क्या अब तक आपको दिखाया,मनुष्य शरीर मे कुंडलिनी के चित्रण दर्शन का आधार सच्च में ऐसा ही है?जैसा अब तक बताया गया है?या फिर कुछ और भी है कुंडलिनी के चक्रों के जागरण व दर्शन की सच्ची गुप्त विद्या व स्थिति,जो आपसे छिपायी गयी है,जो केवल महासिद्धों के पास ही है,तभी आपकी सच्ची कुंडलिनी जाग्रत नहीं हो रही है?,,,

क्या अब तक आपको दिखाया,मनुष्य शरीर मे कुंडलिनी के चित्रण दर्शन का आधार सच्च में ऐसा ही है?जैसा अब तक बताया गया है?या फिर कुछ और भी है कुंडलिनी के चक्रों के जागरण व दर्शन की सच्ची गुप्त विद्या व स्थिति,जो आपसे छिपायी गयी है,जो केवल महासिद्धों के पास ही है,तभी आपकी सच्ची कुंडलिनी जाग्रत नहीं हो रही है?,,,

बता रहे है,सत्यास्मि मिशन की नवीन खोज,,स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी,,,

अबतक अपने देखा व योग गर्न्थो में पढ़ा है कि,मनुष्य शरीर मे कुंडलिनी के सात चक्र है-मूलाधार,स्वाधिष्ठान,नाभि, ह्रदय,कंठ,आज्ञा व सहस्त्रार चक।
ओर इनके बीज मंत्र;-लं, वं, रं, यं, हं।ओर स्त्री के अलग बीजमंत्र है,जो ओर लेख व वीडियो में बता चुका हूं,

तो क्या अब हम पुरुष और स्त्री जपे-अपनी अपनी कुंडलिनी के बीजमंत्रों को की-
पुरुष कुंडलिनी बीजमंत्र है-ॐ लं वं रं यं हं स्वाहा।
स्त्री कुंडलिनी बीजमंत्र है-ॐ भं गं सं चं मं स्वाहा।
तो क्या इनके अपने आने शरीर मे जपने से सच्ची कुंडलिनी जाग्रत हो सजती है इर इनका सच्चा जप रहस्य क्या है?
तो इस बीजमंत्र जप विज्ञान के रहस्य विषय को आगे के ज्ञान वार्ता में फिर कभी बताऊंगा।

यो पहले विषय पर ही चलते है कि,आप इस सबको लेकर भयानक साधना करके भी आपकी सच्ची कुंडलिनी जाग्रत नहीं होती है,ओर जो होती है तो,वो बस कुछ स्पंदन,कम्पन,हिलोरे,ओर हल्की,तेज,भस्त्रिका चलनी ओर कुछ शारारिक मुद्राएं होनी,व कुछ स्पर्श,रूप,शब्द,गन्ध,रस के अनुभव होने या कुछ उपलब्धियां,प्रकाश दर्शन,,
बस यहीं आपकी कथित जाग्रत कुंडलिनी ओर उसके कथित अनुभव दर्शनों का अंत हो कर रह जाता है।
तब असल क्या है,वो अज्ञात,कुंडलिनी चक्र का रहस्य?

जो खोजा है,सत्यास्मि मिशन के स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी ने,

इसका कुछ ही रहस्य यहां बताया जा रहा है,कुछ प्रमाणिक वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर,बाकी तो रहस्य ही है,जो यहां नही बताया जा रहा है।
तो आओ जाने प्रमाणिक कुंडलिनी योग रहस्य ज्ञान,,,

वो है-हमारे ब्रह्मांड में स्पष्ट दिखते हुए,ध्रुव तारे को केन्दित करते सप्त ऋषि मंडल चक्र ओर उसके दूसरी ओर भी एक सूक्ष्म सप्तऋषि मंडल,, जिनमें चौकोर तारों के रूप में चार ऋषि तारे है और उनसे आगे तीन ओर ऋषि तारे है ओर वहीं इन सप्तऋषियों का अंतिम छोर है।और ठीक इसके विपरीत रास्ते पर, चौकोर ऋषि मंडल के एक कोने से बिलकुल सीधी रेखा में है-ध्रुव तारा।
ओर इसी ब्रह्मांड के सप्तऋषि तारा मंडल में छिपा है,हमारे अंड सो ब्रह्मांड के योग सूत्र के अंतर्गत कुंडलिनी चक्रों का रहस्य यानी
यहां दो रास्ते है-
1-एक रास्ता अलग दिशा से है,जो वक्री मार्ग है यानी तिरछा रास्ता,जो हमारे इंगला पिंगला नाड़ियों के एक दूसरे को क्रॉस करते हुए एक सर्प की भांति बनता है और दूसरी ओर-
2-एक रास्ता अलग है,जो बिलकुल सीधा है,हमारी मूलाधार से रीढ़ की हड्डी के अंतिम छोर तक कि भांति,सीधा ओर सरल।
ठीक यहीं है,सच्ची कुंडलिनी जागरण का छिपा रहस्य ओर मार्ग।
आज तक के योग शास्त्रों में, जो कुंडलिनी जागरण का एक तिरछा यानी वक्री मार्ग हमे दिखाया और बताया गया है,वो है,इन सप्तऋषि मंडल के चार ऋषियों के एक कोने से आगे की तरहां का टेढ़ा रास्ता।जिसका अंत,इन्हीं की तरहां,एक अंधकार आकाश में खत्म हो जाता है।ओर सदूर दिखता है-अरुधंति तारा।
ओर एक रास्ता जो हमे बताया ही नहीं गया है,जो है चार ऋषियों के पहले रास्ते के विपरीत कोने से सीधी रेखा में जाता हुआ, सीधा का सीधा ध्रुव तारे पर जाकर समाप्त होना।
यहां ध्रुव तारा ही स्थिर तारा है,आज्ञाचक्र।

अब जाने ये सप्तऋषियों का ये उल्टा व सीधा आज्ञाचक्र तक जाने का आकाश में बना सच्चा प्रमाणिक कुंडलिनी जागरण का रास्ता,क्या है।
अब यहाँ देखोगे ओर पढ़ कर मेरे ज्ञान से जानोगे की, सप्त ऋषियों के आधार पर कुंडलिनी कैसे जाग्रत है-
1-पहले चार ऋषि का चौकोर मंडल हुआ-
मूलाधार चक्र-जिसमें चार वैदिक धर्म और कर्म क्षेत्र दिखाती पत्तियां है, -1-अर्थ-2-काम-3-धर्म-4 -मोक्ष यानी ये ही सप्त ऋषि,पहले चार के किस क्रम में है,ये जाने की-
मूलाधार चक्र का ये चोकर वर्ग और उसमे स्थित चार पत्तियों में स्थित ये चार ऋषि ओर उनकी शक्तियां-1-वशिष्ठ-(पूर्व दिशाकोण) 2-विश्वामित्र-(उत्तर दिशा)-3-कण्व-(पश्चिम दिशा कोण), 4-भारद्वाज-(दक्षिण दिशा कोण)।


अब इसके बाद आता है,स्वाधिष्ठान चक्र तो उसके ऋषि हुए-5-अत्रि।
फिर तीसरा चक्र आता है;नाभि चक्र-ओर इसके ऋषि हुए-6-वामदेव,फिर इसके बाद आता है,पांचवा चक्र-ह्रदय चक्र,तो,उसके ऋषि हुए-7-शौनक।
ओर इसके बाद आता है,छठा चक्र कंठ चक्र,यानी आकाश तत्व का चक्र,,,इसके ऋषि यहां केवल इन सात ऋषियों की वाणी हुई,क्योकि इन सप्त ऋषियों ने चार वेदों के सभी ऋचाओ के दर्शन करते हुए,उन्हें बोला है,ओर कंठ चक्र जो अनुभव हुआ और जो देखा है,उसको बोलने का स्थान है,यो यहां कंठ चक्र से केवल वैदिक वाणी उद्धभव हुई है।तभी इस सप्त ऋषि मंडल का अंत मे केवल आकाश ही शेष दिखता है।वहीं समाप्ति है,वहां से बहुत दूर है अरुधंति तारा,ओर उसके वक्री यानी घूमकर पड़ता है,ध्रुव तारा।
ओर आज्ञाचक्र में ये सभी सप्त ऋषियों का स्थान नही है,यो आगे जो आज्ञाचक्र का वह स्थान है-यानी अरुधंति,इसका अर्थ है,निष्ठा,,यानी अपनी आत्मा की मूल शक्ति में पूरी निष्ठा के साथ एक हो जाना,, निष्ठा में परिवर्तन है।यो इन सप्त ऋषियों की पहली ज्ञान व ध्यान साधना का विषय है,अपनी आत्मा के प्रति पूरी निष्ठा विश्वास के साथ उससे एकाकार होना,,ओर इससे आगे क्या साधना है,जिसके करने से सीधे के सीधे ही उपलब्धि होती है?वो है ध्रुव स्थिति की प्राप्ति।
जो, ध्रुव तारे में है,ओर ध्रुव तारे का अर्थ है, स्थिरता,अचलता।


यो,ये आज्ञाचक्र का स्थान,इन सप्त ऋषियों से बिलकुल अलग उत्तर दिशा मे है,यानी उत्तर मार्ग साधना,जैसा कि हमारे सौरमण्डल में भी आप देख सकते है,की ये ध्रुव तारा सीधे उत्तर दिशा में दिखता है,उससे पहले तीन तारे ओर दिखते है,उनके पीछे है ये ध्रुव तारा।ध्रुव तारे से पहले एक ही लाइन में दिखते ये तारे क्या प्रतीक है।त्रिगुण शक्तियों के यानी आज्ञाचक्र का प्रवेश द्धारा,ध्रुव यानी आज्ञाचक्र में प्रवेश से पहले साधक को अपने तीनों गुणों पर अधिकार होना चाहिए,त्रिगुणातीत होना,,तभी वो ध्रुव तारे यानी आज्ञाचक्र में प्रवेश कर सकता है,इतने उसे पहला वक्री यानी दक्षिण मार्ग की साधना करनी होगी।ओर वह वहीं फंसा रहेगा।
ओर वैसे भी आज्ञाचक्र में एक अचल तारे या अचल ज्योति का स्थान है।जिसे कोई शुक्र के तारे की भांति मानते है,तो कोई अगुंष्ठ के आकार की एक ज्योतिर्मयी ज्योत मानते है,तो कोई यहां निराकार ज्योतिर्मय बिंदु का दर्शन स्थान मानते है,कुल मिलाकर आज्ञाचक्र नीचे के सप्त ऋषियों के पथ रास्ते से बिलकुल अलग है।ये योग पथ उत्तर दिशा में ध्यान करने पर ही,ओर उत्तर मार्ग की साधन पथ पर चलने पर ही मिलेगा।

तो क्या हमें इन सात ऋषियों के मन्त्र जप स्मरण बिना कुंडलिनी जागरण का रास्ता नहीं खुल सकता है?,तो क्या,तभी हमें वो ध्रुव तारे का सीधा रास्ता यानी सुषम्ना पथ मिलेगा?
वैसे भी मन्त्र शास्त्रों में बताया गया है कि, प्रत्येक मन्त्र व ऋचाओं के दर्शन और उसे प्रकट करने वाले उन ऋषियों के आवाहन,किये बिना उस मन्त्र के न देवता न सिद्धि तक पहुँचा जा सकता है।चाहे कितना ही जप व ध्यान साधना को कर ले।
जैसे,वेदों के महाज्ञान को खोलने की चाबी है-गायत्री,ओर गायत्री के ऋषि है,विश्वामित्र ओर महर्षि विश्वामित्र ने ही गायत्री को शाप दिया और उसका शाप विमोचन उत्कीलन भी किया है,यो बिन महर्षि विश्वामित्र को मन्त्र व आहुति दिए,उनका आवाहन नहीं हो सकता और बिन महर्षि विश्वामित्र के गायत्री की सिद्धि असम्भव है।तभी तो महर्षि विश्वामित्र ही सनातन धर्म के पहले भगवान श्रीराम के शास्त्र व शस्त्र के गुरु है और आगे ये बुद्ध के भी शास्त्र व शस्त्र गुरु रहे है।महर्षि विश्वामित्र ही उत्तर दिशा व उत्तर मार्ग के महान ऋषि है।
ठीक ऐसे ही अन्य सप्त ऋषियों के बारे में भी जाने,की उनके बिना आपके कुंडलिनी चक्र बिल्कुल भी खुल नहीं सकते है।
ओर इसी का नाम है,तंत्र साधना यानी कि सिस्टमेटिक साधना विधि।

अब ये हमारे शरीर मे कैसे ओर कहां स्थित है,आओ जाने,,

तो इस सप्त ऋषि मंडल का पहला सूक्ष्म स्थान है,हमारा मष्तिष्क मंडल।
वहां ये सप्त ऋषि मंडल से तिरछा यानी वक्री होकर भी ओर दूसरे ओर से सीधी रेखा में सामने की ओर है-आज्ञाचक्र।
ओर ठीक ऐसे ही मष्तिष्क के बाद ही सूक्ष्म से स्थूल रूप में,बनता है, हमारे नीचे के शरीर मे सप्त ऋषि मंडल चक्र ओर वहां से सीधे आज्ञाचक्र में है ध्रुव तारा।
यही स्थिति प्राप्त करना स्थिर योग ओ
यानी उत्तर योग कहलाता है।
तभी इसी महाज्ञान को छिपे अर्थ में, गीता में कहा है कि,ये ज्ञान मेने यानी आत्मा यानी सूर्य ने,मनु यानी मन को दिया और मनु यानी मन मे सप्त ऋषियों को दिया और उन्होंने सारे जगत को दिया,इसी ज्ञान में स्पष्ट हो गया है,ऊपर कही ज्ञान बात में,,की ये सप्त ऋषियों के रहस्य को जाने बिना कोई भी असली कुंडलिनी को जाग्रत नहीं कर सकता है।
ये सप्त ऋषि ही आध्यात्मिक ज्ञान की सप्त शक्तियां है,युगों में इन सप्त ऋषियों की आगे की ऋषियों की नाम अलग होते गए,पर ज्ञानधारा वही परम्परागत रही,,,

अब प्रश्न आता है कि,अब कौन से ऋषि के ज्ञान चक्र से तिरछा मार्ग जाता है,आज्ञाचक्र तक यानी ध्रुव तारे तक।
ओर किसी ऋषि के ज्ञान चक्र से सीधा मार्ग जाता है,आज्ञाचक्र तक यानी ध्रुव तारे का।
आप अब तक जान चुके होंगे कि,इसी ब्रह्मांड में जो सप्त ऋषि मंडल के दो विपरीत मंडल है,वही हमारे शरीर में भी स्थित है-1-मष्तिष्क के ऊपरी भाग से सामने की ओर आज्ञाचक्र में समापन फिर सहस्त्रार में प्रवेश ओर वहां स्थिरता।
ओर दूसरा है,उसके विपरीत सप्त ऋषि मंडल से नीचे की ओर को गर्दन से रीढ़ में होता हुआ,मूलाधार पर समाप्ति होना,यानी मूलाधार चक्र के चार कोणों में से उत्तर कोण से सीधा ऊपर को तालु मूल के ऊपर स्थित कपाल मध्य में स्थित मेडुला ग्रन्थि के अंदर स्थित यानी ध्रुव तारे में प्रवेश करना,,ओर फिर यहिं से सहस्त्रार चक्र में प्रवेश करना।यानी इस सप्तऋषि मंडल का प्रारम्भ ध्रुव तारे से है,यानी इसे उल्टा माने तो,ये ध्रुव तारे से, सीधे मूलाधार चक्र में चार ऋषियों के चतुर्थ मंडल पर समाप्ति होती है।यही आरोह व अवरोह क्रम की अज्ञात रेहि क्रिया योग की साधना है।जो आजतक अज्ञात रही है,जिसे अब प्रकट किया गया है।
इसे थोड़ा यो समझे कि-वैसे भी आप अपने सिर के पिछले भाग को देखेंगे तो,पाएंगे वहां,जहां चोटी रखी जाती है,,वहां तिरछे रूप में यानी नीचे से कम और ऊपर को ओर कुछ अधिक एक चोकर हिस्सा बना होता है,ठीक यहीं ही है,चार ऋषियों व मूलाधार चक्र की चार पत्तियों का विशेष भाग।ओर यही के चार भाग से,एक सप्तऋषियों का तीन ऋषि तारे का क्रम सिर के ऊपरी भाग से आपके माथे के बीच भौंह पर आकर पूर्ण होता है और ठीक ऐसे ही दूसरा चोकर ऋषि तारे का उल्टा मंडल आपके पीछे से नीचे की ओर गर्दन की ओर से होता हुआ,एक शक्ति बिंदु मस्तिष्क के अंदर-स्त्री के उलट भाग से ओर पुरुष के सीधे भाग से गुजरता हुआ, मस्तिष्क के मध्य में स्थित मेडुला चक्र पर खत्म होता है,जो ध्रुव शक्ति केंद्र है,ओर इसी का एक स्थूल भाग,आपकी रीढ़ के अंतिम छोर मूलाधार चक्र तक पूर्ण होता है।ये समझना बड़ा आसान भी ओर बड़ा कठिन काम है।यो अपने सिर के पिछले भाग पर हाथ फिराने से आप समझ जाओगे,की इन चार चौकोर वर्ग के बीच जहां चुटिया छोड़ी जाती थी या है,वहीं मूल मूलाधार चक्र का स्थूल व सूक्ष्म शक्ति बिंदु है।यही से कुंडलिनी शक्ति का प्रारम्भ है और समापन मष्तिष्क के अंदर मध्य में है।यही है,ऋषि ओर ब्रह्मऋषि ओर महृषि तारा शक्ति मंडल।इस पर फिर बात करूंगा।तभी साधना करने पर इन्ही शक्ति बिंदुओं पर स्पंदन यानी कम्पन होते अनुभव होते है।

यो,अब ऊपर कहे,सप्तऋषि तारे मंडल में से असल कौन सा है और नकल कौन सा है,वक्री ओर सरल मार्ग कौन सा है।
यहां रहस्य ये है कि-
अर्थात इस चतुर्थ ऋषि मंडल के एक ऋषि वशिष्ठ से प्रारम्भ होकर,फिर अंत मे तीन ऋषियों यानी यहां भी त्रिगुणों के शोधन के बाद ही अरुधंति तारे पर जाकर समाप्ति है।
जो थोड़ा वैदिक पर वक्री योग यानी वाममार्गी साधना है।
ओर दूसरे का विश्वामित्र से उत्तर दिशा से सीधे तीन ऋषियों के बाद सीधे ही ध्रुव तारे पर जाकर समाप्ति है।ये यहां तीन ऋषि शक्तियां ओर यही है-सत्य पुरुष की-स-त-य ओर ॐ स्त्री की-अ-उ-म की समल्लित शक्तियां यानी सिद्धायै यानी सम्पूर्णता यानी पूर्णिमा शक्ति,हैं,(जिसे ओर कहीं ज्ञान वार्ता में समझाऊंगा)
,,-गायत्री-सविता-सावित्री।
महर्षि विश्वामित्र ने वेद माता गायत्री व उसकी दो शक्तियां सविता व सावित्री यानी भुर्व-भुवः-स्वः की मन्त्र सिद्धि प्रकट के बाद अंत मे उसका त्याग यानी उससे भी ऊपर उठकर केवल अपनी आत्मा के पुरुषार्थ बल यानी सत्य और ॐ की समल्लित शक्ति और उसकी पराकाष्ठा यानी सम्पूर्ण अवस्था परमात्मा यानी पूर्णिमा में स्थिर व स्थित होने की सम्पूर्णता की ओर हमे ज्ञान व कुंडलिनी शक्ति के रूप में दी-अहम सत्यास्मि।ये सीधा रास्ता है,सीधा का सीधा अपने आत्मा का ध्यान करते हुए,अपने आत्मबल की व्रद्धि करते हुए,अपने ही आज्ञाचक्र यानी अपनी ही आत्मा की महान इच्छा ओर उसकी पूर्ति की आत्म शक्ति के केंद्र में प्रवेश करना,यानी मनोमयी कोष में प्रवेश करके समस्य मन और उसकी मायावी शक्तियों पर यानी विज्ञानमय कोष पर अधिकार करना,जो कि आपकी ही है।यहाँ एक ओर ज्ञान बात बताता हूं कि,
वैसे भी योग शस्त्रों में ध्यान के तीन आकाश बताये है,की जिनमे प्रवेश करके ही, इन सप्त चक्र ओर इनके बीजों ओर उनकी शक्तियों को देखा जाता है,बहुत ही उन्नत साधना के बाद सिद्धि हो जाने पर ही,ये तीनों शरीर के तीन आकाशों को एक साथ मिलाकर के तब अजेय अमर शाश्वत शरीर की प्राप्ति होने पर ही सदा अपने या अन्यों साधको के सामने प्रकट किया जा सकता है।इतने तो बस सब ध्यान में ही दर्शन व अनुभूतियां होती है-
ये आकाश है-1-चित्त आकाश-2-चिद्धि आकाश-3-चिद्धाकाश।
यहिं है रेहि क्रियायोग का महान ज्ञान और उसका आत्मदर्शन की महान कला।इसे बार बार ध्यान से समझोगे तो,पता चलेगा,एक अद्धभुत लुप्त अज्ञात महाज्ञान,जो योग के सच्चे साधको के लिए प्रकट कर रहा हूँ,बाकी परम्परागत ढ़र्रेबाजों की कहता नहीं।
जिसे करने वाला ही आत्मा के सच्चे अनुभव को प्राप्त कर बता सकता है।

शेष ज्ञान का रहस्य गुरु के चरणों मे बैठकर उनकी शिष्य की परीक्षा कर कृपा स्वेच्छा से ही पाया जाता है,,,

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
Www.satyasmeemission.org

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