रेहि क्रिया का अर्थ व उपयोग

रेहि क्रिया का अर्थ व उपयोग बताता हु-

अपने को जाने के दो मार्ग है,गुरु से ज्ञान व उसकी प्राप्ति का क्रिया योग विद्या प्राप्ति करके उसके आरोह अवरोह की रेहि क्रिया यानी मैं कोन हूं व ये दूसरा कौन है और हमारा संसारी भौतिक भोगात्मक ओर आंतरिक पूर्वजन्मों के सूक्ष्म कर्म सम्बधों रूपी आध्यात्मिक परस्पर सम्बन्ध क्या है? इस संसार मे क्यूँ आये और क्या दायित्व है?ओर इससे कैसे पूरा करते अपने अपने मे ही बने रहकर प्रेम प्राप्त करें,?ये आरोह रूपी क्रिया योग अभ्यास है,जिसमे पहले गुरु में फिर गुरु से प्राप्त शक्ति को अपने ओर दूसरे गुरु रूपी विभक्ति को एक करने की क्रिया की जाती है,जो बह्मचर्य यानी ये ब्रह्म ओर उसके चार भाग में तीन 1-अर्थ-फिर काम यानी कर्म और उसकी दो के रूप में क्रिया क्या है, फिर इस सबका परस्पर सम्बन्ध धर्म क्या है,ये प्राप्ति की जाती है,तब चौथी मोक्ष की प्राप्ति के लिए पूर्व तीन कर्मो का पालन करते हुए गुरु के बाद उस प्रेममयी संसार में अपना विपरीत लिंगी से एकीकरण की क्रिया का ग्रहस्थ में भोग और योग का समिश्रण अभ्यास करते रेहि क्रिया अभ्यास किया जाता है,उसकी संयुक्त ऊर्जा को अपबे में एक किया जाता है।यही वेद का अपनी आत्मा को जानो उसकी प्रावस्था को प्राप्त करो जो तुम्हारा ही अनन्त विस्तार रूप परमात्मा अर्थ है।
ओर अवरोह का अर्थ है की इस सब कमो को सही प्रेंममयी दायित्वों के साथ निर्वाह करते अपने मे कैसे सिमटे यानी उस मैं की अक्षय ओर अनन्त से एक अवस्था में कैसे जाया जाए,ये अवरोह रूपी वापसी का क्रिया योग अभ्यास मोक्ष है।
यही आरोह अवरोह का अभ्यास यानी कर्म क्रिया ही रेहि का आरोह अवरोह मंथन कहलाता है।
यही राजयोग के अष्टांग योग यम नियम आदि है और यही भक्ति योग की नवधा भक्ति के स्मरण कीर्तन से आत्मनिवेदन है।
जो रेहि क्रिया योग मेने तुम्हे बता रखा है,वो नियमित करे जाओ,तब तुम मूलाधार चक्र में प्रवेश करोगे ओर वहाँ चार अर्थ काम धर्म मोक्ष के सबसे सम्बन्धों का धीरे धीरे पूर्व जन्म से वर्तमान जन्म तक के जमी दही रूपी कर्म को शरीर रूपी मटके में रेहि चलाने की तरहाँ काट देगा,ओर अभ्यास को दिए समयनुसार भौतिक जगत की इच्छाओं की कर्तव्य करने के लिये सही से पूर्ति करता हुआ अपने ही आत्मतत्व को प्राप्त होता है,अब चाहे अपने मे करो या किसी भी दूसरे को आसरा लेकर करो,क्योकि परिवार का पालन लिया है,तो उसके दायित्वों से नही भागना चाहिए,ये रेहि क्रिया योग का अभ्यास अपनी पत्नी बच्चे में अपनी ओर से या उनकी ओर से करते हुए दोहराने की क्रिया करने से अपने से जुड़े परिवार के लोगा का भी जन्मों जन्मों का कर्म रूपी बंधन है,वो सही रूप से पूरा होता हुआ,अपने निस्वार्थ प्रेम को प्राप्त होता है और आप इन सब बन्धनों से मुक्त होते हो,तब जब रेहि क्रिया योग करते हुए अपने मूलाधार चक्र से ऊपर आओगे,तब तुम्हे स्वाधिष्ठान चक्र में स्थिति प्राप्त होगी,उससे तुम्हे सही से मैं कौन हूं?और मेरा क्या इस संसार रूपी रिश्तों में कर्तव्य रूपी कर्म सम्बन्ध है,उसके दायित्वों को निर्लिप्त भाव से कैसे करूँ,ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तरों में प्रवेश मिलेगा।कुछ उत्तर समझ जाएंगे और कुछ नहीं,यानी अन्तर्वाणी बढ़ने लगेगी।
अब जब स्वाधिष्ठान चक्र से ऊपर आकर नाभि चक्र में प्रवेश करोगे,तब तुम्हे अपने ओर अपने से जुड़े लोगों के कर्म और उसके जुड़े होने के अन्नतजन्मो के कारण रिश्ते स्पष्ट समझ जाएंगे,तब तुम उन्हें साक्षी भाव के विकास होने की प्रक्रिया के चलते समझते चलोगे ओर ज्यो ज्यो ये सब परिवारिक व सामाजिक कर्म बंधन की रस्सियां का बंधन रेहि क्रिया से शुद्ध होकर होता चलेगा,त्यों त्यों तुम्हारी अंतर्दृष्टि का विकास होता चलेगा ओर इस प्रेममयी सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य और उसमे तुम्हारी भागीदारी क्या है,समझ मे आने लगेगी।यही है नाभि चक्र में इस संसार रूपी सम्बन्धों की सृष्टि को जानने की सिद्धि का अर्थ।
ओर जब रेहि क्रिया करते चलते उससे उत्पन्न ऊर्जा शक्ति का ह्रदय चक्र में प्रवेश होगा,तब ये जो मैं ओर कोई दूसरा है,इससे मेरा केवल भोगों तक ही मतलबे सम्बन्ध है,ये भाव मिटने लगेगा,अंदर एक शुद्ध से विशुद्ध गलन कि प्रक्रिया बढ़ने लगेगी,ठीक इसी अवस्था मे ही हमने ये हमारे सभी सम्बन्धों के जो बीच दो का भाव और अभाव है,ये सम्बन्ध शुद्ध होकर रस पूर्ण भक्ति भाव को प्राप्त होता है,तभी सब मेरे है,ये सच्चे भाव से समझ आकर अपने संसारी दायित्यों का प्रेम और रसिक भाव से बिन बदले के पूरा करते चलोगे ओर इस सब कर्तव्यों के करने बिन मांग के पूर्ति का सच्चा सरस् रसिक भाव भक्ति का उदय होता और उसका बिना आरोप प्रत्यारोप के पालन करते हो,यही समझ आता है कि-सब मेरे ही है,कोई पराया नही है,तब अहेतुक प्रेमाभक्ति के साथ रसिक हो जाओगे,सभी अवस्थाओं में आपको आनन्द ही आएगा।हर अच्छे या बुरे शब्द का केवल रसिक ही अर्थ तुम्हारे अंदर उत्पन्न ओर संसार के सारे रिश्तों में बहेगा,केवल प्रेम ही करना देना प्रारम्भ करोगे,कोई मन मे विक्षोभ नही रह जायेगा,ये मेरे आत्मरूपी भगवान की रसिक लीला है,यानी मैं ही इस रसिक लीला का जनक हूँ, तभी ग्रहस्थ जीवन का भोग हो या ब्रह्मचर्य का योग हो दोनो का पालन प्रेम रसिक भाव से ही होगा।ये है ह्रदय चक्र तक का रेहि क्रिया योग से तेजी से सफर,इससे आगे कंठ चक्र केवल प्रेम के शब्दों को ही अपने से निकालता है,कभी अपशब्द उपेक्षा के शब्द नीरस वाणी नही निकलती है,तभी सभी वाणी के विष दोष इस कण्ठ से निकलते ही नही,यो भगवान शिव के गले मे नीलकंठ का अर्थ समझ में आता है,की संसार मे समस्त बुरे अपशब्दों से जो विष रूपी शाप फैला है,वो अब गले से कभी नीचे ह्रदय में नही उतरेगा ओर न ही वो गले से बाहर आएगा किसी को शाप देने के लिए,क्योकि सब अपने ही स्वरूप है,तब मैं अपने को कैसे शाप दूँ।
यही है आज्ञाचक्र पर पहुँचकर ओरण चेतन्य अवस्था की एटीएम रूपी स्वयं को आज्ञा ओर अवज्ञा की क्रिया प्रतिक्रिया से परे केवल निर्लिप्त महाभाव में साक्षी रहना,यही शाम्भवी मुद्रा यानी भौतिक स्थूल संसार में भी समान रहना और आध्यात्मिक यानी सूक्ष्म संसार मे भी कर्म कर्तव्य करते समान प्रेम में रहना की प्राप्ति ओर समापन है।अब केवल प्रेम ही प्रेम है,यही सर्वत्र जब बहता अनुभव होता है,यही सहस्त्रों रूप में अनन्त साकार निराकार अपने ही प्रेम रूपों में बहता है,यही प्रेम अपने से सभी मे जाता दिखना सृष्टि है और यही सबसे अपने मे आता दिख केवल एक मैं ही इस प्रेम का लेता देता भोगता ओर इस सबसे पर शेष हूं,
यही अम्रत गंगा बहने का सहस्त्रार चक्र से अर्थ है।ओर अपना आत्मसाक्षात्कार है।

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