क्या बिन गुरु और उसके सिद्ध शक्तिपात के आत्मज्ञान सम्भव नही है,प्रमाणिक उदाहरण-महात्मा बुद्ध और उनके गुरु ओर उनका सिद्ध शक्तिपात,,
बता रहे है,स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी,,
ये बात प्राचीनकाल से प्रमाणिक रही है कि-आत्मज्ञान सिद्धि तीन प्रकार से प्राप्त होती है-
1-पूर्वजन्म से
2-स्वयं के अभ्यास से।
3-ओषधि से।
यो पूर्व जन्म और वर्तमान जन्म में किये स्वयं की प्राप्ति को सभी कर्म और उनका अभ्यास भी एक ही बात है,ओर ओषधि भी प्राकृतिक शक्ति की सहायता ही है।
ओर सबसे पहले ईश्वर ने अपनी पत्नी ईश्वरी से जन्मी सन्तान के लिये स्वयं ही सर्वप्रथम उसका नामकरण संस्कार किया,यो वही ईश्वर पिता ही,सभी जीवों का सबसे पहला गुरु बना है,ठीक उसी समय सबसे पहले अपनी सन्तान में अपने आत्मशक्ति के अनहद शब्द के साथ अपनी दिव्य शक्ति को अपने वरदहस्त के स्पर्श से प्रदान किया।तभी से सभी जीवों में एक सनातन ईश्वरीय आत्मशक्ति चली आ रही है जो,की,दिव्य कुंडलिनी शक्ति है।यो जैसे ही जीव अपने आत्मज्ञान की ओर बढ़ता है,उसके लिए प्रयास प्रारम्भ करता है,तभी उसे मिली,उसके पिता या स्वयं ईश्वर के उस अखण्ड स्वरूप के इस खंड स्वरूप में, वो ईश्वरीय शक्ति कार्य प्रारम्भ कर देती है।
ओर यही ईश्वरीय शक्ति के जो जो उच्च कोटि के साधक या सिद्ध होते है,वे उसी गुरु परम्परा को अपने इस शिष्य के आत्म जाग्रति के कर्म में सहयोग करते है,यही शक्ति का लेना यानी ग्रहण करना शिष्यतत्व कहलाता है और देना यानी दाता भाव ही गुरु कहलाता है।
यही लेने देने के बीच की क्रियायोग का नाम ही दीक्षा कहलाता है।
जो चाहे पूर्वजन्म में पूरा हो गया हो और इस वर्तमान जन्म में व्यक्ति में बिन गुरु के सिद्धावस्था दिखती हो,की ये तो बिन गुरु के स्वंयम्भू गुरु है।
ओर जहां ये गुरु शिष्य का शक्तिपात अभी पूरा नही हुआ है,तो वहां ये गुरु परम्परा चलती दिखती है,चाहे वो अभी केवल सत्संग सुनने से लेकर सामान्य ब्राह्मण या किसी भी साधक मनुष्य से प्राप्त हो या आगे चलकर सिद्ध से महाक्षण सिद्धावस्था की प्राप्ति दिखती हो।कि बस गुरु ने हाथ स्पर्श किया या दृष्टिपात किया या कोई शब्द कहा और वो साधक से तुरन्त उसी क्षण में पूर्ण सिद्ध हो गया।बाकी उसकी शेष साधना अब मिली सिद्धावस्था को साधने में ओर फिर आगे दूसरे शिष्यों को देने के लिए होती है।
ठीक यही आप महात्मा बुद्ध के जीवन मे उनके जन्म समय के दिव्य दर्शन से लेकर उनके सिद्धार्थ नाम से आगे उनके बुद्ध बनने तक के जो ज्ञात ओर अज्ञात गुरुओं के शक्तिपात रहे,वो ही गुरु सिद्ध परम्परा है।जिसे आगे चलकर खुद बुद्ध ने अपने आत्मा के शक्तिपात से अपने अनगिनत शिष्यों में प्रवाहित किया है।यो ये ही है-बुद्ध की शिष्य से गुरु ओर गुरु से शिष्य तक सम्पूर्ण होने की शक्तिपात दीक्षा कहानी।
बुद्ध के सबसे पहले गुरु थे-गुरु विश्वामित्र:-
गुरू विश्वामित्र से सिद्धार्थ ने वेद और उपनिषद् के साथ ही राजकाज और युद्ध-विद्या की शिक्षा ग्रहण की थी।उस समय में तीर-कमान, कुश्ती, घुड़दौड़ और रथ को हांकने में कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर पाता था।
फिर गुरु अलारा कलम से इन्होंने सन्यास दीक्षा ली थी और इसके बाद बुद्ध में गुरु उद्दाका रामापुत्त से योग व समाधि का प्रयोगिक ज्ञान प्राप्त किया था।पर जब इन्हें कई माह तक योग करने के बाद भी आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। जिसके बाद बुद्ध उरुवेला पहुंचे और वहां पर जाकर उन्होंने घोर तपस्या की ओर इसके बाद भी जब सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई,इसी समय एक दिन कुछ स्त्रियां किसी नगर से लौट रही थी, वह गीत गाते- गाते जा रही थी।उन स्त्रियों का गीत का सार वीणा ओर उसके तार के सन्तुलित कसाव से ही सही संगीत का स्वर बजता है,ये सार ज्ञान सुनकर वह समझ गये कि किसी भी कार्य को करने के लिए जल्दी करना बेकार है, किसी भी चीज की प्राप्ती के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है,जिसके बाद इन्हें खीर खिलाने वाली घटना में स्त्री से यही ज्ञान प्राप्त हुआ,जो प्राकृतिक गुरु उपदेश की प्राप्ति हुई,ठीक इन्ही सबसे उन्होंने ऐसे ही सहज ध्यान को अपना कर की,किसी का विरोध मत करो,प्रतिक्रिया मत करो,इसी विधि के ध्यान जिसे साक्षी ज्ञान या विपासना ध्यान कहते है,को अपना कर बोद्धित्त्व ज्ञान को प्राप्त किया।जिससे इनका नाम बुद्ध पड़ा।
ऐसे ही बुद्ध के प्रमुख शिष्य थे-
आनंद, अनिरुद्ध, महाकश्यप, रानी खेमा , महाप्रजापति , भद्रिका, भृगु, किम्बाल, देवदत्त, उपाली आदि इनमें से कुछ ऐसे थे,जो सदा से चर्चा में बने रहे।
तो भक्तों,यहां स्पष्ट हो गया कि बिन गुरु और उसके शक्तिपात के आत्मज्ञान की यात्रा ओर आत्म मार्ग नही मिलता है और सबमे अपना कर्म और पुरुषार्थ परमावश्यक है।तब बिन गुरु के केवल स्वयं का पुरुषार्थ विशेष सफल नहीं होता है।यो यही जानना की,सही कर्म क्या है और सच्ची विधि क्या है और कैसे सच्चा पुरुषार्थ किया जाए,ये गुरु ही अपने जीवन को प्रमाणिक रूप से दिखाते हुए बतलाते है और उसी को देखकर,फिर उसी मार्ग पर चलते व्यक्ति आत्मज्ञान पाता है।
यदि तुम महात्मा बुद्ध के सिद्धार्थ से लेकर बुद्ध बनने तक का साधना का रास्ता देखोगे तो,साफ पता चलेगा कि,इन्होंने प्राचीन भारतीय पद्धति-प्रवर्ति से निर्वती तक,को ही अपनाया था।
यानी ग्रहस्थ का भोग सुख ओर राज्य ऐश्वर्य को भोगते हुए,अपने वैराग्य के मार्ग पर चलते हुए सिद्ध गुरु ज्ञान की साधना करते हुए,फिर अंत मे समस्त त्याग कर पूर्ण एकांकी बनकर घोर साधना की ओर बोद्धित्त्व को प्राप्त किया।
ओर इनके आज के अनुयायी क्या करते है कि,प्रारम्भ से ही सब त्याग कर साधना करते चले आ रहे है,परिणाम केवल बुद्ध के अनुयायी ही बने रहें है,बोद्धित्त्व को प्राप्त नही हुए है।
बुद्ध के समय मे ही जैन धर्म भी पूर्णता पर था,उनकी भी गुरु परम्परा रही और ध्यान विधि रही थी।जो प्रवर्ति से निवर्ती ही थी।क्योकि उनके लगभग समस्त अवतार-ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी तक राजा से सिद्ध हुए थे।यानी सब भोगा ओर फिर भोग कर सब जाना और फिर मुक्त हुए।
महात्मा बुद्ध सेलगभग 60 साल पहले ही महावीर स्वामी मोक्ष को प्राप्त हुए थे।
यानी मुक्ति के महामार्ग तब प्रमाणिकता से प्रचलित था।सो अवश्य बुद्ध ने उसे भी जाना और अपनाया होगा,पर उनके सिद्धांत पर छाप नहीं लगे,यो उसे घोर निराहार रहकर तपस्या का अभ्यास कर,समझा और उसी उपलब्धि को पाकर उसे,मानने से इंकार कर दिया।
क्योकि फिर स्वयं का व्यक्तित्व जैन धर्मी हो जाता।
बस बाकी राजा वे भी थे और ये भी थे,यो दोनों का धर्म राज धर्म होकर,राजाओं से प्रजा तक,देश विदेश तक फैला।
जैसे कि इनसे पूर्व राम और कृष्ण का राज धर्म बनकर समाज पर लागू हुआ था।
सब क्षत्रिय ही तो थे।
यो बुद्ध ने भी गुरु विश्वामित्र की भांति ही अपने से ब्राह्मणवादी छाप को हटा दिया।जिसे फिर से आगे चलकर आदि गुरु शंकराचार्य ब्राह्मण संगठन ने इन पर भी विष्णु के नोवे अवतार की छाप लगा प्रचलित किया।जो आज समाज मे चल रहा है।जबकि बुद्ध ने पूर्व चली प्रथा को हटाकर,घोषणा की की-क्षत्रिय पहला,फिर दूसरा ब्राह्मण,फिर तीसरा वैश्य,फिर चौथा शुद्र परम्परा को माना।
बुद्ध का महामंत्र-“ॐ मणिपद्म हु”
जो नाभिचक्र के जागरण का मन्त्र है और नासाग्र दृष्टि भी अपनी नाभि चक्र में ध्यान करते इस मंत्र के जप करते हुए कुंडलिनी जागरण की विधि को दिया है।
ओर इस कुंडलिनी जागरण के बाद केवल अपने ह्रदय चक्र में ध्यान करते हुए सभी रूप और शब्द व भावों से मुक्त होकर स्थिर रहने का साक्षी ध्यान का उपदेश कहा है।जो सच मे कोई नही जाता है।
तो समझ आया होगा कि-सत्यास्मि मिशन का महाज्ञान विषय भी प्रवर्ति से निवर्ती का है कि, जो है,उसमे सहज रहते हुए उसे अपनाते हुए,अपनी आत्मा का महामंत्र जपते हुए रेहीक्रियायोग करते हुए आत्मसाक्षातकार को प्राप्त कर,अपनी आत्म के सत्य अहम सत्यास्मि को प्राप्त करो,यही प्रत्येक मनुष्य की बुद्धत्व प्राप्ति की महापुर्णिमा है।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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