सिद्धासिद्ध महामंत्र सत्य ॐ सिद्धायै नमः की अनादि प्राचीनता की प्रमाणिकता क्या ओर कैसे है?
बता रहें है महायोगी स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी,,
आमतौर पर समाज मे प्रचलित किसी भी नवीन या प्राचीन धर्म सम्प्रदाय के मूलमंत्र की प्राचीनता और नवीनता से उसकी शक्ति का परीक्षण की भ्रमात्मक धारणा का बड़ा ही प्रचलन है की ये तो वेदों में नहीं है या ये तो स्वंयम्भू नवनिर्मित है यानी खुद ही घड़ा बनाया हुआ मन्त्र है।इस विषय पर आओ अन्य सभी धर्मों के कथित प्राचीन बताये महामंत्रो की प्रामाणिकता को देखें👉
आदि से वर्तमान तक के जितने भी इष्टवादी से लेकर गुरुवादी मुलमन्त्र है जैसे-वेदों का “ॐ” या ईसाइयों का “गॉड” या जीसस” या मुस्लिमों का “लाइलाहे इल्लिल्लाह मोहम्मद उर् रसुलिल्लाह व् अल्लाह” या जैनो का- “णमो अरिहंताणं,णमो सिद्धाणं,णमो आइरियाणं,णमो उवज्झायाणं,णमो लोए सब्वसाहूँणं” और बौद्धों का महामंत्र-ॐ मणिपद्मे हु” या सिख्खों का “वाहे गुरु” व “एक ओंकार सत् नाम” व् वैष्णवो का ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः या श्री राम या श्री कृष्ण या हरे राम हरे कृष्ण आदि और शैव मत के ॐ नमः शिवाय् और शाक्त मत के ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चै” और हनुमान,भैरव अनेको अनेक देव देवी के मंत्र आदि अनगिनत मंत्रों की उत्पत्ति हुयी और इनके अनेक सिद्ध महात्मा,भक्त आदि समयानुसार हुए जिसके कारण सामान्य मनुष्य ये विचार करता है की ये तो अनंतकाल से है जबकि इन मंत्रों की उत्पत्ति या अवतरण या उद्धभव को देखेंगे तो पता चलेगा ये सब जैसे जैसे इन मंत्रों के देव देवी और अवतारो या पैग़म्बरों का जन्म हुआ और उन्होंने अपने मतो सिद्धांतो का प्रचार प्रसार किया,तब ये सब मंत्र नवीन ही थे ये प्राचीन नही थे और इनके होने से पूर्व कौन से मंत्र थे? इसका ज्ञान करने में सब मौन हो जाते है।अतः मनुष्य और उसकी आध्यात्मिक आवश्यकता के अनुरूप और उसकी भाषा के अनुरूप और उसकी साधना के फलस्वरुप ही इन मंत्रो का उदय हुआ।यो सभी कहेंगे की नही हमारा मंत्र तो अनादि है।ये ईश्वर या ईश्वरी के ही साक्षात् मुख से निकला है।तो प्रश्न ये है की जो ईश्वर को निराकार मानते है वे कैसे कहेंगे की ईश्वर बोलता है क्योकि निराकार का अर्थ ही किसी भी आकार,रूप,रस,गंध-स्पर्श और शब्द से परे का अर्थ है।ये सब अर्थ तो साकार के है और नाँद हो या शब्द हो वो सब साकार से ही साकार को ही सुनाई देंगे व् प्राप्त होंगे।यो तो ईश्वर का वचन साकारी हुआ।यहाँ मूल बात ये है की सभी मंत्र मनुष्य की आत्म साधना के अंतर्गत उसके सूक्ष्म अन्तःकरण में उद्धभव होते है। जिसे ईश्वर की वाणी ही कहा जाता है।क्योकि आत्मा की ही प्रावस्था परमात्मा या ईश्वर कहलाता है।यो सभी मंत्र ईश्वर की ही वाणी है।जो सत्य में आपके अपनी भाषा और स्वरूप के अनुसार आत्म उन्नति हेतु बने और सफल है ओर जीवन की सभी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की सफलता को देने वाले है,क्योकि उनमें सफलता प्राप्ति का ही महाभाव छिपा ओर प्रकट है।और वेसे भी देखोगे की सभी धर्मो में उनके साधक हुए और है भी। तब कितनो को सफलता मिली?क्या सभी उन मंत्रो के जप तप से सिद्ध हुए या धनी हो गए? तो आप पाएंगे की सभी धर्मो में कुछ ही लोग सिद्ध और धनी हुए है यो सभी मंत्रों में सिद्धि है और असिद्धि भी है।ये उसके जापक पर निर्भर करता है की वो कैसे और किस विधि से कब कब समयानुसार जपता तपता है।जैसे एक उच्चकोटि का विद्यालय हो और उच्चकोटि के अध्यापक हो और उच्चकोटि की पुस्तके भी हो लेकिन विद्यार्थी निम्न और आलसी आदि अवगुणों से भरपूर मानसिक स्तर का हो तो सब व्यर्थ होगा।हां गुरु अपने अनुभव व् प्रयोगो से उसे भी कुछ अच्छे स्तर तक ला सकता है।ये गुरु की व्यक्तिगत महनत का परिणाम होता है।वो भी गुरु का अपने शिष्य ओर सिद्धांत के विस्तार को लेकर कितना ओर क्या प्रयोजन है?यहाँ ये ज्ञान आवश्यक है।यो सभी धर्मो में आत्म उन्नति को व् मंत्रो के जागरण आदि को तीन गुणों के विकास पर विशेष बल दिया गया है।




👉1-सेवा।
2-तप,जप।
3-दान।।
और यही विषय अनेक भक्तो ने उठाया की गुरुदेव क्या हमारे सनातन सत्यास्मि वर्णित और हमे प्रदान सिद्धासिद्ध महामंत्र “सत्य ॐ सिद्धायै नमः” या “सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट स्वाहा”” की क्या नवीन है या क्या व कैसे प्राचीन है।तब यही उत्तर मिला है की जब भी कोई धर्म की हानि करता है।तब मैं अवतार लेता हूँ यहाँ इस शाश्वत उद्धघोष का यथार्थ अर्थ है की “मैं” यानि नामो और अनाम से परे जो मूल स्त्री और पुरुष का प्रथम आत्म सम्बोधन है।वही जिसने ये सर्वप्रथम आत्मिक महाज्ञान की प्राप्ति की है।वह जब जब समयानुसार धर्म के चार पक्ष:-
अर्थ+काम+धर्म+मोक्ष का ज्ञान अपने ही प्रतिरुपो के विशाल समूह जिसे हम शिष्य या अनुयायी कहते है,उसे उस समय और भविष्य के मनुष्य समाज में प्रचलित करके जाता है और वही सिद्धांत समयानुसार अपने असल स्वरूप को खोकर धीरे धीरे भ्रमात्मक ओर पाखंडवाद दिखावे से भरपूर होते हुए अनेक शाखाओं में बंटते हुए विखण्डित होते जाते है और उनका स्वरूप बदल जाता है।मनचाहे अर्थ हो जाते है।जो स्वभाविक भी है।तभी वहीँ “मैं” यानि स्त्री अथवा पुरुष के रूप में अनादि सत्ता अपने अपने युगों में कालानुसार जन्म लेता है।अब वो चाहे भारत हो या अन्य देश हो।क्योकि ईश्वर अपने सम्पूर्ण और भिन्न भिन्न स्वरूपो में सम्पूर्ण पृथ्वी पर नित्य विद्यमान बना है।यो वो सभी जगह है और सभी मनुष्य जाति में है।तब वो कही भी ओर किसी भी मनुष्यकृत कथित प्रचलित जाति में जन्म ले सकता है।जहाँ से उसे अपना सिद्धांत फेलाना है और तब इसी का नांम उस आत्मा का “अवतरण” कहलाता है और यही यहाँ हुआ है की पुरुषवादी युग समाप्त और स्त्री युग प्रारम्भ है। और ये समय पुरुष का स्त्री को आत्म सहयोग देना है और वही वर्तमान में चल रहा है।और ध्यान रहे प्रत्येक पूर्व विचार और सिद्धांत सदा बना रहता है।वो मूल सिद्धांत से ही जन्मा है।बस उसमे जो विकृतिया आ गयी है उन्ही का संसोधन रूप वर्तमान है। यही सत्यास्मि धर्मग्रन्थ और उसमे वर्णित सिद्धासिद्ध मंत्र है। जो सम्पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष स्त्री और पुरुष का संयुक्त समन्वयक मंत्र यानि आत्म विज्ञानं से सम्पूर्ण आत्ममहामन्त्र है।यो ये सम्पूर्ण है यही त्रिकाल युगों का महातारक मंत्र है।जो किसी भी व्यक्तिवादिता और अवतारवादी सिद्धांत आदि से परे है और सभी स्त्री और पुरुष के लिए है।और सम्पूर्ण विज्ञानं युक्त और तर्क सम्मत है।यो,सत्य ॐ सिद्धायै नमः का सीधा सा अर्थ है कि- सत्य अनादि परम पुरुष है,जिसमे पुरुष के तीनो तम्-रज-सत् गुण स+त+य=सत्य उपस्थित है और ॐ अनादि है,ओर इस अनादि स्त्री शक्ति के तीन गुण सत्+रज+तम् यानि-अ+उ+म=ॐ है। यहाँ सत्य पुरुष में कोई परिवर्तन नही होता है,वैसे भी पुरुष में बीजदान करने पर भी कोई शारारिक परिवतर्न नहीं होता है,यो शास्त्रों ने पुरुष को स्थिर तत्व माना है और स्त्री में तीन परिवर्तन मुख्य है-1-युवती + 2-स्त्री + 3-माँ और स्त्री के माँ बन जाने से ही संतान सुख पाकर पुरुष पिता आदि सम्बन्धो में बंधता है अन्यथा वो मुक्त है।यही पुरुष तत्व को मुक्त कहा है और स्त्री को बंधन व् माया व् परिवर्तनशील प्रकर्ति व् चंचला नाम कहा है।यो स्त्री बन्धन से मुक्ति का कारक है यानी स्त्री से सम्बन्ध बंधन भी है और स्त्री से सम्बन्ध नहीं होने पर उससे मुक्ति भी है।यो स्त्री का बहिर ओर आंतरिक रूप से शारारिक स्वभाव परिवर्तनशील होने के कारण उसकी इस प्रकृति से यथार्थ मुक्त नही हो सकती है।यो ॐ स्त्री के त्रिगुणों का ओर मातृत्व भाव का मुख्य स्वरूप है,उसी कारण ॐ से ही समस्त वर्णाक्षर उतपन्न होने से ये सभी मंत्रो के प्रारम्भ में प्रयुक्त यानी शुरू में लगाया ओरलगकर जपा जाता है ओर जिन मंत्रों में ये शुरू में नहीं लगाया जाता है,वे स्त्री तत्व को हटाकर केवल पुरुष तत्व प्रधान मन्त्र होते है।और सिद्धायै माने सिद्ध अवस्था ओर सिद्धतत्व से भी परे का अर्थ है यानी सम्पूर्णता अथवा सिद्ध होना जो स्त्री+पुरुष के परस्पर प्रेम मिलन,रमण या एक होने का अर्थ है,की दोनों केस प्रेममिलन से उसी जैसे दोनों के स्त्री व् पुरुष और बीज रूपी सन्तान के रूप में सम्पूर्णता होने से ही ये नर नारी भरा संसार है यही स्त्री व् पुरुष के अलग अलग और प्रेम के एक से लेकर अनेक सम्बन्धी प्रेम के रूप प्रेम है यानि एक से अनेक तक का प्रेम सम्बन्ध ही एक अखण्ड ईश्वर से लेकर अनेक खण्ड ईश्वर के रूप में सम्पूर्णता या सिद्धि कहलाती है।यही सिद्धायै का अर्थ है।सिद्धायै में सात शब्द है।जो मनुष्य स्त्री व् पुरुष की कुंडलिनी के सात स्तर व् सात लोक है। इसमें तीन स्त्री के त्रिगुण है व् तीन पुरुष के त्रिगुण है और एक इन दोनों के मिलन से एक हुए एक्त्त्व रूपी प्रेम का स्वरूप है।जो इस प्रकार से सात अक्षर में बंटा हुआ है-1-स + 2-ई + 3-द + 4-ध + 5-आ + 6-य + 7-ऐ=सिद्धायै है।और ऐसे ही नमः का अर्थ है।कि नमः के रूप में स्त्री+पुरुष का प्रेम रूप,जहां दोनों प्रेम में एक है और यहाँ उनका अपने होने का अहंकारी बोध “मैं” भी नही है,की मैं हूँ यानी इस प्रेम अवस्था मे क्या है-केवल हम है।यो इस नमः नामक शब्द अवस्था में क्या अर्थ निकलता है-1-न + 2-म + 3-ह= नमः।यही की-न+म+ह=ना+मैं+हूँ अर्थात ना मैं हूँ-यानी इस नमः शब्द के अर्थ में कोई नहीं बचता है।जब नमः में केवल कोई नही है?तब यहाँ कौन है? तो जो स्त्री व् पुरुष परस्पर प्रेम ही ले रहे है और प्रेम ही एक दूसरे को दे रहे है।यो दोनों इस परस्पर प्रेम के आदान ओर प्रदान यानी प्रेम के लेन ओर देन करते समय अपना अपना अहंकार के साथ शारारिक ओर मानसिक होने का बोध को मिटाकर केवल प्रेम को,जो उन्हें सम्पूर्ण बनाता है,उसी अवस्था मे जो,दोनों के बीच यही यहाँ है यानी केवल प्रेम और तभी दोनों उस प्रेम अवस्था के चलते मिट गए है,केवल प्रेम बन गए है और यही दोनों का प्रेम का एक्त्त्व ही स्त्री+पुरुष की मैं रहित मूल बीज अवस्था है।जिसे वेदों में “एकोहम्” कहा है,की जब ना पुरुष यानि सत् था और ना स्त्री यानि असत् था।यानी तब न स्त्री थी और न पुरुष था यानी कुछ भी नही था,जो अपने होने का बोध करे।तब केवल चेतन्य शून्य था और मूल था।जो सदा से है और सदा रहता है जिसमे से हम सब आये है हम सब रहते है और अंत में उसी में समा जाते है यही है प्रलय या महाप्रलय अवस्था जो नमः है यही प्रेम की अवस्था ईश्वर है यही प्रेम की एकाकार अवस्था ही अद्धैत अवस्था है,जो अखण्ड अवस्था कहलाती है।ओर इसी स्त्री और पुरुष की केवल प्रेम की युगलावस्था मे से ही पुनः विक्षोभ होता है।जो यहां इस प्रेम अवस्था मे दो थे वे दो अब इस प्रेम अवस्था से अपने अपने स्वरूप में फिर से अलग होते है ओर अलग होकर फिर वही दोनों परस्पर एक दूसरे को अपनी जैसी ओर सृष्टि करने को लेकर सहमति देते और सहमति लेते हुए कहते है की एकोहम्बहुस्याम यानि अब मैं यानी हम एक से अनेक हो जाऊ और यही नमः या प्रेम अवस्था की मूल अवस्था बीज से फिर से स्त्री और पुरुष या सत और असत् का जन्म होता है और मूल बीज सदा रहता है यही है-इलेक्ट्रॉन+न्यूट्रान+प्रोटॉन यानि स्त्री+पुरुष+बीज और यही है सत्य + ॐ +सिद्धायै+नमः।
और इस सिद्धासिद्ध महामंत्र में ईं ही वो प्रेम की सृष्टि करती हुई अनादि शक्ति नांद या विस्फोट ऊर्जा है।यही स्त्री+पुरुष की संयुक्त मिलन व् रमण समय के समय की भी ओर उसके बाद सृष्टि करने के समय की भी ओर सृष्टि को लगातार चलाये रखने के समय कि भी की महा ऊर्जा शक्ति है जिसके उत्पन्न होते ही समय ,कॉल’ और समस्त वर्णाक्षर और देश, शब्द,रूप,रस,गन्ध,स्पर्श आदि गुण व् सम्प्रदाय आदि का उदय होता है।यही है-महाकुंडलिनी शक्ति-“ईं” और इस ईं का फटना यानि चतुर्थ दिशा में बटना चतुर्थ धर्म:- यानी अर्थ+काम+धर्म+मोक्ष के रूप में मनुष्य के चार कर्मो का ज्ञान ही चार वेद है।जो सनातन अनादि ॐ स्त्री ओर सत्य पुरुष ईश्वर ने मनुष्य को जीनव के चार सिद्धांत दिए है और यहां स्वाहा का अर्थ है की,ये स्त्री पुरुष के रूप में जीवंत संसार और उसमे उन दोनों के चार मुख्य धर्म ओर चार मुख्य कर्मों का सम्पूर्ण विस्तार जो वेद कहलाते है उन चार धर्म कर्म वेदों का 108 रूप में विस्तार होना ही उपनिषिद्ध है ओर यही इस महामंत्र के शब्द और अर्थ के रूप में ज्ञान विस्तार ही सत्यास्मि धर्म की महानता व् सम्पूर्णता को आज दर्शाता है जिसे जानकर सभी को अपना चाहिए और सभी सब प्रचलित भ्रमात्मक पूजा पद्धतियों को छोड़कर इसे ही अपनाएंगे भी।।
और इसी महाज्ञान से आप सबको सहज ही समझ आ गया होगा कि आखिर कैसे संसार के सर्वधर्म और उनके मंत्र व् उनके घोषो का विलय इस ज्ञान के मध्यम से सत्यास्मि सिद्धांत में होता है,आओ इसे समझे की👉
👉प्रश्न- पहले इस बात को समझे कि कौन मानता व ये जानता है की ईश्वर है?
👉उत्तर-वो है आप।
👉प्रश्न-कौन ईश्वर के निराकार व् साकार रूप अरूप को ध्यान करता है?
👉उत्तर-वो है आप।
👉प्रश्न-कौन है जो ईश्वर का आत्मसाक्षात्कार पाने के बाद बचता है?
👉उत्तर है-वो है आप।
👉प्रश्न-इस सब ईश्वर आदि की प्राप्ति के बाद कौन में ईश्वर समाता और ईश्वर और आप यानी कि मैं एक है,ये आत्मानुभूति कौन करता है?
👉उत्तर है-वो है आप।
👉प्रश्न-अब बताओ की एक ईश्वर या अल्लाह के सिवा इस संसार में कौन है?जो इन तीन स्थितियों का अनुभव कर शेष रहता है यानी कि 1- इनकी उपस्थिति का अनुभव कोन करता है और 2-इनकी प्राप्ति का अनुभव कोन करता है और 3-इनकी प्राप्ति के बाद का अनुभव करता हुआ कोन शेष है?
👉तो उत्तर है-वो आप ही है। आपके सिवा कोई और नही है जो ये कहता और अनुभव करता है ओर अंत मे बचता है। यो आप ही वो ईश्वर-अल्लाह-गॉड-वाहे गुरु और एक सत् नाम यानि मैं हो।
👉यो आप स्त्री अथवा पुरुष ही शाश्वत और सदैव और सिद्ध व् सम्पूर्ण हो और स्वयं ही इसके मानने वाले ओर जानने वाले और अंत मे इस सब ज्ञान को पाने वाले एक मात्र सत्य सनातन हो। यही है एकोहम् और अहम ब्रह्मास्मि से भी सर्वोच्चतम अवस्था की प्राप्ति -अहम् सत्यास्मि-मैं ही सनातन और शाश्वत सत्य हूँ।।
यही सत्यास्मि धर्मग्रन्थ है और यही सिद्धासिद्धमहामंत्र ओर उसका सम्पूर्ण अर्थ है।।
अब समझ आ गया होगा कि सत्यास्मि धर्म ग्रँथ ओर सिद्धासिद्ध महामंत्र की सनातन प्राचीनता ओर शाश्वतता कैसे सम्पूर्ण है,तो,,
।।पढ़ो इसे बार बार-करो और सम्पूर्णता पाओ।।
।और सत्यास्मि उद्धघोष है-अपनी और लोटो।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट् स्वाहा
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
Www.satyasmeemission.org