यूँ कहते पूर्णिमाँ देवी ने श्वेत मोर को एक अपनी प्रसन्नता भरी कविता गुनगुनाई:-
ओ श्वेत मोर प्रिय विभौर
तुम शीश शोभाय मुझ भाल।
सत्ययता के वाहक आत्म रंग हो
तुम अति सुंदर स्वरूप अकाल।।
तुम्हें देख आनंद है होता
और नृत्य देता तन तंरग।
संगत बन प्रकर्ति देती
अद्धभुत मन अंतरंग।।
ओ स्वच्छ्ता के सुनहरे पंछी
तुममें शाश्वत प्रकट प्रेम।
पूर्ण चन्द्र की पूर्ण चंद्रिका
तुम से उजित रात्र बन प्रेम।।
तुम आलोकिक छवि हो मेरी
और समस्त स्त्रित्त्व हो लज्जा।।
स्वर्णयुक्त प्रभा पंखी हो
जिसकी तुलना नही है सज्जा।।
पीहू पीहू कूक तुम्हारी
वन गुंजित कुंज सदूर।
ह्रदय सुख पाता सुन कूकी
आनंद भर भर भरपूर।।
ओ प्रिय श्वेत वस्त्रधारी पंक्षी
मधुर पीक सुनाते नांचो।
उतरती अंतरंगित मेरे ह्रदय
तुम बसंत रागनी बांचो।।
जल सरोवर तुम्हें देखता
और कल कल करता ध्वनि।
हिलोरें लेता तट तक आ कर
बंधाई बांधने कमल पुष्प की कँगनी।।
तब घिर आते है मेघ गगन में
होकर तुझ संग वे प्रसन्न।
प्रेम कामना बुँदे बरसाते
बिखेरें खुले स्वर्णिक पंख पे कन।।
उन्हें छिटकते हुए तुम धरा पे नांचो
और वे नांचे घिर घुमड़ गगन।
मैं मोहित होती इस द्रश्य अलौकिक
रात्रि से प्रातः भर मगन।।
ये नील मोर प्रिय कृष्ण का
और तुम मेरे प्रिय मोर।
स्नेही वर तुम दोनों मेरा
इससे अधिक कहूँ ना और।।
ये अभयदान देकर दोनों मोरों को आशीर्वाद देकर पूर्णिमाँ उनकी आत्मा में ही समा गयी और दोनों मोर प्रसन्न व् चैतन्य होकर प्रेम से अपना अपना नृत्य करने लगे।
यो कभी भी किसी को निम्न और उच्च नही मानना चाहिए सभी का अपना एक शुभ अर्थ और लाभ का समय होता है।यो अपने गुणों को पहचानों और उनको शुभ कर्मों से गुणवान बना प्रकाशित करो यही सच्ची पूर्णिमाँ का ज्ञान है।।
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