को जिन्हें मुस्लिम संस्कर्ति से भ्रष्ट और विभत्सवता प्राप्त हुयी है उन्हें पुनर्जीवन मिले और हिन्दुत्त्व को वही प्राचीन दिव्यता का गौरव प्राप्त हो, आओ इसमें सहयोग करें।
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