यज्ञ का मनुष्य जीवन मे क्या महत्त्व है

यज्ञ का मनुष्य जीवन मे क्या महत्त्व है

इस विषय पर बताते हुए सदगुरुदेव श्री स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी कहते है कि,

यज्ञ का अर्थ या तात्पर्य क्या है:-

सत्यास्मि धर्म ग्रँथ के अनुसार:-

यज्ञ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- आहुति,चढ़ावा।
यज्ञ दो अक्षर से बना है-य यानी यजमान यानी यज्ञ करने वाला व्यक्ति ओर ज्ञ यानी ज्ञेय अर्थात जानने के योग्य-2-जिसे जाना जा सके-3-जिसे जानना आवश्यक हो। यो सीधा अर्थ हुआ कि-वो व्यक्ति जो भी है,वो कौन ओर क्या ओर उसका कर्म क्या व कैसे आदि है यानी उसका व्यक्तित्व क्या है,सीधी भाषा में अपने को जानना की,मैं कौन हूँ?इस जानने में जो कुछ अंदर बाहर का सम्बन्ध है,उस कर्म करने को यज्ञ कहते है।
इसके दो भाग है:-
1-मनुष्य पंचतत्वों से बना है जो सूक्ष्म और स्थूल रूप में होते है।पंचतत्व-1-पृथ्वी-2-जल-3-अग्नि-4-वायु-5-आकाश।
इनके समिश्रण से मनुष्य ओर उसका रूप बना है।मनुष्य में इन्हीं पंच तत्वों के पांच चक्र स्थान है-1-मूलाधार चक्र यहां पृथ्वी तत्व है-2-स्वाधिष्ठान चक्र यहां जल तत्व है-3-नाभि चक्र यहाँअग्नि तत्व है-4-ह्रदय चक्र यहां वायु तत्व है-5-कंठ चक्र यहां आकाश तत्व है यो जब इन पंचतत्वों का परस्पर मेल करते है यानी इनका एक दूसरे में आहुति करते है तो ये कर्म करना मनुष्य का स्वयं को जानने का आंतरिक यज्ञ कहलाता है।जिससे उसकी कुंडलिनी जाग्रत होती है,जो एक पंचतत्वों की समल्लित शक्ति की ऊर्जा है,जो अग्नि स्वरूप होती है।
उस समय व्यक्ति खुद यज्ञकुंड बन जाता है।जिसमे मूलाधार चक्र यानी मनुष्य का फाउंडेशन यानी आधार नीचे से बन्द हो जाता है,जिसे योग भाषा मे मूलबन्ध लगना कहते है।जैसे यज्ञ करते में भूमि पर चार कोणों वाली एक वेदी बनाते है,जिसके चार कोण-1-अर्थ-2-काम-3-धर्म-4-मोक्ष या-1-ब्रह्मचर्य-2-ग्रहस्थ-3- वानप्रस्थ-4-संयास का रूप होते है।
यो मूलाधार चक्र से ह्रदय चक्र तक चार कोण बनते है और पाचवां कंठ चक्र इन चारों का मध्य या बीच होता है,जिसमें ये कुंडलिनी उर्ध्वगामी होकर अग्नि स्वरूप उठती है,जिसमे जो भी भाव या इच्छा आहुति यानी डालोगे वही पूर्ण होगी यानी प्राप्त होगी जो मनुष्य के छठे चक्र आज्ञाचक्र के रूप में दिखती है यानी जो आज्ञा करोगे वही सिद्ध होगा।यहां मनुष्य का आंतरिक भाव एक एक आहुति बनकर डलता या डाला जाता है जो पककर उसे पूरा होकर प्राप्त होता है।यो इस आंतरिक यज्ञ में-मनुष्य-1-यज्ञमान बनता है-2-अपनी पंचतत्वों की अग्नि को प्रज्वलित करता है जिसकी एक महाउर्जा बनती है-कुंडलिनी अग्नि-3-उसमें एक एक करके अपनी पांच लौकिक व अलौकिक इच्छाये या मनोकामनाओ की आहुति डालता है-4-वे सभी इच्छाएं क्रमबद्ध रूप से अपनी क्रिया में आती है यानी एक्टिवेट होती है-5-ओर फिर वे हमें मनोरथ का परिणाम वरदान बनकर प्राप्त होती है।यही सब आत्मयज्ञ कहलाता है।यही सब महाविधि रेहीक्रियायोग कहलाती है।
2-बाहरी यज्ञ प्रणाली:-इसमे भी पंचतत्वो की आहुति दी जाती है,-1-पहले भूमि पर चार कोणीय यज्ञकुंड बनाते है-2-उसमें भूमितत्व से उपजी विभिन्न औषधियुक्त लकड़ियां-जैसे-आम की लकड़ियां-पीपल-वट-अशोक- तुलसी आदि की लकड़ियां डालकर उन्हें कपूर जो अग्नि तत्व का रूप है उससे प्रज्वलित किया जाता है-3-मनुष्य के पास जो जीव है-1-गाय-2-भैंस-3-बकरी का घी उससे ओर विभिन्न औषधियों से बनी सामग्रियों को समल्लित करके अपनी मनोकामना कहते हुए उस अग्नि में आहुति यानी भेंट श्रद्धाभाव से डाली या चढ़ाई जाती है,की वो हमारी ही आत्मा के परमस्वरूप परमात्मा यानी पूर्ण आत्मा को प्राप्त हो और हमें उस पूर्णतत्व से हमारा मनोरथ की वरदान रूप में प्राप्ति हो।यही सब बाहरी क्रियायोग ही बाहरी यज्ञानुष्ठान कहलाता है।
बाहरी यज्ञ से साधक यानी यजमान की 5 साधना क्रियाएं पूर्ण होती है-1-एक जगहां अधिक देर तक बैठने की क्षमता की बढ़ोतरी जिससे उसे आसन सिद्धि होती है-2-मन की बाहरी ओर आंतरिक दोनों धाराओं का एक होकर पूर्ण एकाग्रचित होना-जिसमे मन की एकाग्रता को सभी विचारों की काट को एक शब्द का निरंतर उच्चारण करना,जिसे हम मंत्र कहते है-दूसरा-अग्नि के रूप यानी तेज को देखते उसकी ज्योति का कभी बाहर तो कभी अंदर ध्यान करना-यहां अंतर ओर बहिर त्राटक क्रिया ओर शाम्भवी मुद्रा की सिद्धि होती है-तीसरा-रस-मन की एकाग्रता जयों जयों बढ़ती जाती है,त्यों त्यों साधक के अंदर उसके पंचतत्वों से बने सभी पदार्थो का मिश्रण होकर एक ओज बनता है,जिसे मन्त्रवीर्य कहते है,उसका रस स्वाद उत्पन्न होने लगता है,जिससे यज्ञकर्ता को आंतरिक आनन्द उत्पन्न होता है,वहीं बैठे रहकर उस क्रिया में अद्धभुत आनन्द रस आता है,मगन रहता है-चौथा-गंध-यज्ञ में चढ़ाई दिव्य औषधियां गल जल कर अपने सूक्ष्म रूप को प्राप्त होने पर एक संयुक्त गन्ध उत्पन्न करती है,जिससे साधक की सांस के साथ शरीर में अंदर जाने पर प्राण शक्ति बढ़ती है,जिससे उसे स्वास्थ्यता आरोग्यता की प्राप्ति होती है-पांचवा-उसे इस सब अनुभूतियों से एक दिव्य प्रकृति की शक्तियों का स्पर्श की प्राप्ति होती है,जो उसके बाहरी शरीर और आंतरिक शरीर के साथ मेल करके उसके ओरामण्डल को बलवान व तेजयुक्त बनाती है।
यही यज्ञ का असली अर्थ है।

ओर आजकल प्रचलित यज्ञ का अर्थानुसार:-
यज्ञ का तात्पर्य होता है- 1-त्याग, 2-बलिदान,3-शुभ कर्म। अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान् सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से हम सब जीवो को आरोग्यवर्धक साँस प्राण लेने का अवसर मिलता है।

यज्ञ करने से क्या लाभ है:-

सहज सरल और प्रतिदिन किया जाने वाला यज्ञ है ‘अग्निहोत्र’। अग्निहोत्र नियमित करने से वातावरण की शुद्धि होती है। इतना ही नहीं, उसे करने वाले व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि भी होती है। साथ ही वास्तु और पर्यावरण की भी रक्षा होती है।

पांच यज्ञ कौन कौन से हैं:-

1-ऋभुयज्ञ,2-ब्रह्मयज्ञ,3-भूतयज्ञ,4-मनुष्‍ययज्ञ और-5-पितृयज्ञ– ये पंच यज्ञ कहलाते हैं।
यज्ञ के चार अंग माने गए हैं- 1-‘स्नान’, 2-दान’,3-‘होम’ तथा-4- ‘जप’।ओर इसके भी पाँच प्रकार बताये गए हैं-
1-लोक-2-क्रिया-3-सनातन गृह-4-पंचभूत-5-मनुष्य,,

यज्ञ की उत्पत्ति के विषय मे:-

शास्त्रों में इस प्रकार कहा है कि प्रजापति ने यज्ञ को मनुष्य के साथ जुड़वा भाई की तरह पैदा किया और यह व्यवस्था की, कि एक दूसरे का अभिवर्धन करते हुए दोनों फलें-फूलें ओर सदा एक दूसरे को लाभदायक सिद्ध हो।
ओर वैदिक यज्ञों में ‘अश्वमेध यज्ञ’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यो यज्ञ मनुष्य के साथ उसके आंतरिक ओर बाहरी शक्तियों के कर्म के रूप में उसके साथ ही जन्मा है,जैसे मनुष्य के सभी कर्म और उसके फल जन्मे है।

सभी यज्ञ के मूल में ये मनुष्य की आंतरिक कुंडलिनी जागरण का ही विधिवत क्रियायोग है।

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
Www.satyasmeemission.org

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