नवरात्रि ओर योग चक्र कुंडलिनी साधना और सिद्धि..करने का क्या रहस्य है,बता रहें हैं महायोगिधिराज स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…
जिस भी वार से नवरात्रि प्रारम्भ हो,उस दिन उस वार के देव देवी यानी शक्ति का प्रवाह अधिक रहता है,उस दिन सम्पूर्ण विश्व ब्रह्मांड में व्याप्त परमा प्रकर्ति में स्वभाविक रूप से चेतना अधिक होने से बहुत ही शीघ्र जप ध्यान और सिद्धि लाभ होता है, जैसे आज शनिवार से नवरात्रि प्रारम्भ है,तो आज मनुष्य में स्वाधिष्ठान चक्र पर कुंडलिनी शक्ति यानी इंगला पिंगला के स्वभाविक मेल से सुषम्ना नाडी में प्राण कीअधिक शक्ति का प्रवाह रहेगा,यो इस दिन स्वाधिष्ठान चक्र के बीज मंत्र-पुरुष में ‘वं’ ओर स्त्री में ‘गं” का जप करने से स्वाधिष्ठान में विराजित शक्ति यानी भाग्य के जाग्रत होने का अधिक कारण ओर लाभ होता है।वैसे इसे वक्री यानी वाममार्ग साधना कहते है,क्योकि चारों नवरात्रि में से कोई भी नवरात्रि किसी भी दिन से प्रारम्भ होती है।यो अलग अलग क्रम के दिन से अलग चक्र से कुंडलिनी का प्रवाह मनुष्य में नीचे मूलाधार चक्र में प्रवेश करके फिर नीचे से ऊपर सहस्त्रार चक्र की ओर गति करता है।यो इस विलोम चक्र ओर उसकी विलोम गति के चलने से इस प्रकार की कुंडलिनी जागरण को वाममार्ग यानी वक्री जागरण की साधना भी कहते है।
नवरात्रि के पहले दिन के साधना के प्राम्भ में जो घट स्थापना का कर्मकांड होता है,उसे योग में अपने शरीर को ॐ की त्रिगुण शक्ति-तम-रज-सत के नांद से अपना अंगन्यास करते हुए,केवल अपनी उपस्थिति का ध्यान अभ्यास करने का नाम ही घट स्थापना यानी अपने शरीर मे जो त्रिप्राण है-इंगला-पिंगला-ओर इनका मेल सुषम्ना को संतुलित करने सच्चा अर्थ है।यहां ॐ का अ-तम है,यानी पिंगला सूर्य पुरुष नाडी है-उ-रज यानी दोनों तत्वों का मिलन या रमण यानी क्रिया योग शक्ति सुषम्ना है और म-सत गुण या इंगला स्त्री शक्ति नाडी है।स्त्री में ये उसके विपरीत होती है।वहाँ ॐ का ओ-ई-म की क्रिया होती है।और अंत मे आगे चलकर पुरुष और स्त्री में ॐ की तीसरी अवस्था ओ-म का उद्धभव होता है। ओर अंत मे यही ॐ का विलोम रूप अवस्था म-उ-आ=माँ और समस्त बीजमंत्रों का जननी स्वरूप प्रकट होता है,तभी ॐ को सभी बीजमंत्रों के पहले लगाया जाता है।यहाँ ओर भी बड़े गूढ़ रहस्य है,जो तुम्हे समझ नहीं आएंगे।वो गुरु से दीक्षा लेकर ओर उनकी सेवा से उनकी प्रसन्नता से वरदान पाकर समझे जाते है।
वैसे आपको नवरात्रि के पहले दिन कुंडलिनी के 5 बीज मन्त्रों की एक एक दिन के हिसाब से साधना करनी चाहिए,तो अत्याधिक लाभ होगा।
पहली नवरात्रि को पुरुष को लं बीज मंत्र से ओर स्त्री को भं बीज मंत्र से जप करते हुए,अपने मूलाधार चक्र से लेकर अपने समस्त जनेन्द्रिय भाग में अपने प्राणों के प्रवाह होने का ध्यान करना चाहिए।यो पुरुष में शिवलिंग चक्र ध्यान और स्त्री में श्रीभगपीठ चक्र ध्यान होने से अद्धभुत शक्ति लाभ होगा।
ठीक ऐसे ही दूसरी नवरात्रि में स्काधिष्ठान चक्र का ध्यान करते हुए पुरुष को वं बीज मंत्र से ओर स्त्री को गं बीज मंत्र से जप ध्यान करना चाहिए।
तीसरे नवरात्रि को अपनी नाभि चक्र का पुरुष को रं बीज मंत्र से ओर स्त्री को सं बीज मंत्र से जो ओर ध्यान करना चाहिए।
चौथे नवरात्रि में अपने ह्रदय चक्र का पुरुष को यं बीज मंत्र से ओर स्त्री को चं बीज मंत्र से जप ओर ध्यान करना चाहिए।
पांचवे नवरात्रि में अपने कंठ चक्र का पुरुष को हं बीज मंत्र से ओर स्त्री को मं बीज मंत्र से जप ओर ध्यान करना चाहिए।
छटी नवरात्रि में अपने तालु चक्र का पुरुष को अपने मुख में ऊपर के तालु में जो गडढा है,उसमे अपनी जीभ को ऊपर की ओर उठाकर इन पांचों बीज मंत्र का जप ध्यान करना चाहिए,पुरुष को ॐ ळं वं रँ यं हं नमः का ओर स्त्री को ॐ भं गं सँ चं मं नमः का जप के साथ ध्यान करना चाहिए,क्योकि तालु चक्र में ही ये पांचों बीज मंत्र एकत्र होकर मूल शब्द बीज में लय होने प्रारम्भ होते है,ओर नमः ही सब बीजों का मूल बीज स्थिति है।ओर ठीक तालु चक्र में ही पांचों बीज मन्त्रों के मिलने से पँचत्तवी सिद्धि का प्रारम्भ होता और प्रगाढ़ ध्यान होने से समाधि का प्रारम्भ होता है।पर याद रहें,केवल तालु चक्र में ही शुरू से जप ध्यान करने से कोई लाभ नहीं होगा।यो बताये क्रम से ही जप ध्यान करें,तभी कुछ सम्भव होगा।तब तालु में पांच बीजमंत्रों के समल्लित होने से मुल कुंडलिनी शक्ति का आपके ह्रदय चक्र में अनुभूति से कर शुद्ध दर्शन आदि का क्रम शुरू होता है।ये विषय गूढ़ है और खेचरी मुद्रा की सिद्धि होती है।
अब सातवी नवरात्री ने इसी सच्चे “पंचाक्षर” के नाम से जो मन्त्र विद्या का रहस्य केवल योगियों को पता है,वो पंचाक्षर ये ही है,ओर ये ही उसकी जप ध्यान विधि है,की अब पुरुष अपने आज्ञा चक्र में “ॐ ळं वं रँ यं हं नमः फट स्वाहा” ओर स्त्री को “ॐ भं गं सँ चं मं नमः फट स्वाहा” पंचाक्षरी को जपना ओर ध्यान करना चाहिए।यहाँ स्वाहा का अर्थ अपनी आत्मशक्ति का विस्तार अर्थ है। तब इस पंचाक्षरी मन्त्र का मूल बीज से एक ही समल्लित शक्ति बनकर फट से प्रस्फुटित होकर आज्ञा चक्र में द्वदल में मन की दोनों शक्तियों का एक बनकर सूक्ष्म शरीर मे कुंडलिनी शक्ति का जागरण होता है।
पहला पंच तत्वों के शुद्ध होने से केवल अन्नमय शरीर और वायु यानी प्राण शरीर का कुंडलिनी जागरण होता है।फिर यहां आज्ञा चक्र में मन शरीर से परे सूक्ष्म शरीर का जागरण होता है।
अब अष्टमी नवरात्रि को साधक अपने आज्ञा चक्र से एक उंगल ऊपर मस्तक में गुरु चक्र स्थान पर जप ध्यान करें।इस चक्र पर पंचाक्षर की एक शक्ति-ईं यानी ईम शब्द बीज का स्पर्शात्मक एक अद्धभुत नांद की अनुभूति होती है,यही ईं ही पुरुष के रूप में ईश्वर अनादि जगत जनक यानी जगदीश्वर और स्त्री के रूप में ईश्वरी अनादि जननी शक्ति है,इस ईं यानी इसके रूप ईश्वरी का जननी नाम ही जगतजननी या जगदीश्वरी कहलाता है।यही जीव जगत की मूल जनक पिता और जननी माता है।जो अष्टमी शक्ति है,ये सच्ची कुंडलिनी शक्ति और उसके जनक ओर जननी के रूप में युगल रूप दर्शन होने है।यही काल महा काल ओर उसकी शक्ति महाकाल या महाकाली कहलाती है।ओर यहीं इन सबका एक रूप गुरु जो अर्द्धनारीश्वर या अर्द्घनारेश्वर का दर्शन है।यहां तक का दर्शन और विषय है,सविकल्प समाधि ओर उसके दर्शन,यानी भेद अवस्था,यानी अभी गुरु और शिष्य का अपना अपना लिंग शरीर का भेद बचा है।ये ही द्धेत अवस्था है।
और अब आता है नवमी नवतरात्री की साधना,यहां साधना यानी प्रयत्न यानी समस्त कर्म करने का भाव आदि समाप्त हो जाते है,,तब कालातीत अवस्था का दर्शन,जिसे योगी अद्धेत अवस्था ओर निर्विकल्प समाधि का प्राम्भिक दर्शन कहते है।क्योंकि सच्ची निर्विकल्प समाधि के बाद केवल समाधि या निर्वाण समाधि की प्राप्ति होती है,जिसमें केवल अपनी ही आत्मा के ये सब दर्शन है,ये समझ आता है और तब आत्मसाक्षातकार होता है।
तब नवमी नवरात्रि को नवरात्रि का समस्त अंहकार का अंधकार समाप्त हो जाता है।तब केवल आत्मा की सोलह कलाओं का एक रूप आत्मरूप के दर्शन होते है,तब इस सविकल्प ओर निर्विकल्प अवस्था के बीच की अवस्था निर्वाण अवस्था के रूप दर्शन होते है,जिसे दुर्गासप्तशती में निर्वाण मंत्र के नाम से वर्णित किया है।समस्त निवारणों का निर्वाण होना अर्थ व दर्शन है।यहाँ कोई जप व ध्यान नहीं होता है।यहां केवल सहस्त्रार चक्र में परमानन्द की अनुभूति ही होती है।तभी देवी या देवता,जो हमारी ही आत्मा का रूप है,उसके वरदानी दर्शन होता है।यही पूर्णिमां के दर्शन साक्षात्कार है।
चूंकि सप्ताह में 7 दिन होते है,ओर प्रारम्भ ओर समाप्ति का दिन मिलकर एक हो जाता है,वो अष्टम दिन बन जाता है।यो अष्टमी मनाने का प्रचलन अधिक है और यदि हमने प्रारम्भ ओर अंतिम दिन से अगला दिन को नवमी माना,तो वो उस सप्ताह का प्रतिपदा दिन यानी पुर्नरावर्ती दिन गिना जाएगा,इसलिए नवमी को परब्रह्म दिन माना जाता है।इसलिए ये दिन अष्टमी में समल्लित यानी लय होता ओर प्रकट यानी सृष्ट होता रहता है।यो नवरात्रि के दिनों में घटत बढ़त होती है।और पांच दिनों को यानी सोमवार को स्त्री दिन-मंगलवार को पुरुष दिन-ओर बुधवार को बीज दिन-गुरुवार को पुरुष दिन-शुक्रवार को स्त्री दिन ओर शनिवार को बीज दिन तथा रविवार को लय-सृष्टि का संयुक्त दिन माना गया है,वैसे भी पूरी सृष्टि में तीन ही तत्व है-पुरुष और स्त्री और इनका परस्पर संयुक्त अवस्था यानी बीज।यो आगे ये ही क्रम चलता रहता है।और पंच तत्व स्थूल या दिखाई देने वाले रूप,प्रकर्ति यानी स्त्री,पुरुष,बीज यानी नमः और बीज का प्रस्फुटन ओर इस फूटने यानी फट से विस्तार यानी स्वाहा तक है।ओर आगे सूक्ष्म स्तर यानी नहीं दिखाई देने वाले तत्व प्रारम्भ होते है-छटा ओर सातवां व आठवां दिनों को परा तत्व अवस्था ओर नवम को इन सब अवस्था का मूल कारण स्तर यानी कारण शरीर या आत्मा के रूप मै अंतिम अवस्था मानी है,जो स्थिर है।यही सब योग और तंत्र मंत्र ज्ञान का विशाल स्तर है।यही पूर्णिमा है।
ये है सच्ची नवरात्रि साधना और सिद्धि।
स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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