खेचरी मुद्रा का सच्चा रहस्य को बता रहे है,सिद्धबाबा स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…
खेचरी का अर्थ दो शब्दों से बना है,खे माने आकाश तत्व ओर चरी माने विचरण या संयम करना,अर्थात आकाश तत्व में धारणा+ध्यान+ समाधि=संयम करने की स्थिति में सिद्ध हो जाने और खेचरी कहते है।
खेचरी मुद्रा के विषय मे भ्रमात्मक धारणा बड़ी भारी संख्या में तरहां तरहां की साधनागत किवदंती फैली पड़ी है।जैसे-की पहले जीभ को घी आदि लगाकर गाय के थन की भांति अंगूठे ओर तर्जनी उंगली से पकड़ कर दोहे यानी बार बार बाहर की ओर खिंचे,इससे जीभ लम्बी हो कर पहले तालु में फिर ओर लम्बी होकर गले के अंदर से नाक के छिद्रो में जाकर लगेगी,ओर साथ ही जीभ को नीचे तालु में से सेंधा नमक आदि लगा कर फिर अरहर के पत्ते से रत्ती रत्ती भर एक एक माह के अंतराल से काटते जाए और तब जीभ को तालु मूल में लगाये रखने के साथ साथ आज्ञा चक्र में एक तेजोमय बिंदु की कल्पना करके उसने अपनी चित्त की व्रती को लगाए रखने पर समाधि की प्राप्ति होती है,इन मूर्खो से ये पूछे कि-ये कल्पना का सूत्र इन्हें बच्चे के जन्म के समय उसकी जीभ तालु में लगी होने,ओर उसे दाई आदि उंगली से बाहर को खींच कर साफ करती है,तब बच्चे को बाहर का दूध आहार और बोलने की छमता की प्राप्ति होती है।इस अवस्था से मिला है,की यो ही बच्चा माँ के गर्भ में नो महीने समाधि की स्थिति में पड़ा रहता है,इन मूर्खो को ये भी देखना चाहिए कि,तब बच्चा माँ की नाभि नाल से पोषित होता ओर सांस आदि लेता है,वो भी तो काटी जाती है,चलो जीभ का तो ये काटकर उपाय कर लिया,पर तब इस नाभि नाल को,जो कि अब बन्द है,उसे कैसे ओर क्या करके खोलेंगे?तब तो सबसे पहले नाभि नाल का इंतजाम करना चाहिए?जो कि आता नहीं है,यो इन बकवासों पर चिंतन करके त्यागे ओर सच्चे योग विज्ञान को पकड़े।
असल मे समाधि का विषय मन से है,ओर उसे ओर इसकी बाहरी ओर आंतरिक वर्ति को एक सूत्र में किये बिना कुछ भी नहीं हो सकता है।
आत्मा की अनन्त इच्छाओं के एकत्र समूह का नाम मन है,ओर मन यानी इच्छाओ ने ये शरीर को धारण किया है,यो सत्संग कहता है कि-
मन सधा तो सब सधे।
मन नहीं सधा तो सब गधे।।
यो जब यम नियम आसन प्राणायाम से मन की शुद्धि होती चलती है,तब मन की दोनों वृतियां एकाग्र रहने लगती है,तब मन की तीन स्थिति बनती है।ओर उससे मन से नियंत्रित होने वाली नेत्र ओर उनकी शक्ति भी नियंत्रित ओर विस्त्रित होती है,यही अवस्था मे साधको को तीन प्रकार का ध्यान होता है।
1-मूलाधार चक्र से लेकर नाभि चक्र तक ध्यान एकाग्र होने से साधक के ध्यानस्थ नेत्र अंतर्मुखी होकर भूमि तत्व और उसके भोग दर्शन तथा स्वाधिष्ठान चक्र से विभिन्न प्रकार के जल तत्वों ओर उससे बने प्रकर्ति दर्शन व अनुभव होते है।तब साथ ही साथ अपने आप होने वाली यानी अंदर के अपान ओर प्राणों के परस्पर एक होने की संघर्ष क्रिया से बनी मंदी, फिर तेज भस्त्रिका शरीर मे होने लगती है,जिससे शरीर मे पेट के भाग में घुमेर होती होने से नोलि जैसी क्रिया ओर मूल बंध लगने लगते है।रुक रुक कर कुम्भक भी होता है।
2:- नाभि चक्र से ह्रदय चक्र तक कि ध्यान दृष्टि लगनी ओर तब इस ध्यान मेंअग्नि तत्व ओर उसके समिश्रण से बने द्रश्य के दर्शन ओर गुणों का अनुभव आदि होना होता है।यहां का विषय साकार या निराकार मंत्र के ओर उससे सम्बन्धित इष्ट आदि के दर्शन होते है।
ओर फिर आता है कंठ चक्र से ऊपर आज्ञा चक्र तक का ध्यान एकाग्र होने से तब जितनी भी शारारिक इन्द्रियाँ है,वे भी साधक के मन के उर्ध्वगामी यानी ऊपर की ओर उठने से, प्राणों के साथ साथ प्राणों द्धारा नियंत्रित अंग भी उर्ध्वगामी यानी ऊपर की ओर उठ जाते है,चाहे जीभ हो,वो उठकर मुँह के तालु में स्वमेव जा लगेगी,ओर आंखे बिना किसी प्रयास के स्वयं ही आज्ञा चक्र की ओर त्राटक बना लेंगी,ओर मन की वर्ति से इसी अवस्था मे वायु और आकाश तत्व ओर उसके गुणों से बने प्रकार्तिक और सूक्ष्म और अति सूक्ष्म तन्मात्राओं से बने दृश्यों के दर्शन होने लगते है।तब साधक में आसन उत्थान जे साथ अंतर्दृष्टि से त्रिकाल के दर्शन होने लगते है।यहां भी अनेक स्थितियां बनी है,जो प्रबल साधना के साथ साथ अपने गुरु से जानने के योग्य है।
तब इस तीसरी अवस्था मे-जीभ तालु की ओर टकटक या चटकारे सी लेती ध्वनि करती फड़फड़ाती है,ओर दोनों नेत्र हिलते हुए कभी स्थिर तो कभी अस्थिर होते रहते है,तब दूसरी स्थिति में ये दोनों स्थिर हो जाते है,ओर अब मन से साधक डूबने लगता है,तब देह भान खत्म होता है,ओर ठीक यहीं अवस्था मे खेचरी मुद्रा के ही प्रकार की योनि मुद्रा यानी दोनों आंखे आज्ञाचक्र में स्थित चिद्धि आकाश में दिखाई देने वाले शुमार तारे की भांति चमकीले तारे को देखती हुई वहीं स्थिर रहती है,तब इसी अवस्था जो इच्छा है,वो सोचते ही सिद्ध होती है,यो ही इस अवस्था को आज्ञा चक्र कहते है,ओर इस तीसरी अवस्था मे ही शरीर से प्राण खींचकर कण्ठ से ऊपर आज्ञा चक्र में स्थापित होते है,तब ह्रदय को नियंत्रित ओर संचालित करने वाले प्राण अपनी गति करना छोड़ स्थिर हो जाते है,इसका परिणाम होता है,ह्रदय गति का बन्द होना यानी जड़ समाधि का प्रारम्भ होना,यहां तक बहुत वर्ष लगते है।जब समाधि होने लगती है,तब एक अद्धभुत आनन्द का रसावदन होता है,जिसे ये मूर्ख ब्रह्रन्ध से रस टपकने ओर उसे जीभ से पीने का कथित भ्रम अनुभव लिखते है,यही अद्धभुत आनन्द जो रसपूर्ण है,यही बार बार चखना ही योगी का अमृतपान चखना है।यो सच्च को जानो ओर सही से अभ्यास करो।यो
ये सब कहने लिखने में बड़ा आसान है और इस अवस्था को प्राप्त करना बड़ा ही कठिन है,पर असम्भव नहीं है।
ये है सच्ची खेचरी मुद्रा।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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