आपने योगियों की जीवनी में पढ़ा होगा की कुछ योगी अपने पुराने वृद्ध शरीर को त्याग कर किसी नवीन आयु के मरे हुये व्यक्ति के शरीर में अपनी आत्म विद्या यानि प्राण शरीर की सिद्धि से प्रवेश कर नवीन शरीर धारण कर अमरता और अपनी शेष साधना को करते जीवन जीते है और दूसरा ये है की किसी अन्य के मृत व्यक्ति के शरीर में जाकर उसके शरीर का उपयोग कर अपना कार्य सिद्ध कर पुनः अपने शरीर में वापस आ जाते है जैसे-शँकराचार्य का भारती मिश्र से शास्त्रार्थ में काम विषय में मृत राजा के शरीर में प्रवेश कर उसकी रानियों संग काम ज्ञान प्राप्त किया पुनः अपनी देह में लोट भारती मिश्र को शस्त्रार्थ में पराजित किया ऐसे और भी योगियों के उदाहरण है।अब प्रश्न ये है की क्या ये सम्भव है? और कैसे या सम्भव नही तो कैसे?:-आओ जाने:- योगी कहते है की जब योगी का प्राण शरीर उसके वश में आ जाता है यानि नाभि चक्र खुल जाता है तब वो नाभि चक्र की बहत्तर हजार नाड़ियों के रहस्य को जान जाता है जिनसे शरीर और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुयी है ये योग रहस्य प्रत्य्क्ष दिखाई और अनुभूत समझ आता है तथा इस योग को इससे आगामी चक्र के जागरण की भी आवश्यक्ता पड़ती है वो है मन चक्र या ह्रदय चक्र का जागरण यहाँ पर योगी जो मन की मनोवहा नाड़ियों का दर्शन करता है जो समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में योगी के शरीर से अनन्त जाल की भांति विश्व व्याप्ति है हम सभी किसी न किसी एक नाड़ी यानि मन रश्मि रूपी एक रस्सी से बंधे हुए है यही मन रश्मि हमारा एक दूसरे से कर्म संस्कार सम्बन्ध है यो उसे खोजना और जानना तब उसमें योगी अपनी किस नाड़ी के माध्यम से अपने प्राणों को और मन को एकाग्र करता हुआ किसी एक नाड़ी जिसका सम्बन्ध उस मृत व्यक्ति से है उसमें प्रवेश कर अपने शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता हुआ पुनः उस शरीर में अपने प्राण और मन शरीर का विस्तार कर जीवित हो उठता है।ये अति गम्भीर विषय है यदि योगी का मन और प्राण पूरी तरहां वशीभूत नही है तो वो योगी दूसरे के शरीर में फंस सकता है लोट नही सकता है यो इसकी सिद्धि आवश्यक है।
अब देखे की ये कैसे सम्भव नही है:-1-योगी की यदि अंतर्दृष्टि नही खुली है तो वो कैसे जान पायेगा की किस शरीर में उसे जाना है क्या वो शरीर उसके लिए उपयुक्त है क्योकि उसका शरीर तो पूर्व तपस्या से शुद्ध हो गया था अब ये नवीन शरीर उसके उपयुक्त शुद्ध नही है उसे पुनः शुद्ध करने में अति समय लगेगा तब कैसे योगी उस शरीर में जायेगा?
2- कोई भी मृत शरीर इन अवस्थाओं में मरता है-हत्या किया शरीर जो की कटा फटा होता है-आत्महत्या का शरीर जो शापित होता है-जहर खाया शरीर वो भी विष से विकृत हुआ होने से विषेला है उसका उपयोग कैसे करेगा?-अल्पायु में मरा बाल्क या युवा मनुष्य तब भी उसका ह्रदय की ग्रन्थि फट जाती है और मस्तिक के सेल्स यानि कोशिकाएं भी नष्ट होती है तब उस शरीर में प्रवेश करता हुआ योगी उस शरीर को कैसे पुनः पूर्ण स्वस्थ करेगा?
यदि उस योगी में इतनी ही शक्ति सिद्धि है की वो किसी शरीर को पुर्न स्वस्थ और उसके टूटे अंगो व् ग्रन्थियों व् त्वचा को निर्मित कर सकता है तो इतनी महनत वो दूसरे शरीर में करेगा उतनी महनत में तो उसी का पुराना शरीर भी स्वस्थ और नवीन हो सकता है या नही? अर्थात हो सकता है तब वो क्यों किसी अन्य तप जप रहित विषैले और कटे फ़टे पाप बल से युक्त शरीर में जायेगा? बताओ? अतः नही जायेगा। दूसरा प्रश्न है की दूसरे के शरीर में जाकर वहाँ उस योग रहित शरीर के मध्यम से क्या ज्ञान जानना चाहता है जो उसके शरीर से प्राप्त नही हो सकता है?
क्योकि अन्तर्द्रष्टि खुल जाने पर संसार को कोई भी विषय ऐसा नही है जो उसे अपने ही शरीर में ज्ञात नही होगा अर्थात सभी विषय का ज्ञान आत्मा में होता है और वो योगी अपनी पूर्वजन्म के शरीरों में वो सब भोग और जान चूका उसे केवल उन पूर्व जन्मों के उसी के कर्मो में अपना संयम यानि गम्भीर ध्यान करने की आवश्यकता भर है और वो जान लेगा जो जानना चाहता है यदि काम विषय प्रश्न है तो मूलाधार चक्र में संयम करना भर है उसे सभी भोगों का रहस्य उसके प्रयोगों के साथ प्राप्त हो जायेगा प्रश्न है की प्रत्यक्ष भोग वहाँ कैसे प्राप्त होगा वहाँ योगी के साथ कौन स्त्री या पुरुष भोग में संग देने को है?जिसका संग ले वो भोग रहस्य को प्राप्त कर सके? तब उत्तर है की भोगों तो वो योगी पूर्व जन्म में भोग चूका तभी उसे उस भोगों से ऊपर का योग समझ आया है यदि शेष है तो पूर्व जन्म के विपरीत लिंगी के संग के चित्रण को अपने मनो जगत में सजीव कर लेता है जैसे हम कल्पना को चित्र में बदल देते है या हम कल्पना को अपने स्वप्न में भोगते है जो की सोचा भी नही था ठीक वेसे ही योगी उस कल्पना को स्वप्न की जगह अपने चैतन्य ध्यान जगत में जीवित करता हुआ यथार्थ में बदल देता है और वहाँ चेतना युक्त विचार के साथ उस विपरीतलिंगी से युक्त होकर रमण यानि भोग करता हुआ मनवांछित ज्ञान को एक एक क्रम से ज्ञान प्राप्त करता है तब उसे क्या आवश्यकता किसी अन्य शरीर में परकाया प्रवेश करने की बल्कि जो वो ये योग कर रहा है ठीक यही परकाया प्रवेश सिद्धि कहलाती है क्योकि यहाँ वो पूवर्त कल्पना के दूसरे और मनवांछित सत्य शरीर को अपने मनोयोग जगत में जीवित किये उसमें प्रवेश या उपयोग किये हुए है ये है परकाया प्रवेश। ठीक यही शँकराचार्य ने किया क्योकि योगी अपने पूर्वजन्मों में राजा रहा होता है क्योकि तपेश्वरी सो राजेश्वरी और राजेश्वरी सो नरकेश्वरी या योगेश्वरी अर्थ तप से राजा बनता है यदि तप नही करे तो अभी पुण्यबलों को उपयोग कर दरिद्र बनकर नरक पाता है और राजा होने पर भी यदि योग करता है तब राजा से वो योगी बनता है यो वो पूर्वजन्म में राजा भी रहे थे उसी पूर्व योग अवस्था में जाकर संयम् किया और ज्ञान पाया यही महात्मा महावीर और महात्मा बुद्ध को ज्ञान था। तभी वर्तमान के कथित योगी नाम पर मात्र तप के बल से योग राजा है वे योगी नही है यो उन्हें योग रहस्य नही पता है।
अध्यात्म योग विद्या में सिद्ध गुरु और शक्तिपात की आवश्यकता:- मन की दो धाराएं है एक शाश्वत ज्ञान-दूसरी उस शाश्वत ज्ञान का पुनः पुनः उपयोग कर आनन्द प्राप्त करना इसमें जो आनन्द प्राप्त करने वाली मन की दूसरी धारा है उसे गुरु अपनी योग शक्ति से यथार्थ अंतर की और मोड़ देता है तब यही धारा दिव्य दृष्टि बन जाती है और तब मन से देख पाता है की मेरा कर्म क्या और उसका फल क्या व् कैसे प्राप्त होता है यही साधक का ध्यान करना कहलाता है इतने कितना ही साधक प्रयास करे वो मन की बहिर धारा को अपने अंदर नही मोड़ पाता है यो ही गुरु की प्रबल आवश्यकता होती है यही दीक्षा रहस्य है दूसरी इच्छा की शक्ति की प्राप्त ही दीक्षा कहलाती है यो योगी गुरु अर्थ महत्त्व है।
सत्यास्मि क्रिया योग से कैसे सब योग रहस्य ज्ञान और सिद्धि उपलब्ध होती है:- सत्यास्मि क्रिया योग विधि से ध्यान करने पर प्रत्येक साधक को मंत्र और मन व् प्राणों का एक साथ आरोह अवरोही चक्र से एक एक क्रम से नो चक्रों का क्रमशः शोधन होता चलता है जिसके फलस्वरुप साधक को पहले ही प्राण शरीर की प्राप्ति होती है आगे मन शरीर जिसे सूक्ष्म शरीर कहते है इसकी प्राप्ति पर सकारात्मक शक्ति के विकास के चलते साधक में सभी सकारात्मक गुणों का आकर्षणीय चुम्बकीय व्यक्तित्त्व की प्राप्ति होने उसे सभी लोग पसन्द करते है यो बिगड़े कार्य बनते है आदि आदि भौतिक जगत में सभी उन्नतिकारक लाभ होते है। नवीन विचारों और चिंतन का उदय होता है यो दैनिक कार्यों में लाभ होता है और आप अन्य मित्रों को भी सही राय दे पाते है यो उनकी भी प्रशंसा के पात्र बनते है और परिवारिक दायित्त्वो की उचित समयानुसार पूर्ति करते हुए अर्थ धर्म काम और आत्म मोक्ष को प्राप्त करते है यो गुरु निर्दिष्ट मंत्र और ध्यान विधि को करते जाओ और अपने भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में सम्पूर्णता पाओ। यो जब साधना करते आप मन शरीर के दर्शन कर पाते है तब आपमें परचित्त ज्ञान अन्य के विचारों को जानने की शक्ति स्वयं प्राप्त हो जाती है इसके लिए कोई भिन्न साधना नही है और जब मन शरीर की प्राप्त होती है जिसे सूक्ष्म शरीर भी कहते है तब परकाया प्रवेश यानि सभी कायाओं में मैं ही विद्यमान हूँ ये ज्ञान प्राप्त होता है यही सब योग सिद्धि अर्थ है ना की भिन्न भिन्न चक्रों के तथाकथित मन्त्रों के नाम पर जनसाधारण को मुर्ख बनाया जाता है ये नो चक्र भी मन शरीर में होते है जैसे दूध में घी न की दूध में झकने से घी मिलता है घी प्राप्ति का केवल एक मात्र उपाय है दही का एक क्रमविधि से मन्थन करते रहना और समयानुसार घी प्राप्त होगा यो गुरु विधि से साधना करने पर स्वयं ही समयानुसार ये सब योग विद्या प्राप्त होती है यो व्यर्थ के भ्रमों को जानो और मुक्त हो।
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