शुभ सत्यास्मि ज्ञान प्रातः

*?शुभ सत्यास्मि ज्ञान प्रातः?*

दोष गुरु में देख नही

अपने ह्रदय झांक।

देख टटोल निज विचार

उस क्षुब्ध विचार की चादर टांक।।

सुई ले विवेक की

धागा लेकर चिंतन ज्ञान।

सीता जा छिद्र हर

अंतर ज्योत प्रकाशित ध्यान।।

तब तुझे प्राप्त हो

ज्योतिमय वस्त्र शुद्ध।

तब पहचाने गुरु ज्ञान को

इतने व्यर्थ जीवन अशुद्ध।।

यो बन ध्यानी ज्ञानी तू

और सेवक रूपी भक्त।

इस अपने आंकलन पायेगा

यथार्थ शिष्य बन जीवन व्यक्त।।

भावार्थ?हे-शिष्य तू अपने गुरु में दोष मत देख बल्कि अपने ह्रदय जहाँ से ये कुलषित आंकलनहीन अक्रमता पायी विचारों की जो छुब्ध मैली चादर तेरे सारे तन पर ओढ़ी हुयी है उसमें प्रत्येक अज्ञान के छिद्रों को अपने विवेक चिंतन के आत्मप्रकाश में देखता हुआ उन्हें सीता जा तब तुझे एक शुद्ध आत्मवस्त्र की प्राप्ति होगी और तू शुद्धता को प्राप्त होगा तब तू गुरु के सही रूप से अपना कर आत्मउद्धार की प्राप्ति कर पायेगा इतने गुरु बनाने के उपरांत भी जीवन व्यर्थ है।यो यथार्थ भक्त ज्ञानी बन।

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