मूलबंध उड्डियाँबन्ध जालंधर का प्राणमय कोष से कुंडलिनी जागरण में कैसे उपयोग जाने,,
बता रहें है,महायोगी स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी,,,
प्राचीन काल से ही चित्त की सम्पूर्ण एकाग्रता की प्राप्ति में तीनों बन्धो का लगना अनुभव में आया,यो योग के मुख्यतर दो भाग हो गए,एक मे ऐसे योगी को देखा जो कि,साधनाकाल में गुरु व इष्ट कृपा शक्ति से मन की आंतरिक दशा में प्रवेश कर गए,तब उन्हें स्वमेव लगने वाले इन तीनो बन्धों ओर उपबन्धों के उनके शरीर मे साक्षात अनुभव हुए,पता करने पर पता चला कि,जब पैरों से ऊर्जा ऊपर की ओर खींचती है,तब मूलाधार चक्र में बार बार मूलबंध लगता छुटता रहता है,
(मूलबंध-में जैसे आप पेशाब करने को बैठते है,तब अचानक उठना पड़ जाए तो,आप अपनी लिंग या योनि इंद्री की मांसपेशियों को सिकोड़ लेते हो और आपका पेशाब अंदर से आना बंद हो जाता है,यही अपनी लिंग या योनि की मांसपेशियों को स्वेच्छा से सिकोड़ना ओर छोड़ने की कला को अश्वमुद्रा भी कहते है,जैसे घोड़ा भी पेशाब करते में बार बार अपने लिंग का आकुंचन यानी छोड़ना खींचना करके अपना यूरिन को बाहर निकलता है,यही योग में स्वयं ही प्राणों के अंदर बाहर होने से आपकी लिंग ओर गुदा के बीच की नाड़ियों के खिंचाव से ये बंध लगता है,यही मूलबंध कहलाता है)

अब साथ ही आगे बढ़ने पर अचानक मूलबंध लगने के साथ ही उड़ियांबन्ध भी लगता है यानी की पहले ध्यान लगाते ही,प्राण ऊर्जा की गति भस्त्रिका की कभी धीमी तो कभी जोर से चलने पर अचानक से मूलाधार से प्राणऊर्जा का ऊपर को खींचना होने पर पहले मूलबंध लगकर सांस जोर से खींचकर पेट अंदर को खींचने लगता है और बार बार अंदर ओर बाहर को खींचता फिर फूलता सा रहता है,
(पेट मे प्राणवायु ओर अपान वायु का आपकी नाभि चक्र के आसपास से कभी नाभि के अंदर को, तो कभी ऊपर को ह्रदय की ओर, तो कभी वापस आपकी जनेन्द्रिय की ओर आने जाने से,आपका पेट आपकी रीढ़ की ओर खींचकर वहीं कुछ या देर तक रुकता है,यही उड़ियांबन्ध है,यानी उड्ड का अर्थ है,प्राण रूपी वायु का ऊपर को उड़ना या उठना+ यान का अर्थ है-अंदर के जगत में वायु का गति करना या विचरण करना=बंध का अर्थ है-इस अवस्था मे रुके रहना।ये उड्डीयानबन्ध कहलाता है)

और कभी कभी जोर से अंदर खींचकर अचानक से सांस रुक करके गले मे भी तेज खिंचाव होकर गर्दर्न में बंध सा लग कर साधक का चेहरा भी, कुछ नीचे वक्षस्थल की ओर को होता जाता है।ओर साथ ही गले मे सांस के रुकने से एक डंटक सी लग कर छूट जाती है।
(ये अवस्था ही जलंधरबन्ध यानी गले मे जो नाड़ियों का जाल है,उसका निरोध हो जाना यानी जो प्राणों की गति मूलाधार से मूलबंध लगकर ऊपर उठी और फिर वह प्राणवायु नाभिचक्र से गुजरती वहां रुककर उड्डीयानबन्ध के लगने से स्थिर होकर व ओर शुद्ध होकर अब ह्रदय चक्र से गुजरती व वहां शुद्ध होकर स्थिर हो,ओर नीचे के पांचों चक्र शुद्ध होवें ओर खुले ओर वहां के दर्शन अनुभूतियां आदि बढ़े,यो गले की सभी नाड़ियों में जाल का बंध लग जाता है,यही जालंधर बंध कहलाता है)

ऐसा उस साधक योगी के साथ अनेक वर्षों तक होता रहता है,फिर गुरु या ईश्वर इष्ट प्रेम में ओर भी व्याकुलता बढ़ती जाने पर ये सब एक साथ बंध लगते है और सांस रुक जाती है,इस बार बार लगातार के प्राणों के ऊपर चढ़ने उतरने के घर्षण से अंदर प्रकाश के दर्शन और रूप के दर्शन रस और रास का,विचित्र गन्ध का अनुभव बढ़ता है,इसका कभी बाहर पता चलता है,तो कभी गहन ध्यान के कारण नही भी पता चलता या दूसरे बताते है,की तुम्हारे आसपास ऐसी ऊर्जा तेज आकर्षण का हमे अनुभव होता है।यही उस साधक के सब आसपास के साधक जिज्ञासुओं के निरक्षणो से ये निष्कर्ष निकाला कि,ये तीन बंध तो है ही,साथ में जब इस अवस्था मे योगी की जीभ भी चटकारे की आवाज के साथ तालु की ओर उठती है और वहां रुकती भी है।
ऐसे ही आंखों का ऊपर को चढ़ना ओर अज्ञान चक्र की ओर स्थिर हो जाना आदि मिलाकर,यही अनेक उपबन्ध भी घटित होते है।
यो बाहरी साधकों ने ऐसे ही लक्षणों को अपने अंदर कैसे घटित किया जाये,तब एक अलग योग की प्रणाली का विकास किया,जो प्राणायाम कहलाती है।
की पहले मन निर्मल ओर वैरागी या रागी बने यो,मन की पवित्रता को प्रमुख स्थान दिया,जिसमें पांच यम ओर नियम बनाये की,सच्च बोलो,किसी को मन तन नही दुखाओं, आवश्यकता से अधिक धन सामान नहीं जोड़ो,लोगो की सहायता को हर प्रकार से जो बने दान दो,व किसी भी जीव की हत्या नहीं करो कि जबतक अपने प्राणों पर नहीं बन आयें, ओर यदि ऐसा हो तो प्रायश्चित करो आदि आदि,ओर ऐसे ही गृहस्थी जीवन मे भी एक व्रती बनने को,परस्पर विवाह के सात नियम वचनों को पक्की तरहां निभाया जाएं, की उच्चतर प्रेम की दिव्यता की प्राप्ति होवे ओर दिव्य प्रेम सिद्ध हो यो,एक पत्नी,एक पतिव्रता के महाभाव का सभी कर्मो से बढावें का भौतिक और आध्यात्मिक स्तर के कर्मो को साधते ओर परस्पर सधवाने में सम्पूर्ण प्रयास करते हुए उच्चतर विकास किया गया।फिर इन कर्मो से मन की पवित्रता बढ़ेगी तो,मन एकाग्र होगा और स्थिरता की प्राप्ति करेगा।इस सबको साधने से शरीर की सभी इंद्रियां शांत हो यो,उस तन की स्थिरता को एक सहज सरल आसन में बहुत अधिक देर तक बैठने का अभ्यास बढ़ाया गया।जब मन मे पवित्रता बढ़ी ओर तन की इंद्रियां स्थिर हुई तो,मन की अंतर्मुखी वृति का विकास होना प्रारम्भ हुआ।जिससे अब बाहर की ओर जो प्राणों की गति ज्यादा हो रही थी वो,अब अंदर की ओर बढ़ने लगी,परिणाम ये तीनो बन्धों के लगने का शरीर मे विकास होने लगा।
ओर जब ये तीनो बंध लगकर बढ़ने लगे तो,धीरे धीरे पंचतत्वों-जिनसे ये बहिर स्थूल शरीर बना है और अंदर का सूक्ष्म शरीर यानी प्राण शरीर बना है,उसका शोधन होने लगा और फिर पंचतत्वों के सूक्ष्म गुणों-रूप,रस,गन्ध,स्पर्श,शब्द का अनुभव के साथ दर्शन भी होने लगा,अब चित्त ओर भी सूक्ष्म होता गया,नतीजा जो सांस अंदर ओर बाहर को आ जा रही थी,ओर जो उसका काम था,शरीर और प्राण शरीर के बनाएं रखने में खर्च होना,वो कम से होकर बन्द हो गया यानी रुक गया,यो ऐसा होते ही,प्राण की गति थम यानी रुक गयी और एक अल्पकालीन समाधि की प्राप्ति हई ओर जल्द ही टूट गयी। ऐसे ही ये सब कर्मो के चलते समाधि भी बढ़ती जाती है और वहां से आगे सविकल्प ओर फिर निर्विकल्प ओर आगे सर्वव्यापकता में लीन होना और स्वयं की सर्वत्र अनुभूति व स्थिरता की प्राप्ति हो मोक्ष व आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है।यहां से आगे अतिदुर्लभ अवस्था,समस्त सम्पूर्ण प्रकृति को वशीभूत कर स्वजन्मा और अवतारवाद सिद्धांत है।
इसे बार बार पढ़ो समझो ओर उच्चतर सम्पूर्ण योग ज्ञान को समझ साधना करो और अहम सत्यास्मि में स्थिर हो जाओ।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
महायोगी स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
Www.satyasmeemission.org