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सत्य पूर्णिमाँ का प्रिय श्वेत मोर

प्राचीन काल में मोर के केवल दो रूप ही प्रमुख थे जिनमें एक नीलवर्ण और एक श्वेतवर्ण था जिसमें नील वर्ण को देवी सरस्वती ने और आगामी काल में शिवपुत्र कार्तिकेय ने अपनी प्रिय वाहन के रूप में ग्रहण किये और द्धापर युग में श्रीकृष्ण ने इसमें कामरूप कामनाओं को अपने प्रेम रास द्धारा सम्पूर्ण करने को स्वीकारा यो नीलवर्ण मोर का धार्मिक महत्त्व चारों और बढ़ने लगा तब इस पर श्वेतवर्णी मोर और नीलवर्णि मोर में वैरभाव की व्रद्धि हुयी और एक समय पूर्णिमा की चांदनी की प्रकाशित रात्रि को दोनों में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें दोनों बड़े लुहलुहान होकर निढाल हो गए और नीलवर्ण मोर घायल होते हुए भी अपने सभी महत्त्वों को लेकर अभिमान चिंतन में पड़ा था परंतु श्वेतवर्ण मोर भी घायल होकर अपना कोई भी महत्त्व नही होते हुए और भी दुखी चिंतन में वहीँ पड़ा था उनकी ये सब दशा देख पूर्णिमाँ को बडी दया आई और वो प्रकट हुयी चारों और प्रकाश फेल गया उनके आते ही दोनों घायल मोरों में उनकी कृपाशक्ति से स्वस्थतता आ गयी तब पूर्णिमाँ को देख दोनों मोरों ने नमन किया और अपनी वाणी में अपनी व्यथा कही चूँकि ईश्वरी सभी जीव जगत की उत्पन्न कर्ता है वो सब जीवों की भाषा जानती है उसने उन्हें बताया की मनुष्य हो या जीव सभी ईश्वर के बनाये है तुम मेरे ही प्रतिरूप हो मैं तुम्हारे रूप में नित्य हूँ तुम जो मेरे रूप में जो भी देख अनुभव कर रहे हो वो तुम्हारी अंतरात्मा का ही स्वरूप है तुम्हारे प्रश्नों का ही मैं उत्तर हूँ यूँ मैं तुम्हारे सामने प्रकट और तुम्हें ही आभासित हूँ यो तुम दोनों अपने अपने रूप में सम्पूर्ण हो भिन्नता में ही अभिन्नता और आनन्द है सभी एक से हो जाने पर नीरसता आ जायेगी यो भिन्नता है और प्रकर्ति के सभी रंग महत्त्वपूर्ण है तब भी उनमें नीलवर्ण विशालकाय विश्व आकाश का व्यापक रूप है ये अनन्त कामनाओं का संसार में प्रतीक है यो ये कर्म प्रतिक कार्तिकेय का कर्म वाहन अर्थ है चूँकि अर्थ को प्रमाण चाहिए यो ये मयूर माया रूप वाहन बना है और कर्म कामनाओं का कारण है कामभाव यो मयूर पंख के मध्य में ये योनि स्वरूप और दिव्य आँख रूपी चिन्ह है यो ये कामस्वरूप और कामना स्वरूप अर्थ को श्री कृष्ण ने अपने मुकुट में शीश पर धारण किया है और तुम श्वेतवर्ण मयूर सत्य नारायण के सत्य स्वरूप और मेरे पूर्णिमाँ के सतित्त्व और शीतल प्रेम प्रकाश के प्रतीक हो तथा सम्पूर्ण जीव और मनुष्य के आत्मसाक्षात्कार का प्रकाशित स्वरूप मोक्ष हो, सब रंगों का अंतिम लय तुम में ही होता है यो तुम भी सर्वोत्तम और हमारे प्रिय हो और ये वचन सुनकर श्वेतवर्णी मोर को अत्यंत सुखद अनुभूति हुयी और कालांतर में स्त्रियुगों के प्रारम्भ में तुम्हारा धार्मिक महत्त्व चारों और फैलेगा और जो अभी बहिर शक्ति के द्धारा हमारे कार्य होते है इस कथन में विश्वास अधिक रखते है औरअपनी आंतरिक शक्ति में नही रखते है उस मनोवर्ति वाले मनुष्य भक्तों में जो भी तम्हारे पंख को अपने घर,पूजाघर,वाहन,विद्या पुस्तक आदि वस्तु व स्थानों पर लगाएगा वो शीघ्र ही अतुलनीय शुभत्त्व और सभी प्रकार के बुरे प्रभावों से मुक्त होकर सभी सुखों को प्राप्त करेगा उसके घर परिवार में अद्धभुत शान्ति का वास होगा उसको रोग,दोष,संकटों से मुक्ति मिलकर मोक्ष की प्राप्ति होगी।।
यूँ कहते पूर्णिमाँ देवी ने श्वेत मोर को एक अपनी प्रसन्नता भरी कविता गुनगुनाई:-
ओ श्वेत मोर प्रिय विभौर
तुम शीश शोभाय मुझ भाल।
सत्ययता के वाहक आत्म रंग हो
तुम अति सुंदर स्वरूप अकाल।।
तुम्हें देख आनंद है होता
और नृत्य देता तन तंरग।
संगत बन प्रकर्ति देती
अद्धभुत मन अंतरंग।।
ओ स्वच्छ्ता के सुनहरे पंछी
तुममें शाश्वत प्रकट प्रेम।
पूर्ण चन्द्र की पूर्ण चंद्रिका
तुम से उजित रात्र बन प्रेम।।
तुम आलोकिक छवि हो मेरी
और समस्त स्त्रित्त्व हो लज्जा।।
स्वर्णयुक्त प्रभा पंखी हो
जिसकी तुलना नही है सज्जा।।
पीहू पीहू कूक तुम्हारी
वन गुंजित कुंज सदूर।
ह्रदय सुख पाता सुन कूकी
आनंद भर भर भरपूर।।
ओ प्रिय श्वेत वस्त्रधारी पंक्षी
मधुर पीक सुनाते नांचो।
उतरती अंतरंगित मेरे ह्रदय
तुम बसंत रागनी बांचो।।
जल सरोवर तुम्हें देखता
और कल कल करता ध्वनि।
हिलोरें लेता तट तक आ कर
बंधाई बांधने कमल पुष्प की कँगनी।।
तब घिर आते है मेघ गगन में
होकर तुझ संग वे प्रसन्न।
प्रेम कामना बुँदे बरसाते
बिखेरें खुले स्वर्णिक पंख पे कन।।
उन्हें छिटकते हुए तुम धरा पे नांचो
और वे नांचे घिर घुमड़ गगन।
मैं मोहित होती इस द्रश्य अलौकिक
रात्रि से प्रातः भर मगन।।
ये नील मोर प्रिय कृष्ण का
और तुम मेरे प्रिय मोर।
स्नेही वर तुम दोनों मेरा
इससे अधिक कहूँ ना और।।
ये अभयदान देकर दोनों मोरों को आशीर्वाद देकर पूर्णिमाँ उनकी आत्मा में ही समा गयी और दोनों मोर प्रसन्न व् चैतन्य होकर प्रेम से अपना अपना नृत्य करने लगे।
यो कभी भी किसी को निम्न और उच्च नही मानना चाहिए सभी का अपना एक शुभ अर्थ और लाभ का समय होता है।यो अपने गुणों को पहचानों और उनको शुभ कर्मों से गुणवान बना प्रकाशित करो यही सच्ची पूर्णिमाँ का ज्ञान है।।
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