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21फ़रवरी को महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के जीवन में गुरु दीक्षा से प्रेमानंद से ब्रह्मानंद तक की निराली दुर्बोध अनुभूतियों को अपनी रचित कवित्त्व रूप में सत्यास्मि मिशन की और से स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी ने शुभकामनाएं देते कहा है की…

21फ़रवरी को महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के जीवन में गुरु दीक्षा से प्रेमानंद से ब्रह्मानंद तक की निराली दुर्बोध अनुभूतियों को अपनी रचित कवित्त्व रूप में सत्यास्मि मिशन की और से स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी ने शुभकामनाएं देते कहा है की…

!!निराला का ब्रह्म प्रेम!!

कर संगत प्रेमानंद की
किया जीवंत प्रेम अनूभूत।
खुली आँख प्रत्यक्ष देख
कृष्ण नीलवर्ण हुए अवभूत।।
ब्रह्म की दीक्षा ब्रह्मांन्द ली
जिव्हा स्वाद चखा महामंत्र।
मनन आखों से ध्यान किया
खुले अद्रश्य जगत के तंत्र।।
यूँ समझ आई शब्द लीला
और कलम चली निर्द्धंद।
अबोध का भी बोध किया
कवित्व चढ़ा चरम क्षण छंद।।
भावो ने खोले दुर्बोध द्धार
शब्द कलिकाएँ खिली कमल।
अर्थ स्वयं प्रकट हो अपार
शब्द भविष्यगत महाभाव विमल।।
जो देखा अनुगत अनुभूत कर
शब्द द्रष्टा बना अर्थ सृष्टा।
जीवन हुआ साधुत्त्व मलंग
निराला शब्द दिंगधारी अवधूत अंतरष्टा।।

स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का संछिप्त जीवन परिचय….

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
-उपनाम-‘निराला’
-जन्म-वसंत पंचमी, १८९६ रविवार
मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल, भारत
-पिता-पनदित रामसहाय तिवारी
-पत्नी-मनोहरा देवी।
-संतान-रामकृष्ण और सरोज।
-शिक्षा-नवी।
-गुरु दीक्षा-श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रथम शिष्य स्वामी ब्रह्मानंद और आध्यात्मिक प्रेणना स्वामी प्रेमानंद
-मृत्यु- १५ अक्टूबर, १९६१
इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
-कार्यक्षेत्र-कवि, लेखक
-राष्ट्रीयता-भारतीय
-भाषा-हिन्दी
-काल-आधुनिक काल
-विधा-गद्य तथा पद्य
-विषय-गीत, कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध,साहित्यिक
-आन्दोलन-छायावाद व
प्रगतिवाद
-प्रमुख कृतियाँ-राम की शक्ति पूजा, सरोज स्मृति।
-अनुवाद-राजयोग स्वामी विवेकानंद व श्री रामकृष्ण कथामृत,कपालकुंडल,आनंदमठ, दुर्गेश नंदनी,चन्द्रशेखर, कृष्णकांत का बिल, रजनी, देवी चौधरानी, राधारानी, विषवृक्ष, राजसिंह, युगलांगुलिया।
-आलोचना-रविंद्र कविता कानन।
-काव्य संग्रह-परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अपरा, आराधना, अर्चना, काव्य संग्रह: परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अपरा, आराधना, अर्चना, जन्मभूमि, तुलसीदास (खंडकाव्य), वर्षागीत (अप्रकाशित)
-उपन्यास: अप्सरा, अल्का, प्रभावती, निरूपमा, चमेली, उच्श्रृंखलता, चोटी की पकड़, काले कारनामे।
-कहानी संग्रह-चतुर चमार, सुकुल की बीबी, सखी, लिली देवी।
-रेखाचित्र- कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा।
-निबंध संग्रह-प्रबंध पद्म, प्रबंध परिचय, प्रबंध प्रतिभा, चाबुक, चयन, संघर्ष, बंगभाषा का उच्चारण।
-नाटक-समाज, शकुंतला, उषा-अनिरूद्ध।
-हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित साहित्यकारों मे से एक सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल की रियासत महिषादल (जिला मेदिनीपुर) में उनकी कहानी संग्रह लिली में उनकी जन्मतिथि २१ फ़रवरी १८९९ अंकित की गई है।[4] वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा १९३० में प्रारंभ हुई।उनका जन्म रविवार को हुआ था इसलिए सुर्जकुमार कहलाए। उनके पिता पंण्डित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का गढ़कोला नामक गाँव के निवासी थे।
निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मुहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में १५ अक्टूबर १९६१ को उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।

-निराला को निराला बनाने में स्त्री शक्ति का हाथ और साथ:-

निराला को निराला बनाने में स्त्री शक्ति का हाथ तो जो इस सन्दर्भ से प्रकट होता है की एक बार निराला और मनोहरा में विवाद हो गया। इस बार मुद्दा था ‘बांग्ला और हिेदी की श्रेष्ठता का’ रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, शरत चंद्रादि से प्रभावित निराला निसंदेह बांग्ला की तरफ थे, जबकि मनोहरा ‘भारत दुर्दशा और मानस का हंस‘ को लेकर तर्क कर रही थीं। बहुत देर बहस हुई अंत में निराला के भीतर जैसे याज्ञवल्क्य जागे ‘….अति प्रश्न न कर गार्गी अन्यथा तेरा सस्तिष्क खंड-खंड हो जा जाएगा…..’ वे यह कहते हुए बीच से उठ गए कि ‘हमको स्त्री जाति से घृणा है…’मनोहरा देवी के भतीजे भारती शरण दिवेदी, यानी निराला के पद्दू भाई (उनके साले रामधनी के पुत्र) बताते हैं। बहस के बाद जब वे खाना खाने आए तो बुआजी (मनोहरा) ने उन्हें पानी दिया। मां के पूछने पर बोली, ‘इन्हें स्त्री जाति से घृणा है। मैं स्त्री हूं। बावड़ी स्त्री है। गंगा स्त्री है, फिर कहां से पानी लाऊं। कोई तालाब हो तो इन्हें पानी दिया जाए। यहां तो सभी स्त्रीलिंग हैं।’ नाराज होकर फूफाजी (निराला) बिना पानी पिए जूठे हाथ एक किलोमीटर दूर सरजूपुर ताल गए और पानी पीकर आए।
अहं पर लगी ये दूसरी चोट थी। निराला जिस स्त्री को अपने परंपरागत संस्कारों तले दबाने आए थे। उनका ज्ञान, स्वाभिमान बार-बार उन्हें आहत कर रहा था, लेकिन गुस्से और जिद में जिसकी बार-बार उपेक्षा कर रहे थे, बाद में उसकी कचोट उन्हें हमेशा रही-

“”दुखता रहता अब जीवन / पतझर का जैसा वन-उपवन
झरझर कर जितने पत्र नवल / कर गए रिक्त तनु का तरूदल
है चिह्न शेष केवल सबंल / जिसने लहराया था कानन…”*
साहित्य विशेष रूप से तीन स्त्रियों का ऋणी है। विधोतमा, रत्नावली, मनोहरा….विधोतमा और रत्नावली को तो कोई नहीं भूला, लेकिन “मनोहरा” को कितनों ने याद किया?
यह मनोहरा ही थीं, जिन्होंने सुर्जकुमार को निराला बना दिया।
जो निराला पत्नी के तर्कों और ज्ञान पर खीझ कर याज्ञवल्क्य हो उठे थे। वही एक रोज उसके कंठ से झरते मधुर स्वर को सुन स्तब्ध रह गए।
श्री रामचंद्र कृपालु भजमन हरण भय दारूणं, नव कंज लोचन कंज मुखकर कंज पद कंजारूणं….’
मनोहरा के कंठ से फूटता हुआ राम अर्चन…
जाने क्या था इसमें, कि सोता हुआ संस्कार जाग उठा। वे किससे, किसकी तुलना करते? कौन श्रेष्ठ था? मनोहरा का स्वर या तुलसी का छेद? गीत के साथ गूंजता संगीत या संगीत के साथ जागता हुआ स्नेह? जो भी हो, इस श्रेष्ठता के साक्षात्कार में उनका पुरूष अहं चूर-चूर हो रहा था। और अचरज की बात ये कि वो ऐसा होने दे रहे थे। निराला चकित थे। गद्गद थे। अभिभूत थे। स्वर साधना तो उन्होंने भी की थी, लेकिन आज वो उस साधिका के सामने नत हो जाना चाहते थे। लगा जैसे सुदेर आसमान से कोई संदेश सिर्फ उनके लिए आ रहा था….
‘क्या मैं भी ऐसा गा सकता हूं, क्या कुछ ऐसा रच सकता हूं,
जो भुला दे इस लोक को।
जो चूर-चूर कर डाले झूठे अहंकार को।
क्या रच सकता हूं,
मैं एक मुक्त गीत,
एक मुक्त राग,
एक मुक्त छंद इस कंठ….
कहते छल-छल हो गए नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके दृग जल, रूक गया कंठ!!

सुर्जकुमार के भीतर निराला जाग उठा। मनोहरा की प्रेरणा से इस अप्रतिम कलाकार का स्नेह हिंदी से जुड़ गया। पत्नी का हिंदी ज्ञान इस चरित नायक की प्रेरणा बना। फिर शुरू हुआ सिलसिला स्वाध्याय का। ‘सरस्वती’ की प्रतियां लेकर हिंदी सीखने और पद रचना करने का। निराला ने उस दिन जो रूप मनोहरा का देखा। वो अभूतपूर्व था। उन्होंने खुद कहा कि उससे सुंदर कोई स्त्री उन्होंने जीवन में नहीं देखी थी। मनोहरा अपनत्व की छांव ढूंढ़ते उस अंधेरे जीवन का दीया थी। पिता के बाद बस वही थी, लेकिन ये छांव भी जाती रही और जैसे सूरज के आ जाने पर दीप शांत हो जाता है, वैसे ही एक पुत्र और एक पुत्री का दायित्व निराला पर छोड़ यह दीप भी मौन हो गया।

मनोहरा निराला के मध्य हुए प्रेरिक वार्ता को सत्यसाहिब जी अपने कवित्त्व से यूँ उकेर रहें है की:-

!!मनोहरा नारी के न्यारे निराला!!

हिंदी बंगला प्रीत को
सुर्ज मनोहरा हुया वाक द्धंद।
हठीले सुर्ज अंत तर्क कहे
मुझे नारी घृणा इस फंद।।
अपने निर्णय कह चले गए
लोट साय भोजन जल माँगा।
पत्नी बोली जल लाउ कहाँ
स्त्री गंगा जल बावड़ी नांगा।।
लगी सुर्ज के अंह चोट हो
और अंतर्मन कुछ जागा।
एक दिन सुन स्तुति राम की
मनोहरा स्वर सुन स्तब्ध अनुरागा।।
जाने क्या था इसमें ऐसा
स्वर मनोहरा या तुलसी के छंद।
अहं टूट आत्मसाक्षात्कार झलक हुयी
ये दिव्य संदेश इस नारी मुझ अंद।।
जाग उठी अंतर कवित्व ध्वनि
मैं भी ऐसा छंद रचूँ।
भुला दू इस लोक अहं को
एक मुक्त गीत मैं अनंत रचूँ।।
चला स्वयं स्वाध्याय ज्ञान का
पत्नी संगत हिंदी ज्ञान।
सरस्वती गाने लगी पद रचना
नारीत्व में मनोहरा प्रेम संज्ञान।।
घृणा मिटी अभिव्यक्त प्रेम हो
पाकर मनोहरा स्नेहत्व छाँव।
वो दे गयी सुर्ज को सूरज
बिन दीपक देखो अनंत अथाव।।
सुर्ज चमका मुक्त धुप कर
प्रकाशित हुया कवित्व अवर्णित।
कल आज और कल कालजेयी
शब्द परे महाभाव हो अनिर्णीत।।

स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
Www.satyasmeemission. org

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