हठ योग का अर्थ व उसका सिद्धांत क्या है ओर उसके मुख्य आसन कौन से है,आज के युग मे हठ योग कितना प्रभावी है,क्या इससे सच मे समाधि की प्राप्ति की जा सकती है आदि विषयों पर बता रहें है,महायोगी स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…
हठयोग के बारे में लोगों की अलग अलग प्रकार की परिभाषा ओर धारणा है कि हठ शब्द के हठ् + अच् प्रत्यय के साथ ‘प्रचण्डता’ या ‘बल’ अर्थ में प्रयुक्त होता है।यानी हठ माने बल पूर्वक या जबरदस्ती अपने को यानी अपने प्राणों व मन को अंतर्मुखी करना,यो हठेन या हठात् क्रिया-विशेषण के रूप में प्रयुक्त करने पर इसका अर्थ बलपूर्वक या प्रचंडता पूर्वक, अचानक या दुराग्रहपूर्वक अर्थ में लिया जाता है। ‘हठ विद्या’ स्त्रीलिंग अर्थ में ‘बलपूर्वक मनन करने’ के विज्ञान के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार सामान्यतः लोग हठयोग को एक ऐसे योग के रूप में जानते हैं जिसमें हठ पूर्वक कुछ असाधारण शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएं की जातीं हैं। इसी कारण सामान्य शरीर शोधन की प्रक्रियाओं से हटकर की जाने वाली शरीर शोधन की षट् क्रियाओं (नेति, धौति, कुंजल वस्ति, नौलि, त्राटक, कपालभाति) को हठयोग मान लिया जाता है। जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। षटकर्म तो केवल शरीर शोधन के साधन है। वास्तव में हठयोग तो शरीर एवं मन के संतुलन द्वारा राजयोग प्राप्त करने का पूर्व सोपान के रूप में विस्तृत योग विज्ञान की चार शाखाओं में से एक शाखा ये हठयोग विज्ञान है।
साधना के क्षेत्र में हठयोग शब्द का यह अर्थ बीज वर्ण ह और ठ को मिलाकर बनाया हुआ,दो शब्द के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। जिसमें ह या हं तथा ठ या ठं (ज्ञ) के अनेको अर्थ किये जाते हैं। उदाहराणार्थ ह से पिंगला नाड़ी दहिनी नासिका यानी पुरुष शक्ति (सूर्य स्वर) तथा ठ से इड़ा नाडी बॉंयी नासिका यानी स्त्री शक्ति (चन्द्रस्वर)। इड़ा ऋणात्मक (-) उर्जा शक्ति एवं पिगंला धनात्मक (+) उर्जा शक्ति का संतुलन बनाकर उन्हें एक सूत्र में करना अर्थ है।हठयोग में ये दो हं ओर ठं भी हंस बीजमन्त्र की भांति ही बीजमन्त्र भी है,जैसा कि हं सं यानी हंस मंत्र है।अंदर जाता सांस हं ओर बाहर जाता सांस ठं है,यो ये मंत्र हुआ हंठ।यहां हं सहज प्राण की गति है और ठं यहां शरीर मे वक्री गति के वक्र चक्र में उलझा सांस है,यो हं से अंदर सांस लेकर ठं की अंतर्ध्वनि के आघात यानी चोट करने के बार बार आघात करने से ओर उस आघात की शक्ति को उस अंग या चक्र पर कुछ क्षण ठहराए रखने के भाव को बनाये रखने यानी ठहरने से बाहर से ली गयी प्राण शक्ति के कम्पन की टक्कर को उस एक ही चक्र पर गति देकर बनाये रखने पर मूलाधार चक्र में सोई कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत किया जाती है,क्योकि जो प्राण शक्ति हं के मन्त्र भाव से बाहर से ली गयी और उसे इसी हं मन्त्रात्मक मानसिक भाव से अपने शरीर मे नीचे तक लाते हुए उसमें मन की एकाग्रता से तीर्वता से कम्पन्न का एक प्रवाह बनाकर फिर मूलाधार चक्र में मूल बंध लगाकर उस हं प्राण की कम्पनात्मक गति को नीचे पास नहीं होने देकर केवल मूलाधार चक्र में एक त्रिकोण के अंदर सोई सर्पाकार कुंडलिनी शक्ति के मुख पर चोट की जाती है,ओर उस समय केवल उस सर्पाकार शक्ति के मुख या त्रिकोण के अंदर स्थित मूल बीज बिंदु पर इस कम्पन्ननात्मक प्राण शक्ति के प्रवाह को बनाये रखा जाता है,तब इसी ऊपर से आ रही प्राण शक्ति के कम्पन्न प्रवाह के लगातार आघात यानी चोट को वहीं मारते या लगते रहने के ध्यान अनुभव को अपनी मन की आंख से देखा जाता है।तब इसी अवस्था मे अनेक स्तर या स्थिति बनती है,जो हठ योग के अनेक सोपान या स्तर बोले जाते है:-










स्थूल रूप से हठ योग अथवा प्राणायाम क्रिया तीन भागों में पूरी की जाती है –
(1)अन्तः रेचक – अर्थात श्वास को सप्रयास बाहर छोड़ना ओर फिर उसे जितनी देर रोका जाए,वही सांस को बल पूर्वक बाहर को फेंकते हुए रोके रखना,ठीक इसी सांस की रोके रखे ओर बाहर को बची सांस को फेंकते रहने की प्रक्रिया में जो शब्द निकलता है,वही शब्द ठ यानी ठक्कर यानी तँकार है,इस प्रकार से बाहर को हठ से सांस को बलपूर्वक रोकने की क्रिया को हठयोग की हठ रेचक क्रिया कहते है।
और फिर जब रोकना मुश्किल हो जाये,तब सांस को धीरे धीरे अंदर को खींचना।
(2)अन्तः पूरक – अर्थात श्वास को सप्रयास यानी अन्दर खींचना।ओर सारे शरीर मे प्राणों को एक शक्ति रूपी मनोकल्पना से भरते हुए या अनुभव करते हुए,मूलाधार चक्र तक इस का पूरक का अंत करना।और अब इस प्राण को अंदर को जबरदस्ती यानी हठ पूर्वक थोड़ा थोड़ा सांस ओर भरने का ओर उस भरते सांस को गले से अंदर को सटकने का व उसे सटीक कर रोकने का प्रयास करना ही अंतर हठयोग पूरक क्रिया है।
(3)अन्तः कुम्भक – अर्थात अपने अंदर लिए गए सबल पूर्वक श्वास के साथ प्राण को सप्रयास रोके रखना।ओर मूलबन्ध लगाकर फिर जालंधरबन्ध व उड़ियाँबन्ध यानी तीनों बंध लगाकर किये उस बलपूर्वक कुम्भक क्रिया के साथ मन को अंदर उस मूलाधार चक्र पर प्राण ऊर्जा का अन्तराघात करने के ध्यान सहित क्रिया योगको हठयोग प्राणायाम कहते है।
इसके ही निरन्तर अभ्यास से ही हठयोग की समाधियों का प्रारम्भ होता है,प्रचलित राजयोग की सिद्धि का हठयोग की समाधि से कोई लेना देना नहीं है।जैसे कि आजकल के योग जगत में प्रचलित है,की यह हठयोग अभ्यास ही आगे चलकर राजयोग की सिद्धि के लिए आधारभूमि बनाता है। बिना हठयोग की साधना के राजयोग (समाधि) की प्राप्ति बड़ा कठिन कार्य है। अतः हठयोग की साधना सिद्ध होने पर राजयोग की ओर आगे बढ़ने में सहजता होती है।
जबकि ऐसा बिल्कुल नही है,दोनों का क्षेत्र बिलकुल अलग है।
हठयोग के इस अभ्यास का बाहरी स्तर पर ही वर्णन अनेक शास्त्रों के किया गया है,हठयोग प्रदीपका हो या अन्य महात्माओं की लिखी पुस्तक में वर्णित क्रिया योग अभ्यास,जैसे महर्षि दयानन्द जी के सत्यार्थ प्रकाश आदि में,बस सामान्यतौर पर बताया है,अधिकतर भारतीय योगी इसी पद्धति का अभ्यास करके जड़ समाधि को प्राप्त होते थे।
जड़ समाधि:-हठयोग के इसी प्राणायाम के निरन्तर कम सें कम तीन साल ओर प्रतिदिन चार समय इस अभ्यास को करते हुए,फिर उसे एक समय के ही अभ्यास में समेटकर केवल अब एक ही समय यानी तीन घण्टा बयालीस मिनट के अभ्यास को करने का जब अभ्यास बिल्कुल सहज हो जाएगा,तब साधक का अंतर मन उसके अधिकार में होने लगता है,इससे उसकी आसन सिद्धि के साथ साथ उसे एक ही चक्र पर लगातार तीन घण्टा बयालीस मिनट के मन शक्ति के एकाग्र किये रहने के अभ्यास को सहज होने पर,उस स्थान पर मन की शक्ति के इतनी देर तक ठहरे रहने के कारण,इस अवस्था को ही सच्ची धारणा कहते है,तब ही उन चक्र पर जो लगातार प्राणों का कम्पन्नात्मक आघात यानी टक्कर लगती रहती है,ओर नीचे लगातार मूलबन्ध लगा रहने से मूलाधार में इस क्रिया से जो शक्ति बढ़ रही है,वो नीचे को पास यानी स्खलित नही होती है,यो मूलाधार चक्र पर भयंकर प्राण शक्ति का भयंकर कम्पन होने से प्राण शरीर का शोधन होता है और इस प्राणायाम के अभ्यास से साधक स्थूल शरीर से उसका प्राण शरीर अलग हो जाता है,ठीक तभी इसी प्राण शरीर मे ही कुंडलिनी का प्रवेश द्धार खुलता है,जैसे सुषम्ना कहते है,इससे पहले कोई सुषम्ना नाड़ी नही खुलती या मिलती है,ठीक इसी अवस्था मे साधक को प्रत्याहार ओर धारणा ओर ध्यान तीनों अवस्था की सिद्धि होती है,तब इस अवस्था मे ध्यान बनता हुआ,साधक के प्राण शरीर मे प्राणोंके इस भयंकर एकत्र ऊर्जा की कम्पनात्मक शक्ति का चारों ओर से बंध लगने से सुषम्ना में यानी मन के साथ प्राण शरीर मे ऊपर की ओर प्रवेश होता है।तब उसे घोर गर्जन के जैसा प्रकाश के साथ साथ(यहाँ निरन्तर प्राणों के शोधन होने से शरीर शुद्ध होता है,ओर इसी शुद्ध शरीर मे स्थिर प्रकाश के दर्शन होते है,अन्यथा कभी कभी ही प्रकाश के दर्शन होते है,क्योकि आपका शुद्ध शरीर दूसरों के सम्पर्क में आते रहने से अशुद्ध भी होता रहता है,यो आपको कभी कभी दूधिया तो कभी नीले आकाश जैसे प्रकाश के दर्शन और कभी बैंगनी या अलग प्रकार के अशुद्ध प्रकाश के दर्शन होते है, अधिकतर अंधकार ही बना रहता है,ठीक इसी अवस्था को बनाये रखने के लिए ब्रह्मचर्य यानी किसी का भी स्पर्श आदि नहीं हो,ऐसे अभ्यास की प्रबल आवश्यकता होती है)अन्यथा आप कभी भी ध्यान सिद्धि नहीं पा सकते है।अब इसी अवस्था मे जब प्राण शक्ति का ये इकटठा प्रवाह मूलाधार चक्र में घूमता है,तब ही अनेक प्रकार की अलग अलग ध्वनियां,बांसुरी,कानों में सीटी,ओर तरहां तरहां की मनुष्य की आवाजें ओर घोर गर्जन की ध्वनि सुनाई आती जाती है,तब आगे ये शक्ति मूलाधार चक्र को शुद्ध करके अखण्ड ब्रह्मचर्य को बनाकर,फिर ऊपर को उठती है,तब साधक को सारे शरीर मे अद्धभुत प्राणों के संचार का बड़ा ही आनन्दित अनुभव होता है,ओर इसका पहला फल होता है,स्वस्थ के साथ साथ,बिन कसरत किये ही अद्धभुत बल की प्राप्ति।ओर साथ ही तभी जड़ता की भी प्राप्ति होती है,शरीर एक दम जड़ यानी स्तब्ध हो जाता है।तब वो इसी अवस्था के बार बार होने से धीरे धीरे जड़ समाधि के लगने की अवस्था को प्राप्त होता है।यहां वह साधक एक प्रकार की बाहरी तोर पर तो मूर्छा को प्राप्त होता है,पर अंदर वो एक प्राकृतिक समय चक्र में स्थित होकर स्थिर ओर निष्क्रिय होकर बैठा रहता है,अब ये अवस्था उसे लेटे या बैठे कब प्राप्त हुई है,ये बात अलग है,तब उसके अंदर का प्राकृतिक समय चक्र उसे अपने आप जाग्रत कर देता है,कितनी देर रहे ये बात अलग है,ठीक उसी पहली अवस्था के लिए गुरु का पास होना आवश्यक होता है,जो उसे इससे बाहर निकाल दे,अन्यथा उसे बहुत देर भी लग सकती है,पर चिंता की कोई बात नहीं है,प्राकृतिक समय चक्र उसे देर सवेर खुद ही इस जडत्व से छोड़ देता है,क्योकि इस प्रकर्ति जगत में कोई भी अवस्था ज्यादा देर तक नहीं बनी रहती है,इस प्रकर्ति का गुरुत्वाकर्षण बल उसे अपने आप ही नीचे खींच लेता है।
यो इसी अभयास के निरन्तर चलते अधिकतर साधक उसी जड़ समाधि को ही प्राप्त होते है,इस अवस्था मे उन्हें केवल अनेक घण्टे की प्राणविहीन यानी बाहरी तौर पर सब कुछ रुक हुए एक समाधि अवस्था की प्राप्ति होती है।अब चाहे वो एक दिन से लेकर महीनों तक इस अवस्था मे बना रहे,पर उसमें विशेष ज्ञान की अवस्था का उदय नहीं होता है।
ठीक यही ही बहुत उन्नत गुरु की परमावश्यकता होती है,जो उसे इस जडत्व अवस्था से जल्दी पीछा छुड़ाकर मन यानी सूक्ष्म शरीर की तीसरी अवस्था मे प्रवेश करा दे,तब अन्नमय शरीर और प्राण शरीर से आगे बढ़कर,वो मन शरीर ओर उसकी अनेक स्तरों में प्रवेश करता हुआ,विज्ञान शरीर मे स्थित होता है,तब सच्चा ज्ञान के साथ सच्ची शक्तियों की प्राप्ति होती है।इतने तो कभी कभी कुछ मानसिक शक्तियों के हल्के फुलके चमत्कार जीवन मे दिखाई देते है,पर उन पर अधिकार नहीं होता है।
यो तुम इस हठयोग को कम मत आंकना,की अरे उसके करने से कोई विशेष अवस्था की प्राप्ति नहीं होती है,साधना के पहले चरण में हठयोग की ही प्राप्ति होती है।इस सबको सिद्ध गुरु के निरन्तर सानिध्य में ही समझा और प्राप्त किया जाता है।
हठयोग ओर राजयोग में अंतर:-
वैसे तो दोनों में ही स्वयं का ही पुरुषार्थ है,पर हठयोग में स्वयं के पुरुषार्थ का अभ्यास अधिक है,यानी जो साधक केवल अपने ही बल पर साधना करके सिद्धि पाता है और इसके बाद ही उसमें अपने मे स्थित एक अतिरिक्त शक्ति,जिसे अनादि आत्मा की गुरु प्रदत्त शक्ति का सहयोग का अनुभव होता है,तब वो उसकी सहायता से आगे बढ़ता है,जिसे भक्ति योग में भगवान के आश्रय की सहायता से आगे बढ़ना कहते है,ओर राजयोग में भी इसे गुरु के निरन्तर शक्तिपात से आगे बढ़ना कहते है।यही अतिरिक्त शक्ति पात की आवश्यकता केवल इसी जीवन मे सफलता पाने का अर्थ है,अन्यथा प्रत्येक साधक के जीवन अनन्त ओर उसकी आत्मा स्वयं सर्वज्ञानी ओर मुक्त व मोक्ष ज्ञानी है,तभी तो उसे आत्मा का ज्ञान प्राप्त होता है।पर पता नहीं कितने जन्म लगे,इस लिए गुरु की अतिरिक्त शक्तिपात के कारण साधक का अपना पुरुषार्थ यानी परिश्रम जल्दी सफलता देता है,ओर वो जल्दी जल्दी अन्नमय शरीर से प्राण शरीर और मन शरीर यानी सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति करके साधना के एक पक्के स्तर को पा लेता है,फिर तो वो अपनी साधना इस प्रकर्ति के बंधन से मुक्त ओर स्वतंत्र होकर कर सकता है,यही अवस्था को ही योग में अमरता या बज्र शरीर या अक्षत शरीर की प्राप्ति होना कहते है,वैसे सच्ची साधना इसी शरीर के बाद शुरू होती है,इसके बाद अवतारवादी सिद्धि योग की प्राप्ति को साधना होती है।
अब आहार:-आज के युग मे जो हम गाय हो या भैंस का दूध पीते ये साधना करेंगे,तो सफलता कम मिलती है,क्योकि अब बहुत बर्षों से गाय और भेंसे सब प्रदूषित कुट्टी खा रही है,नतीजा उनका दूध पीने से हमारे शरीर मे भी वही विष बढ़ता है,ओर उसके बढ़ने सेसाधक के शरीर में प्रारम्भिक वायु भी दूषित होने से उसे गैस, कब्ज,बार बार डकार आने से उसका कुम्भक सिद्ध नही होता है।यो योगी इस दूध घी का भी त्याग करके केवल फलाहार ओर मेवा आहार को अपनाते साधना करते है।
इससे अधिक ज्ञान को सिद्ध गुरु के द्धारा उसकी मर्जी ओर साधक को जांच लेने के बाद ही प्राप्ति होती है।फिर भी हठयोग का ये ज्ञान आपको इसके विषय मे अच्छा ज्ञान देगा।बाकी साधना ही है।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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