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9 जुलाई गुरु पूर्णिमा पर्व पर “रामायण वर्णित” विश्वगुरु विश्वामित्र के शिष्य श्री राम-लक्ष्मण और परशुराम की विवाद संवाद् (कथा):-

जब भगवान श्री राम ने शिव धनुष तोडा तो परशुराम जी को खबर लग गई। उसी समय शिव धनुष के टूटने की आवाज सुनकर परशुराम जी आ गए। और बहुत क्रोध में है। परशुराम जी जिसकी ओर देख रहे हैं वो सोच रहा हैं की अब मैं नही बचूंगा।परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पिता सहित अपना नाम कह-कहकर सब दंडवत प्रणाम करने लगे। फिर जनकजी ने आकर सिर नवाया और सीताजी को बुलाकर प्रणाम कराया। परशुरामजी ने सीताजी को आशीर्वाद दिया। फिर सब सखियाँ सीताजी को लेकर वहां से चली गई हैं। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण कमलों पर गिराया। विश्वामित्रजी ने कहा- ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथ के पुत्र हैं। उनकी सुंदर जोड़ी देखकर परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया।
परशुराम ने देखा की धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। अत्यन्त क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले- रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा।राजा जनक कोई उत्तर नही दे पा रहे हैं। सीताजी की माता मन में पछता रही हैं कि हाय! विधाता ने अब बनी-बनाई बात बिगाड़ दी। सीताजी भी घबराई हुई हैं।तब श्री रामचन्द्रजी सब लोगों को भयभीत देखकर और सीताजी को डरी हुई जानकर बोले- हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। आपकी जो आज्ञा हो आप मुझे बता दीजिये।
यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले-सेवक वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे।
परशुराम और लक्ष्मण संवाद
अब तक लक्ष्मण चुप थे लेकिन अब लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले- हे गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है?
परशुरामजी कहते हैं- अरे राजपुत्र! ये कोई साधारण धनुष नही हैं ये शिव जी का धनुष हैं।
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे लिए तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। हे मुनि! आप अकारण ही क्रोध कर रहे हैं।परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना। मैं तुझे बालक समझकर नही मार रहा हूँ। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ। अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख! मेरा फरसा बड़ा भयानक है। लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। हमारे कुल में देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गो इन पर वीरता नही दिखाई जाती हैं। क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है, इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले- हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलंक है। यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है। अभी क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो। लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके यश का वर्णन आपके अलावा ओर कौन कर सकते हैं? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है। शूरवीर तो युद्ध करते हैं लेकिन आप तो केवल बातें कर रहे हैं और अपने प्रताप की डींग मार रहे हैं।लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया और बोले- इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है।गुरुदेव विश्वामित्रजी ने कहा- अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते।लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है। राम और परशुराम संवाद तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया और श्री रामचंद्रजी जल के समान (शांत करने वाले) वचन बोले- हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिए।यह आपका कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ? बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनंद से भर जाते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए।श्री रामचंद्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्कुरा दिए। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक (सारे शरीर में) क्रोध छा गया। उन्होंने कहा- हे राम! तेरा भाई बड़ा पापी है। यह शरीर से गोरा, पर हृदय का बड़ा काला है। यह विषमुख है, दूधमुँहा नहीं।लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे मुनि! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जाएगा। खड़े-खड़े पैर दुःखने लगे होंगे, बैठ जाइए। यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाए और किसी बड़े गुणी (कारीगर) को बुलाकर जुड़वा दिया जाए।लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं- बस, चुप रहिए, अनुचित बोलना अच्छा नहीं। जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं।श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिए, आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन सुना-अनसुना कर दीजिए।लक्ष्मण ने तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूँ।मुनि ने कहा- हे राम! क्रोध कैसे जाए, अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसकी गर्दन पर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या? तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्री रामजी से बोले- अरे शठ! तू शिवजी का धनुष तोड़कर उलटा हमीं को ज्ञान सिखाता है।श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे मुनीश्वर! क्रोध छोड़िए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है, जिस प्रकार आपका क्रोध जाए, हे स्वामी! वही कीजिए। मुझे अपना अनुचर (दास) जानिए। हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी?कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम। आपका क्रोध बहुत बड़ा है और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?।श्री रघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गए। परशुरामजी ने कहा- हे राम! हे लक्ष्मीपति! अब आप ये एक लक्ष्मीपति विष्णु का धनुष लीजिए और इसे खींचिए, जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।तब परशुराम जी कहते हैं हे रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए। हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए।
लेकर गुरु विश्वामित्र आज्ञा
तोड़ा शिव महाधनुष।
बिन प्रयत्न सहज उठाया
यही राम महिमा महामनुष।।
ध्वनि चाप सुन आये ऋषिवर
परशुराम जनक सभा कर क्रोध।
लक्ष्मण संवाद् विकट हुआ
महिमा मंडित स्वमुख बोध।।
हस्तक्षेप राम मध्य कर
समझाये विनय संवाद्।
महिमा रधुकुल रीत परम्
समझायी भृगुनंदन प्रतिवाद।।
पुनः अद्धितीय द्धितीय धनुष ले
चढ़ा अक्षुण तीर।
मारा परशुराम लक्ष्य कर
हरा तेज अतिवीर।।
तेज रहित क्षमा मांग कर
चले तप करने परशुराम।
समस्त जनक सभा हर्षित हुयी
बोली जय रघुकुल श्री राम।।
विश्वामित्र की करें प्रसंशा
जनक नमन कर प्रेम।
तुम्हारे कारण सभी हुआ
तुम शिष्य हैं राम विश्वगत क्षेम।।
राम लक्ष्मण सीता नमन करें
श्री गुरुवर चरण स्पर्श।
विवाह आज्ञा आशीष दिया
गुरुदेव विश्वामित्र सहर्ष।।
इस प्रसंग से समझ आना चाहिये की परशुराम जी को कैसे विष्णु जी का छटा अवतार घोषित किया है?
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