कैसे जाने की आपकी कुंडलिनी जागरण होगा या नहीं,या कितने स्तर पर सफलता मिलेगी,आपकी जन्म कुंडली मे,आपकी कुंडलिनी जागरण के लिए कौन से मुख्य ग्रह है?बता रहे है,स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी,,,
आप जब भी अपनी जन्म कुंडली के बारह खाने के साथ उसके मुख्य चित्रण को देखते हो,तो जानो की,वो असल मे आप खुद ही को वहां देखते हो,जो एक छोटे से चोकर चित्र में आपका पूर्वजन्म से लेकर वर्तमान से लेकर भविष्य के जन्मों तक का चित्रण है।
जन्मकुंडली में कुंडलिनी जागरण को मुख्यतया 6 घर होते है-1-लग्न(मष्तिष्क)-2-द्धितीय(सीधा मष्तिष्क)-3-चौथा(सीधा ह्रदय)-4-छठा(पिंगला नाड़ी)-5-सातवां(मूलाधार-सुषम्नानाड़ी)-6-अष्टम(इंगला नाड़ी)-7-दशम(उल्टा ह्रदय)-8-बारहवां(अवचेतन मष्तिष्क)।
पर इन सबमें ओर भी मुख्य घर है-1-पहला लग्न-2-चौथा-3-सातवां-4-दशम।
ओर सबसे मुख्य है केवल दो-पहला लग्न(मष्तिष्क) ओर सातवां(मूलाधार) ओर यही दो घर ही सबसे मुख्य कुंडलिनी जाग्रति के लिए होते है ओर यही देखने भी चाहिए,बाकी केवल पूर्वजन्म के कर्म को ओर उसके परिणाम फल के सहयोग व मिलने को बताते है,पर लग्न ओर सप्तम के ग्रह ही कुंडलिनी जाग्रति को बताते है,यही जाग्रति नही हुई तो फिर आगे कुछ नही होगा।यो लग्न ओर सप्तम को ही देखो।
अब जो आपकी जन्म जन्मकुंडली का पहला खाना यानी घर है,वो तुम्हारा पूरा सिर है,जिसमे आपका मष्तिष्क ओर उसके चेतन व अवचेतन भाग सहित मष्तिष्क के अंदर के सारे चक्र-आज्ञाचक्र-पीयूष ग्रन्थि-सहस्त्रारचक्र ओर उनकी वहां क्या स्थिति है,ये इसी घर से पता चलता है।
ओर दोनों कान,दोनों आंखे,नाक,मुहं आदि।वैसे यही घर मुख्य है,यानी आपका पूरा सिर और उसके अंदर व बाहर की स्थिति को बताता है।
यदि यहां ये ग्रह मुख्य रूप से हो,तो आपके मष्तिष्क यानी आज्ञाचक्र-पीयूष ग्रन्थि-सहस्त्रार चक्र की स्थिति का स्पष्ट पता चल जाता है।कि आपकी कुंडलिनी का पहले मष्तिष्क में सूक्ष्म जागरण किस प्रकार से होगा और उसका आगे चलकर,आपके निचले चक्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
सूर्य ग्रह:-
लग्न में सूर्य उच्च मेष का पहले अपने क्षेत्रीय देव या देवी की उपासना को करते हुए,फिर किसी वैदिक महामंत्र के साथ मे किसी मूल महादेवी के मन्त्र जप व यज्ञानुष्ठानों के साथ आगे चलकर योग अभ्यास के बल से कुंडलिनी जागरण देता है।
ओर सिंह का सूर्य यहां किसी वैरागी सन्त महात्मा के परिवार पर या स्वयं पर आशीर्वाद से आत्म प्रेरणा के चलते साधना का विकास होता है,वो परिवार के उपदेवता की भी किसी के ऊपर भावावेश होने से आशीर्वाद पाकर साधना कर कुंडलिनी जाग्रत पाता है,पर ये कुंडलिनी जागरण उसे ज्ञानी अधिक बनाती है,बहुत तेज भवावेशो को शरीर मे लाती है,बहुत तेज प्रकाश के दर्शन व निराकारवादी दर्शन की ओर प्रेरित करती है।
गुरु ग्रह:-
यहां यदि गुरु ग्रह अपनी ही स्वराशि धनु या उच्च राशि मीन में बैठा है।तो आपकी कुंडलिनी का जागरण-
आपके वैदिक ज्ञान और गुरु ज्ञान के साथ साथ गुरु की शक्तिपात से जाग्रत होगी।यह परम्परागत मठाधीश पथ की प्राप्ति को गुरु शक्तिपात से कुंडलिनी जागरण पाता है।
चंद्रमा:-
ओर यदि यहां चंद्रमा है,तो आपको केवल आपकी कल्पना शक्ति के बल से कुंडलिनी जागरण का मन मे दर्शन व अनुभव होगा,पर यथार्थ में उस कुंडलिनी जागरण पर पकड़ नही होगी,यानी कुंडलिनी प्रत्यक्ष सिद्धि को नही प्राप्त होती है।
ऐसे व्यक्ति को अनुमान की शक्ति प्राप्त होती है,भूत वर्तमान भविष्य के दर्शन या चित्रण दिखते है,इस जागरण के विभिन्न स्तर के दर्शन से वो कम या ज्यादा सफल देखने वाला ज्योतिषी,भगत,भविष्यवेत्ता बनता है।
बुध ग्रह:-
यदि बुद्ग ग्रह लग्न में स्थित हो,मिथुन या कन्या का,तो आपकी कुंडलिनी मन्त्र के निरंतर घोर जप के ओर मन्त्र शब्द को सुनते हुए उस पर ध्यान लगाने से जागरण होता है,या किसी श्री गुरु के मन्त्र या गुरु शब्द को निरंतर जप की दी नियम दीक्षा से जाग्रत होती है।कुछ हद तक सम्मोहन शक्ति के क्षेत्र में सफलता पाता है।जबरदस्त प्रभावी भाषनकर्ता की शक्ति प्राप्त होती है।
मंगल ग्रह:-
यदि मंगल ग्रह यहां लग्न में मेष का हो तो,उग्र योग तपस्या के बल से कुंडलिनी जाग्रति पाता है,हठयोगी बनता है, या वृश्चिक राशि का हो तो,साधक की कुंडलिनी जागरण उसके बहुत उग्रता के भाव,किसी तीर्व विचार के निरंतर चिंतन के चलते मन के एकाग्र होने से वैराग्य की स्थिति के निरंतर बनने से जाग्रत होती है।वैसे ऐसा साधक व योगी की महान योगी गुरु के शक्तिपात से उस पथ का महान प्रचारक योगी बनता है।
शनि ग्रह:-
यदि शनि ग्रह के यहां लग्न में स्वराशि मकर के होने से दान करने के बल से ओर किसी सन्त की इच्छा के अनुरूप मन्दिर बनवाने से बढ़े, पुण्य बढ़ने से मानसिक शक्ति की जागृति भर होती है,या यहां पर कुम्भ राशि का शनि हो तो,साधक को बिन नियम के चलते केवल स्वयं के अभ्यास ओर सात्विक प्रवर्ति के साथ निरंतर शास्त्रों को गहनता से अध्ययन करके उनमे छिपी अज्ञात विधि को अपना कर किये अभ्यास के बल से जाग्रत होती है।वो मन्दिर निर्माण और अघोर पंथ की दीक्षा या बिन विशेष परम्परागत यज्ञानुष्ठान को अधिकतर करते रहने और ध्यान करने से व सदूर व स्वप्न में पितरों के रूप में कोई कृपा दीक्षा से कुंडलिनी जाग्रत होती है।
शुक्र ग्रह:-
साधक की जन्मकुंडली में यहां शुक्र ग्रह वृष राशि का हो तो,देवी की पूजा और वाममार्ग में ब्रह्मचर्य की मन्त्र साधना से कुंडलिनी जाग्रत या शुक्र फिर तुला राशि मे हो तो,साधक की कुंडलिनी किसी साधक सहयोगी स्त्री या साधक पुरुष के प्रेम साधना सहयोग से ओर अपने से विपरीत किसी ईश्वरीय भगवान के विपरीतलिंगी रूप के प्रेमिक ध्यान से जाग्रत होती है,भक्ति मार्ग के वाममार्ग साधना से ओर काम बीजमन्त्र से जाग्रत होती है।
राहु ग्रह:-
साधक की जन्मकुंडली के लग्न में यदि राहु अपनी स्वराशि मिथुन का होने पिछले जन्म में भक्ति मार्ग की साधना से जाग्रत हुई कुंडलिनी यात्रा की साधना अब उस जन्म में भी चलेगी।
ओर यदि यहीं राहु वृषभ राशि मे बहुत बलि हो कर बड़े गहरे शोध कार्य करता या कराता है,वृषभ राशि का स्वामी शुक्र ग्रह राहु का दैत्य गुरु होने से शुभ फल देता है,चूंकि राहु पूर्वजन्म का कारक है,जो भी मन मे इच्छा विशेष रूप से शेष रह जाती है,वही लेकर जन्मता है,वो इच्छा कुछ भी हो,उच्च राशि मे उच्च इच्छा होती है और निम्न राशि मे निम्न कोटि की इच्छा होती है,जैसे वृश्चिक राशि मंगल की राशि मे राहु नीच का होकर नीच इच्छा,क्रोधी बनाता है,फ्रस्टेटिड बनाता है,यानी किसी भी कारण अचानक से आत्महत्या होना,करना,आदि से मरता है।,
राहु पुरुष प्रधान ग्रह है,यो राहु लग्न में पुरुष देव या स्वयं की ही साधना ध्यान को प्रमुखता देता है।यह साधक को उपदेवता या उपदेवी यानी मुख्य देवता के सहयोगी अवतार की उपासना को प्राथमिकता को देता है।जैसे हनुमान जी,भैरव,भैरवी,दस महाविद्या में कोई तमोगुणी देवी।
वैसे केवल उच्च राशि स्थित राहु ही कुंडलीनी जागरण देता है,नीच में नही देता है।उच्च राहु अनेको मंत्रों के जप अखण्ड जप से ओर केवल एक समय पर एक ही मन्त्र जप से ओर फिर उस मन्त्र के बाद फिर अन्य मन्त्र की सिद्धि करता मंत्रविद्या की सिद्धि वे उसमें योगाभ्यास की साधना को करते हुए और पितृतर्पण आदि तांत्रिक संस्कार कर करते हुए सिद्धि प्राप्त करता है।कुल मिलाकर तांत्रिक परम्परा का ही जाने अनजाने पालन करता हुआ,स्वतंत्र और बहुत हद तक ब्रह्मचर्य को ही प्रमुखता देता है।लेकिन सप्तम भाव यानी मूलाधार चक्र स्थान में वृश्चिक का केतु होने से,ब्रह्मचर्य में विध्न पड़ते है।अचानक कुंडलिनी उठती व दर्शन होते है,फिर लुप्त हो जाते है,यो ऐसे वृषभ राशि के राहु साधक को,सिद्धि लाभ को जीवन के अंत तक बहुत ही प्रयत्न करना पड़ता है।
केतु की उच्च राशि धनु और नीच राशि मिथुन मानी गई है।उच्च राशि पर ग्रह पूर्ण बली होता है और नीच राशि पर ग्रह पूर्ण निर्बल।
केतु,जिस साधक की जन्मकुंडली के पहले घर लग्न में हो,तो वो व्यक्ति की कुंडलिनी जाग्रति नहीं,बल्कि मानसिक शक्ति की जागृति अधिक होती है,विभिन्न कलाओं की विशिष्ट प्रतिभा का उच्च स्तर पर विकास होता है,विभिन्न विषय की उच्चतम डिग्रियों से पुरुषकर्त होता है,अपने आंतरिक प्रेरणा कल्पना शक्ति के साथ साथ इस विषय के महान साधकों व सिद्ध व संतों से मिले ज्ञान से साधना के पथिकों के लिए ज्ञान वर्द्धक किताबों व लेखों से लेखन क्षेत्र में बहुत प्रसिद्धि सफलता पाते है।
ये व्यक्ति हस्तरेखा विशेषज्ञ,वस्तु विशेषज्ञ,रोगों की चिकित्सा को ओषधि देने के साथ साथ ताबीज यंत्र आदि देने की गद्दियाँ लगाने वाले तांत्रिक गुरु,व विशेषकर मनोविज्ञान के शोध क्षेत्र व होम्योपैथिक चिकित्सक कार्यो में सफल होते है।तथा वैरागी सिद्धांत के प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु बनते है।क्योकि राहु इनके सप्तम घर में होने से पत्नी को कष्ट व पार्टनशिप में विध्न बनने से आंतरिक स्तर पर अपनी धुन में रहने से वैरागी बनने के योग होते है।केतु किसी विशिष्ठ पितृदेव के पूजन व किसी अदृश्य योगी पीर की उपासना को अधिक महत्त्व देता है।
इस विषय में जो अन्य ग्रहों की लग्न पर व यहां स्थित इन ग्रहों पर जो विभिन्न दृष्टि सम्बन्ध होता है,उससे कुंडलिनी जागरण ओर उसकी प्राप्ति आदि में क्या क्या शुभ अशुभ परिणाम आते है,वो बताऊंगा।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी।
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