प्रेमास्मि:


जगे प्रेम की चाहत जन्मों कर्म।
बने प्रेम दिव्य जन्मों श्रम।
मिले एक दूजे प्रेम हो एक शरीर परम्।
तब प्रेमी बन जाता ईश्वर मर्म।।
मैं हूँ तू में समा जाता
तू है ये कहने वाला भी।
ज्यों जले ज्योत बन एक
दीपक बाती अग्नि घी।
तन भान मिटे मन सदा लीन।
एक्त्त्व अनुभव होता है।
कौन कहे मुझे प्रेम भी है
बिन कहे प्रेम यूँ जीता है।।
ना लेने वाला ना देने वाला
इच्छित बिन इच्छा होती पूर्ण।
ज्यों सुगंध विचरती पवन संग
पुष्प वहीं रह कर बन सम्पूर्ण।।
कहते देख अनुभव कर
ये और अधूरे संसारी जन।
जिस पुष्प खिले जीवंत प्रेम
उसमें अपनी पूर्णता करके हन।।
ये संसार पूर्णता और अग्रसर
इसका अंत विकास है सम्पूर्ण।
प्रेम इस पंचतत्वी शरीर परे
यो मिट जाता इस जगत हो चूर्ण।।
प्रेम की सूरत अद्धभुत है
जो देखे वो विक्षिप्त होता।
भूले नियम सभी इस जग
प्रेम दर्शन मन परे होता।।
जो देख रहा वो आपा है
जिसमे दिख रहा वो आपा बन।
ज्यों दिखे इंद्रधनुष नभ् में
पर हाथ नही आता उस तन।।
प्राप्ति यहाँ अर्थ नही
अप्राप्य यहाँ अर्थ व्यर्थ।
शेष अशेष दोनों है एक
एक यही प्रेम बिन परत परत।।
द्रश्य दर्श और दर्शित मिटता
प्रेम रहता एक प्रेमी बन धर।
अनंत एक बन जीता जग
प्रेमी प्रेमिका एक प्रेम अजर अमर।।
यो प्रेम नही मिले जग बाजार
प्रेम निभता नही बना व्यवहार।
प्रेम तुम्हारी सम्पूर्णता है
आत्मसाक्षात्कार है प्रेम का सार।।
स्मि अस्मि आस्मि बिन अहम्
कोहम सोहम नाहम रास्मि।
द्धैत अद्धैत विशिष्टाद्धैत
सब समा जाते एक प्रेमास्मि।।
?जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः?

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