इस कठिन विषय के नीचे दिए महाज्ञान को पहले अच्छी तरहां समझे,अन्यथा ये विषय उलझा ओर नीरस लगेगा,ये ही तो योग पढ़ाई है,इस थ्योरी के बिना आप कोई भी प्रक्टीकल नहीं कर सकते है और करोगे तो हानि त असफलता ही पाओगे,,तो आओ जाने विधिवत अमरता के प्रश्न ओर समाधान,,
अमरता का अर्थ क्या है?,
अ+मर+ता= जो कभी नहीं म्रत्यु को प्राप्त हो।
जन्म है तो,मृत्यु भी है,ये एक शाश्वत सत्य है,पर अनेक महापुरुषों के बारे में शास्त्रों में वर्णित है कि,ये अमर है,जैसे,,
पुराणो के अनुसार….
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित,,
1-हनुमान जी।
2-महर्षि मार्कण्डेय।
3-परशुराम।
4-अश्वथामा।
5-कृपाचार्य।
6-राजा बलि।
7-वेदव्यास।
8-विभीषण।

अब संछिप्त में मैं इन अमर महापुरुषों की अमरता का रहस्य बताता हूँ कि,ये सभी असाधारण जन्में लोग है,ओर देव पुत्र व अवतार भी है,जैसे हनुमान जी,शिव जी के ब्रह्मचर्य स्वरूप है,ओर सूर्य देव से सूर्य विज्ञान की सोलहकला सीख दक्ष हुए,तो सामान्य मनुष्य कैसे इनकी बराबरी कर सकता है,सोचो।
दूसरा इन्में से अश्वत्थामा को शाप मिला,तो जानो की अश्वत्थामा के जन्म से मस्तक मणि थी और यदि इसने परविद्याओ की भीषण साधना करके ये मस्तक मणि यानी आज्ञाचक्र को जाग्रत किया हुआ था,यो कृष्ण जी ने उसकी ये मस्तक मणि यानी उसके जाग्रत आज्ञाचक्र में बनी ये ऊर्जा ग्रहण-विस्तार आदि को नियन्त्रित करने वाली ग्रन्थि को निकाला नही,इस निकालने का अर्थ था,उन्होंने अश्वत्थामा के आज्ञाचक्र में जो ज्ञान विज्ञान को नियंत्रित करने की प्रणाली थी,वो स्तब्ध यानी पलट दी,अब अश्वत्थामा का आज्ञाचक्र उल्टा काम करने लगा,यानी आयु बढ़ाने की पंचतत्व ऊर्जा का उपयोग को तो देता रहेगा,पर उसके ओर उपयोग को नहीं कर सकेगा,ऐसा केवल वही योगी कर सकता है,जो इस सब योग विज्ञान में ओर भी उच्चतर हो,वही कृष्ण जी थे,ओर ऐसे ही थे,वेदव्यास जी भी।हनुमान जी भी।समझे भक्तों,
अब पहले विषय पर चलते है कि,ठीक ऐसे ही विश्व के ओर भी धर्मो में तथा अनेक सम्प्रदायों व पन्थो के संस्थापको को अमर बताया जाता है।
अमरता का एक तो सीधा सा सूत्र है,जो इस सम्पूर्ण संसार व जीवों के जीवन मे सदा चल रहा व चलता रहेगा कि,ये आत्मा अजर अमर है और उसका ये पंचतत्वी शरीर नश्वर है ओर इसके बीच ही मृत्यु ही जीवन के बीच का वो शाश्वत द्धार है,जिससे इस जीवन को फिर से नए रूप के साथ पाया जाता है।और यही जीवन मृत्यु का शास्वत चक्र ही अमर है।यहिं अमरता है।
अब यही से दूसरा सिद्धांत का निर्माण है की,ये मृत्यु रूपी द्धार के आने जाने में हम अपनी स्मृति भूल जाते है,हमें फिर वही परिश्रम करते रहने का कठिन जीवन जीना पड़ता है,यो यदि इस मृत्यु को ही नहीं होने या घटित होने नहीं दिया जाए,तो हम अपनी कुछ जीवन की पक्की स्मृतियों के साथ उनके उपयोग के ज्ञान से आगे बढ़कर इसी जीवन के ओर भी नए आयामो को प्राप्त करते हुए,सम्पूर्ण होकर महाजीवन की प्राप्ति करके,उसमे सदा को स्थित ओर स्थिर हो जाएंगे।यह अमरता है।और यही हमें चाहिए।
अब प्रश्न ये है कि,ये अमरता पाने का सिद्धांत व उपाय क्या है?

तो पहले सिद्धांत जाने की अमरता का सिद्धांत क्या है?ये जाने:-
तो पहले उन अमर होने वाले महापुरुषों को अमर होने के लिए क्या मिला था,,तो इनमें से अधिकतर को वरदान ओर कुछों को शाप मिला था।
ओर इस अमरता के वरदान ओर शाप के पीछे थी,एक महाशक्ति यानी एक इच्छा शक्ति।जिसने इन लोगों को स्वेच्छित से लेकर वरदान या शाप की ऊर्जा के लगातार मिलते रहने से इनके पंचतत्वों की पूर्ति होती रहती है।ये ऊपर बता चुका,यहां कुछ उससे आगे जाने,,
ओर ये समस्त ब्रह्मांड ओर उसमें ये पृथ्वी पंचतत्वों के स्थूल से लेकर पंचतत्वों के सूक्ष्म रूपों के संगठित यानी मिश्रित तत्वों से बनी है।इस ब्रह्मांड में ओर हमारी पृथ्वी पर त्रिआयामी जीवन है,तम-रज-सत ओर इनके बीच के संधिकाल यानी तम का सत से रज रूपी क्रिया का होना ये द्धेत संघर्ष है और इन दोनों का संधिकाल क्रिया ओर उससे प्राप्ति व उस प्राप्ति का उपयोग ओर फिर उस उपयोग करने के बाद कि क्षय अवस्था ओर फिर उस क्षय पदार्थ का उपयोग या रूपांतरण,क्योकि ऊर्जा नष्ट नहीं होती है,वो केवल एक से दूसरे में रूपांतरित होती रहती है या इसके रहस्य को जानकर रूपांतरित की जा सकती है,यही विज्ञान कहलाता है।इसी को जानना भौतिक व आध्यात्मिक विज्ञान कहते है।जो गुरुओं से बड़े प्रयत्नों से सीखा जाता है।
ओर इस पृथ्वी पर जितने भी जल थल आदि के जीव जंतु है,उन सबके सब विभिन्न शरीर, इन्हीं पंच तत्वों के कम या ज्यादा समिश्रण से बने है,यो, इन पंचतत्वों से बने शरीर को अपने निरन्तर विकास करने और उस विकास के अंत में उसी अवस्था मे बने रहने के लिए इन पंचतत्वों के मिश्रण से बने खाने के पदार्थो व जल ओर वायु आदि की आवश्यकता पड़ती है।इन भोजन को खाने से उनका ये शरीर बना रहता है।पर इन पंचतत्वों से बने इस शरीर की भी बने रहने के पंचतत्व के भोजन के साथ साथ इन महत्त्वपूर्ण वस्तुओं की आवश्यकता है-
1-समय का स्तम्भन:-हमारे शरीर सहित सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड में काल यानी समय भी है,क्योकि जब दो शक्तियों ऋण व धन की निरन्तर क्रिया यानी संघर्ष चल रहा है,उससे समय बनता है,अब इस क्रिया के साथ साथ अपने अंदर से लेकर अपने आसपास के वातावरण व पृथ्वी आदि के समय और उसके अंतराल को भी नियंत्रित किया जाता है,तब प्रश्न उठता है कि,क्या हमें ही तो अमर होना है,तो हम केवल अपने ही शरीर के साथ साथ अंदर के शरीरों की गति और समय को बहुत कम कर दें,तो हममें परिवतर्न अत्याधिक धीमा हो जाएगा,यही समय का थम जाना है,पर हमारे आसपास का समय पहले जैसा चलता रहेगा,पर हमारे ओर आसपास के समय के बीच मे एक विचित्र संधिकाल चलेगा,उसका ज्ञान भी होना आवश्यक है।कि एक कम और एक अधिक,तो ये परस्पर कैसे कार्य करेंगे?
2-समय की गति के संधिकाल पर नियंत्रण करना:-

अब यहां हमारे शरीर और हमारी पृथ्वी पर व हमारे आसपास चल रहा समय,दोनों का अजीब सा मेल कैसे काम करते सन्तुलित रहेगा?और पृथ्वी के दो ध्रुवों का समय अंतराल भी भिन्न भिन्न है,सबसे तालमेल बैठाने पड़ता है,क्योकि हम इस ब्रह्मांड के समय से अपने को बिलकुल अलग नही कर सकते है,की अपने आसपास शून्य उत्पन्न कर दे,तब भी हमें अपने लिए उसी ब्रह्मांड से पंचतत्वों की ऊर्जा भी तो लेने को कोई मार्ग को खोल कर वहां से ऊर्जा को अपने मे खींचना पड़ेगा।यो इस अपने व ब्रह्मांड के बीच का द्धार हॉल को खोलने व बन्द करने आदि को समय का नियंत्रण आवश्यक है,वो कैसे?
3:-अमृत:- अमृत या सोमरस यानी ऐसी कोई ओषधि जो स्वयं अमर हो या फिर उस ओषधि के खाने या पीने से भूख व प्यास की मात्र बहुत ही कम हो जाती है ओर जो भी कार्य करने को करने के लिए, कितनी ही ऊर्जा हो,वो खर्च करते हुए,भी कोई श्रम का आभास नहीं हो।अब पहले धर्म गर्न्थो में जो समुंद्र मंथन के द्धारा अमृत की प्राप्ति की थी तो,उससे लगता है कि,अम्रत समुंद्र के अंदर निर्मित हुआ?पर ये सत्य नहीं है क्योकि उस समय अम्रत एक कलश में बंद निकला था यानी उस अमृत को किसी ने बनाकर कलश में बन्द करके समुंद्र में,इन अन्य चौदह रत्नों के साथ एक एक आयाम के अंदर सुरक्षित रखा हुआ था,की जैसे जैसे समुंद्र मंथन होता जाएगा,वैसे वैसे वे चौदह आयाम खुलते जाएंगे और एक एक रत्नों की प्राप्ति होती जाएगी,जैसे कि धन्वंतरि वैद्य,लक्ष्मी,परिजात वृक्ष, घोड़ा,ऐरावत हाथी आदि।
तो अमृत भी किसी तत्वों से बनाया गया था,यो उसके बनाने वाला कौन था?और ये कैसे बनता था।तो ऐसे ही अमृत रस की भी आवश्यकता है,वैसे ये अमृत पीने वाले सामान्य मनुष्य नहीं थे,वे देव व द्धेत्य असाधारण विज्ञानमय शरीरधारी लोग थे,तभी उस अमृत को पचा सकते थे,अन्यथा वो अमृत रस,सामान्य मनुष्य नही पचा सकता है,उसका कच्चा शरीर पीते ही छिन्न भिन्न या अनियंत्रित हो जाएगा।यो इस अमृत रस के लिए भी एक परिपक्क शरीर चाहिए यानी योग शरीर।वो कैसे मिले?
पंच तत्वों पर अधिकार:-
अब पंचतत्वों पर अधिकार करके,उनकी स्थूल से सूक्ष्म तत्व ऊर्जा से इस शरीर का निरंतर पोषण करने से इस शरीर को सदा अमरता प्रदान की जा सकती है।
सूर्य ऊर्जा पर अधिकार करना:-
हमारे ब्रह्मांड की आत्मा व उसकी सृष्टि से लेकर पालन व पोषण व विनाश का एक मात्र कारक ग्रह व शक्ति है-सूर्य।
ओर सूर्य की त्रितत्वो की अलग अलग त्रिआयामी शक्तियां ही इस पृथ्वी पर कार्य करती है,तभी हमें ये जगत दिखाई देता है,थ्रीडी की तरहां, चारों ओर घूमता चलता काम करता।तो सूर्य की ये थ्रीडी शक्तियां है-गायत्री-सावित्री-सविता ओर इनके बीजमंत्र है-भुर्व-भुवः-स्वः ओर दुर्गासप्तशती में ऐं-ह्रीं-क्लीं व केवल सूर्य की त्रिशक्तियों को एक बीजमन्त्र ॐ की-ओ-ई-म या अ-उ-म या केवल द्धेत शक्ति ओ-म या इसका विपरीत शक्ति पक्ष म-उ-आ=मां का उच्चारण जिससे हम जीव जगत जन्मा है,उसका निरन्तर आवाहन व उसका आत्मसात का विज्ञान जानना परम आवश्यक है।
या केवल एक ही महाबीज ईं यानी ईम का उच्चारण,इस ईं में मूलाधार से लेकर सहस्त्रार चक्र व अंत मे बिंदु के रूप में मूल बीज जिससे सृष्टि लय होती है,उसका ज्ञान।और सत्य पुरुष शक्ति व ॐ स्त्री शक्ति और इन दोनों शक्तियों का एकीकरण शक्ति सिद्धायै और उससे आगे पुनः मूल शाश्वत बीज नमः ओर इस मूल बीज को प्रस्फुटित करके ईं महाशक्ति का जागरण ओर फिर इस ईं महाशक्ति के चतुर्थ दिशा में चार धर्म चार कर्मो में फट से फटना ओर उससे से आगे अनन्त असंख्य वितरित विस्तार होना स्वाहा, को आत्मसात करना यानी आत्मा की प्राप्ति के साथ उसकी सभी शक्तियों की प्राप्ति नियंत्रण व सृष्टि करने और उसमे लीन होकर पुनः सृष्टि आदि करने का समस्त ज्ञान पाने का महामंत्र-सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट स्वाहा।को सच्चे उच्चारण से साधने की साधना करनी।उस अमर जीवन की स्वयमेव प्राप्ति देगा।
ओर पीछे के ज्ञान का शेष,,की सूर्य में पंचतत्वों से भी अधिक तत्व ओर उनकी ऊर्जा है,वो है,सप्त रश्मियां।
ये सप्त रश्मियां क्या व केसी व किस रंग की है?:-
ओर इन्हें कैसे अपने शरीर में बाहरी त्वचा से जो ऊर्जा निकल रही है,उसी के माध्यम से वापस अपने शरीर मे आत्मसात यानी Assimilated करना या एब्जॉर्ब यानी प्रबंध करना आना चाहिए,कैसे ग्रहण करें?
अब मैं यहां सूर्य विज्ञान की एक झलक बताता हूं,,की,,
सूर्य की सात रश्मियां है,उन्हें जैसे प्रिज्म के माध्यम से अलग अलग किया और देखा जाता है,यो भोतिक विज्ञान में प्रिज्म है,बिलकुल साफ निरंग यानी कोई अपना रंग नहीं,तभी वो अनेक कोणों से यानी त्रिकोणों यानी त्रिआयामी एंगल से इस सप्त रंगों को अलग करता है,ठीक ऐसे ही हमें अपना मन बिलकुल निशब्द व निरंग यानी विचारहीन बनाकर स्वच्छ साफ किया जाता है,मन की ये अवस्था को संयम अवस्था कहते है,तब इस संयम समाधि में,ही सूर्य के मूल बीज भर्ग यानी भर्गो व इस मूल बीज से जन्मी त्रिशक्तियाँ-गायत्री भूर-सावित्री भुवः- सविता स्वः के त्रिशक्तियों की 2 रश्मियों+2 दो रश्मियों+2 रश्मियों= छः रश्मियों की ऊर्जा के व मूल ऊर्जा को मिलाकर सातों रश्मियों व रंगों को अलग अलग करके मनचाहे तरीके से अपने लिए नवीन सृष्टि से लेकर प्रलय तक प्रयोग किया जाता है,इन्हीं से दिव्य अस्त्रों का भी निर्माण किया जाता है।यही सब सूर्य विज्ञान कहलाता है,पर ध्यान रहे कि जब तक सूर्य है,तबतक ही ये रश्मियों का उपयोग किया जा सकता है,इसके बाद चन्द्र रश्मियों की सोलह कलाओं का उपयोग भी ऐसे ही किया जाता है।यही ब्रह्म विद्या है,श्री विद्या भी यही है,ठीक ऐसे ही उसी सूर्य और उसकी त्रिशक्तियों का सिद्धासिद्ध महामंत्र से भी सहजता से उपयोग है।पहले मन को स्थिर करो।तब सब होगा।
जो इतना आसान नहीं है।
वैसे इन्हीं सप्त रश्मियों के महाज्ञान से ही हनुमान जी जैसे अन्य अमर पात्र अमर रहे है।
ओर इस सूर्य ऊर्जा का सम्बन्ध कहां से है,ये जानना:-
नाभिचक्र:-मनुष्य शरीर में विश्व ब्रह्मांड की आत्मा सूर्य की तरहां सूर्य का तेज इसी चक्र में स्थित है,उसे साधना से प्रकट करना पड़ता है,तब हम इस नाभिचक्र में एक एक करके सूर्य की त्रिशक्तियों को देखते व इनपर अधिकार करते है,ये त्रिशक्तियों के अलग अलग मंत्रों में अलग अलग बीजमन्त्र दिए है,,लेकिन असली बीजमन्त्र है ईं-ईम,, उसके प्रकट होने पर सप्त रश्मियां प्रकट होती जाती है,फिर त्रिशक्ति की तीन मनोहवा नाड़ियों के दर्शन होते है,फिर इन्ही तीन के त्रिगुणात्मक योग बढ़ता जाता है,जिसका योग बनता है,72 हजार रश्मियां या नाड़ियां, जो पहले सम्पूर्ण शरीर मे विभिन्न रंगों से प्रकाशित ओर फैली दिखती है,72 का अर्थ है-7+2=9 यानी सम्पूर्ण नवग्रहों की शक्तियों के दर्शन व उन पर अधिकार।यो यहां मैं एक गुप्त योग सूत्र बता रहा हूँ-A=em9
यानी
Aआत्मा=e-इच्छाशक्ति+m-महत्तव-9 आयाम।
इसी का भौतिक सूत्र बनाया था आइंस्टाइन ने-E=mc2,,
पर ये इस योग सूत्र से बहुत छोटा व कम विज्ञानी है।
तो इसी योग सूत्र का उपयोग योग करके सूर्य की शक्तियों पर अधिकार करते व जीवन मृत्यु के परे,शाश्वत अमरता पाते है।
यो अब कुछ चिंतनीय प्रश्न है कि योग में कहा है कि सूर्य का नाभिचक्र में वास है,वहां से या कहीं और से,क्योकि पंचतत्वों पर अधिकार का मतलब है कि,कंठ चक्र तक अधिकार करना,तब जाकर के पंचतत्वों पर अधिकार होगा और फिर इन पंचतत्वों की समिश्रित पँचत्तवीं ऊर्जा को किस चक्र पर संग्रहित यानी इकट्ठी करना और फिर उसे अपने शरीर मे उपयोग करना,ये विषय आता है,तो वो कहां होती है?वो कौन सा नाभिचक्र है?
क्योकि केवल इन पंच चक्रों को जाग्रत व अधिकार करने से ही काम नही चलेगा,क्योकि कंठ तक तो,केवल पंचतत्व है,तब इससे अगला चक्र है,आज्ञाचक्र,तो वहीं इन पंचतत्वों की समल्लित समिश्रित ऊर्जा भी दो भागों में ऋण ओर धन में बंट कर के एक होती है।
ओर फिर उस पंचतत्वों की एक हुई ऊर्जा को फिर से वापस उन्हीं चक्रों में उपयोग को भेजने की कला भी आनी चाहिए।
तब अंदर से प्राप्त ऊर्जा को किस स्थान से सम्पूर्ण शरीर मे उपयोग को भेजना महत्त्वपूर्ण है।
फिर प्रश्न आता है कि,जो ऊर्जा उपयोग के बाद फिर शेष बची यानी उपयोग इतेमाल नहीँ हुई, यानी खर्च नहीं हुई,या अपच रही,पची नहीं,तो वो बची ऊर्जा कहां से निकलती है,जैसे कि,हम जो भोजन खाते है,उसका बचा भाग हमारा शौच व यूरिन बनकर बाहर निकल जाता है, या फिर मेद यानी फेट बनकर हमारे शरीर में स्टोर हो जाता है।
तो ठीक ऐसे ही, ये बची ऊर्जा कहां निकलती या इकट्ठी हो जाती है?
सबसे बड़ा प्रश्न है कि,इन पंचतत्वों को एक एक करके उन्हें धारणा करके फिर अपने में उन्हें आत्मसात करने की वो विद्या क्या है?
ओर इन पंचतत्वों की ऊर्जा को किससे खींचें,पृथ्वी से या इस पृथ्वी पर फैली हुई पंचतत्वों से बनी सूक्ष्म प्रकृति से या सूर्य से या पहले चंद्रमा से या केवल प्राण शक्ति से?
ओर क्या आज की इस प्रदूषित पंचतत्वों से बनी विकृत हो चुकी ऊर्जा से शक्ति प्राप्त करके कौन सी अमरता प्राप्त होगी? प्रदूषित व विकृति लिए अभिशप्त भरी अमरता,जिसका परिणाम पता नहीं?
या पूर्वत महापुरुषों की तरहां अमरता?
ओर उस अमरता का क्या करोगे की,जब ये सब के सब पहले भी अमरता पाए,महापुरुष,जो आज गुप्त लुप्त व अदृश्य रहककर जीवन जीते है।
तो आप क्या करेंगे,ऐसे अमरता के गुप्त लुप्त,अदृश्य जीवन का?
तब क्या अमरता नहीं पाए?
तो इसकी एक विधि है,विश्व ऊर्जा को अपने मे खींचने की,वो है प्राणायाम विधि से,पर इससे केवल स्थूल प्राण शक्ति की खिंचती है,सूक्ष्म नहीं,तो सूक्ष्म प्राण को कैसे खींचे?तो,उसके लिए सूक्ष्म प्राणायाम साधना करनी सीखनी होगी,उस सूक्ष्म प्राणायाम विधि में भी सूक्ष्म पूरक व सूक्ष्म कुम्भक व सूक्ष्म रेचक विधि का अभ्यास किया जाता है,वो इसके जानकर गुरु से सीखी जाती है।अन्यथा ऊपर कहे अनियंत्रित परिणाम भोगने पड़ेंगे।
सबसे उत्तम है,रेहीक्रियायोग विधि,,
रेहि क्रियायोग करें:-
रेहीक्रियायोग का मन शक्ति के साथ शब्द ब्रह्म मन्त्र का उच्चारण करते हुए आरोही अवरोही चक्र के चलाते रहने से स्वयं ही इस स्थूल शरीर का शोधन व दोहन होता चलता है और फिर स्थूल से सूक्ष्म व सूक्ष्म से आगे विज्ञानमय शरीर मे प्रवेश होकर सन्तुलित प्रवर्ति के साथ आपको पंचतत्व व उसकी मिश्रित ऊर्जा पर अधिकार होता है,तब आप खुद इस शरीर के त्रिआयामी से लेकर चौसठ आयामो का ज्ञान और इन सब आयामो के बीच का शून्य व महाशून्य यानी हॉल्स को पार करने आदि का ज्ञान पाते हुए,अनन्त चमत्कारों से भरा जीवन पाते हो।
शेष यहां रह गए प्रश्नों का उत्तर आगामी सत्संग में बताऊंगा।इतने इस विषय पर चिंतन के साथ अभ्यास करें।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
स्वामी सत्येन्द्र सत्यसाहिब जी
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