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सत्यास्मि योगनुभूति सर्वद्रष्टि दर्शन

ये घटना तब की है जब मैं नोवी कक्षा में पढ़ता हूँगा और उन दिनों सेहत बनाने के लिए कसरत दंड बैठक लगाने का बड़ा जूनून था व् हम किराये पर प्रेमनगर में रहते थे वहाँ चौक में एक बड़ा नीम का पेड़ था मैं अपनी खाट उसी के नीचे डाल कर रात को सोता था और जब घोर ठंड पड़ती थी तब अपने घर में जाकर सोता था नही तो एकांत की वजह से वहीँ सोने की कोशिश करता था ताकि ध्यान कर सकूँ उस समय मैं कोई मंत्र नही जपता था बल्कि हमारे गांव में दादा और चाचा की लायी शोकिया ज्ञानवर्धन की पुस्तकों की एक अलवारी थी उसमें पुरानी योग की पुस्तके थी जैसे पतंजल योग दर्शन उन्हें पढ़ता था उसमें जो विभूतिपाद में संयम विषय है की इस अंग आदि पर मन एकाग्र करने से ये उपलब्धि होती है वो संक्षिप्त लिखा था जो की सभी जिज्ञासु पढ़ते है अन्य कुछ नही यो बस ध्यान करता था उस समय मेरा ध्यान केवल चिंतनात्मक था जिसमें विचार करता था की ये योग और जगत और संसार में दुखों का कारण और जो ज्ञान पढ़ता था उसपर चिंतन करता हुआ अपने ह्रदय के सामने मन से देखता हुआ वैचारिक ध्यान करता था सो यही किया करता था तब ऐसे ही एक दिन में सामान्य ध्यान कर रहा था की मेरी द्रष्टि धीरे धीरे ऊपर की और उठती गयी और मुझे पहले आकाश के दर्शन हुए और ऐसा लगा अब ये दृष्टि अटक सी गयी है और फिर भी ये ऊपर को खिंच रही है तब अचानक इसी तनाव के चलते कट की आवाज हुयी और मुझे लगा की मेरी द्रष्टि मेरे सिर के ठीक मध्य से देखती हुयी मेरे सिर के उर्ध्व आकाश में किसी बिंदु पर केंद्रित हो गयी और वहीँ टिके हुए मैं अनुभव कर रहा हूँ की मैं अपने चारों और ऊपर नीचे आसपास अपने शरीर के साथ भी एक साथ एक ही द्रष्टि से देख रहा हूँ जो दिख रहा था वो वही था जो उस समय मेरा आसपास था जेसे आकाश में अंधकार भरी रात्रि और तारे थे तभी ये भी चेतना हुयी की कहीं मेरी आँखे यहीं नही ठहर जाये और ये यही रही तो मेरा क्या होगा कौन मुझे इससे बाहर निकलेगा आदि तीर्व विचार आया और इसी विचार के चलते कट की हल्की आवाज से आँखे पहले जेसी नीचे की और आती चली गयी और धीरे धीरे चेतना सहज हुयी और आँखे खुल गयी रात्रि का पहर ही था मैं कुछ इसी चिंता में की इससे आगे नही करूँगा और लेट गया और सो गया इस दर्शन के उपरांत मन और अंतर्मुखी होता गया बाहरी संसार के सुखों से विमुख होता गया बस वही हो रहा था जो प्रबल प्रारब्ध कर्म था। यहाँ ये ज्ञान है की प्रत्यक्ष गुरु नही होने से इस दर्शन के विषय में आगामी क्या और कैसे हो ये मार्गदर्शन नही मिला परन्तु साथ ही ये भी ज्ञान है की आप बिन गुरु के भी साधना करते चलोगे तो भी योग दर्शन थोडा थोडा स्वयं ही बढ़ते शरीर शुद्धि अनुसार आपकी पकड़ में आते जाते है और इस दर्शन से मेरा अंतर्ज्ञान सूक्ष्म होने लगा था जो भी पढ़ता था वो रटने में नही समझने में मन लगता था और धार्मिक विषयों के बारे में ज्यादा रूचि बढ़ी उन्हें अपनी तरहां से समझने की छमता बढ़ने लगी और अन्य अध्यात्म दर्शन बढ़ने लगे.. यही यथार्थ में अन्तःत्राटक और आकाश त्राटक भी कहलाता है और दूसरी बात आप अपनी द्रष्टि को किसी चक्र पर नही रखे आपके योग के बढ़ने पर आपकी प्राण शक्ति ज्यों ज्यों उर्ध्व होती जायेगी त्यों त्यों आपकी दृष्टि भी उर्ध्व होती हुयी स्वयं ही आज्ञाचक्र या जो मेने देखा सहस्त्रार चक्र के उर्ध्व आकाश में एक तारे पर केंद्रित हो गयी और तब इसी त्राटक अवस्था के चलते सर्वत्र दर्शन की अनुभूति हुयी यो एकमात्र गुरु प्रदत्त ध्यान करते रहो अवश्य कल्याण होगा।
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