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विधवा मुक्ति दिवस? 23 जून अंतराराष्टीय विधवा दिवस पर सत्यास्मि मिशन का वेधव्य मुक्ति दिवस की शुभकामनाएं


होता कुठाराघात अचानक
नव यौवन नव जीवन पर।
बिजली गिरती आकाश से मानो
अचानक हरे भरे तरुवर पर।।
जल उठता और जला जाता
पूर्ण होते नव रंग के पथ को।
झुलस जाते अभी उदित पुष्प वो
जो खिलने चले है नव गत को।।
बीच अधर में अधर पे रूकती
आती वो मधुर मुकुर मुस्कान।
बुझ जाते आँखों में जलते नव दीप प्रकाशित उदित अस्त बिन भान।।
कौन है इनका दोषी जग में
वो जो चला गया बन एक झोका।
या वो दोषी है जिसकी एक इच्छा थी
एक मात्र मिले मुझ मौका।।
कौन है किस हाय का दाता
कौन इस हाय ध्याय का लेता।
कौन की फैली जरा सी झोली
उसमें मिलता अग्नि स्फुर्लिंग ले सेता।।
सधवाओं से भरे समाज में
ये सधवा बन जाती मात्र विधवा।
तृष्कृत होती हर सुख प्रसन्न्ता
उत्सव हर निष्कृत ये विधवा।।
पुत्र की जननी बन रही जो गर्वित
वही देखती पुत्र विवाह पृथक बन द्रवित।
रह जाते सभी व्रत शेष वे
जिनमें मोक्ष नाम उस निर्वित।।
इष्ट के मंदिर खुले मात्र पट
नहीं स्पर्श कर सके ये अध्वा।
कर प्रणाम उस इष्ट निष्ठुर को
जिसने दिया ये जीवन विधवा।।
मन में कोपल हर बसंत जो खिलती
मुरझानी पड़ती स्वयं के हाथों।
चहक जो थी हर बातों में
वो दबा दी स्वयं धूल शूल हर नातों।।
उन्मुक्त जो यौवन सभी को होता
वही आज छिपा एक पर्दे ओट।
और सदा छिपानी पड़ती रहनी
उस चाहत पे स्वयं मार के चोट।।
अर्द्ध भरे जीवन के यौवन
जीना पड़े उपेक्षित स्वाद।
और करनी पड़े व्रद्ध साधुत्व धर्म की
बिन मांग के मांग भरे अवसाद।।
इसका ये जीवन गया अब यूँ ही
ज्यों शुष्क पड़ा वो ताल।
कब आएगी बरसात या बुँदे
मिटे जिव्हा चाट अधर कुछ गाल।।
कोई जन्म आगामी ऐसा भी होगा
जिसमें ये सावन सुखा न जाये।
पीह के प्रेम की प्यास मिटे जग
और पूरा जीवन सधवा पाये।।
त्यगने पड़ते नवीन वस्त्र सब
इस क्षीण जीर्ण अमान तन को।
मिलते उपहार या देता कोई
उपहासित जन की मंद मुस्कान ले मन को।।
आँखे रंग जगत के सब पहचानें
पर विस्मर्त करती हो निष्तेज।
छूती नित रंगत भरती उसी शय्या को
पर संग सोती अरंग भरी उस सेज।।
या इससे भी रिक्त और मिलेगा
तब क्या पाऊ ध्याऊँ उस स्वप्न।
मर भी नही सकती हो स्वेच्छित
अब सति बन उस पाये कर्क क्षन।।
सभी बंद है खुले दीखते
और जीवन चिंहित सब मार्ग।
चली जा रही कर दायित्व पूर्ति
हूँ वेध्वयित पथिक स्वं जनित अनंत के मार्ग।।
गुंजित हुयी किसी ह्रदय अंतर में
हे-नारि जान स्वयं का भान।
तोड़ भ्रम इस जो दूजे पकड़ा
कर निज जागरण आत्मस्वाभिमान।।
तू ही है सर्व कर्म की जननी
और तू ही सब मातृ जन्म।
दोष ना दे स्वं छिपे ईश्वर को
उसे जनित कर दे पुनः इस जन्म।।
उठ जाग देख हुआ सवेरा
तेरी इच्छा का इच्छित है प्रभात।
तोड़ अपने जन्में स्वं मृत्यु बंधन को
और कर नवीन सृष्टि मोक्ष पथ ज्ञात।।
चरण विधवा माँ कौशल्या के
राम ने छुए प्रथम आ वनवास।
और कैकयी माँ विधवा को
दिया आ स्थान ह्रदय के पास।।
कृष्ण सहित पांडव पुत्रों ने
किया विधवा कुंती सम्मान।
प्रथम आज्ञा माँ विधवा मानी
क्योंकि कुंती प्रकट आत्मसम्मान।।
वेधव्य शाप नही नारी का
ना वेधव्य नारी अपमान।
ये निर्भरता है नारी का दूजे
अपना खो कर आत्मवत् ज्ञान।।
जन्म जन्म के विधुर संतो को
अपनाया गोपिक सधुर विहार।
कृष्ण ने विधवा मीरा का
पहन लिया प्रेम पुष्प वरहार।।
यो ईश्वर नही कभी भी दोषी
दोषी स्वयं प्रेमविहीन कर्म।
ह्रदय प्रेम निज रिश्ते के तोड़े
वही तोड़ते वर्त वेधव्य बन धर्म।।
यो कभी ना तोड़ो प्रेमिक ह्रदय
जो मिले वही प्रेम अपनाओ।
कर्तव्य नही प्रेम रसिक बन जीओ
पुनः सधवा प्रेम जीवन पाओ।।
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