No comments yet

9 जुलाई गुरु पूर्णिमा के पर्व पर भगवन विश्वगुरु विश्वामित्र अपने शिष्य श्री राम को दिव्यास्त्रों विद्या देना व् ताड़का सुबाहु राक्षस वध की कथा:-

-? गोस्वामी तुलसीदास जी कथा कह रहे हैं।की बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥
ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी जी अपने शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) वन में विराजमान हैं। लेकिन थोड़े परेशान हैं। परेशानी इस बात की हैं मारीच और सुबाहु यज्ञ में विघ्न डालते हैं। यज्ञ नही करने देते हैं। ये सब रावण के अनुचर हैं। ये शुभ कार्यों में विघ्न डालते हैं।
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥ एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के मारे बिना नहीं मरेंगे। और भगवान ने तो राजा दशरथ जी के यहाँ अवतार ले रखा हैं। इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊँ। और विश्वामित्र जी ने देर नहीं लगाई हैं। सरयू नदी में स्नान किया हैं और राजा दशरथ जी के द्वार पर पहुंच गए हैं।
विश्वामित्र का राजा दशरथ जी के पास जाना :-
जैसे ही महाराज को खबर हुई हैं उन्होंने दण्डवत्‌ करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया। चरणों को धोकर उन्हें भोजन करवाया हैं। लेकिन थोड़े चिंतित भी हैं। क्योंकि विश्वामित्र जी पहले हरिश्चंद्र के समय आये थे और बड़ी परीक्षा हुई थी हरिश्चंद्र जी की। और अब रामचन्द्र के समय आये हैं। कहीं मुझसे कोई सेवा में त्रुटि ना रह जाये। इसलिए खूब सेवा की हैं। फिर चारों कुमार आये हैं। चारों में विश्वामित्र जी के चरणों में प्रणाम किया हैं। लेकिन जैसे ही भगवान राम को देखा हैं तो आँखे चमचमा गई हैं। श्री रामचन्द्रजी को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए। वे श्री रामजी के मुख की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो।
अब राजा दशरथ जी कहते हे मुनि! आपने हम पर बड़ी कृपा की हैं। आज किस कारण से आप यहाँ आये हैं? केहि कारन आगमन तुम्हारा।
विश्वामित्र जी बोले हैं की- असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥ अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥
विश्वामित्र जी कहते हैं आज मैं तुमसे कुछ मांगने आया हूँ। छोटे भाई सहित रघुनाथ जी को मुझे दे दो। हे राजन्‌! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं, राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा।इस बात को सुनकर दशरथ जी कांप गए हैं। हे ब्राह्मण! आपने ये बात विचार कर नही कही है। मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं। दशरथ जी कहते है आप जो कुछ कहेंगे मैं आपको दे दूंगा। हे मुनि! आप पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा। आपको जो चाहिए ले जाओ लेकिन राम जी को मत ले जाओ। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥ हे प्रभो! राम को तो (किसी प्रकार भी) देते नहीं बनता। आज राम को दशरथ जी ने देने से मना कर दिया है। जो अपने संकल्प से कभी पीछे नही हटे आज राम जी को देने से मना कर हैं। दशरथ जी कहते हैं सहायद मछली जल के बिना कुछ देर जीवित रह जाये लेकिन राम जी चले गए तो मैं जीवित नही रह सकूंगा।विश्वामित्र जी कह रहे हैं आप रघुवंशी राजा हो। आप तो कहते हैं प्राण जाये पर वचन ना जाये। लेकिन आप तो अपने वचन को आज झूठा कर रहे हो। और राम जी को देने से मना कर रहे हो। बात यहीं पर रुकी हुई हैं।
गोस्वामी जी लिख रहे हैं की विश्वामित्र जी राजा दशरथ की इन बातों को सुनकर भी क्रोधित नही हो रहे हैं। ये कमाल की बात हैं। दशरथ जी भी जानते हैं ये तुरंत क्रोध कर सकते हैं। लेकिन इनके ह्रदय में आज हर्ष हैं। भगवान के लिए प्रेम हो तो ऐसा हो की जिसको ना शाप की चिंता हैं, ना कुल की मर्यादा की चिंता हैं और ना ही प्राणों की चिंता हैं।
और फिर गुरु वशिष्ठ जी बीच में आये हैं तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥ और तुरंत समझते ही राजा दशरथ जी राम जी को देने के लिए तैयार हो गए हैं। क्योंकि गुरुदेव ने बहू-विधि (अनेक प्रकार से)समझाया हैं। मानो आज ये कह रहे हैं की तुम रोको मत जाने दो। क्योंकि दोनों लाला जायेंगे तो वहां से बहू लेकर आएंगे। अब दशरथ जी राम-लक्ष्मण को देने के लिए तैयार हो गए हैं। राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और विश्वामित्र जी से कहा हैं हे मुनि! (अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं। राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले हैं।राम-विश्वामित्र वन गमन भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर (पहने) और सुंदर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथों में सुंदर धनुष और बाण हैं। और विश्वामित्र जी के चल रहे हैं। विश्वामित्र जी अपने आप को बड़भागी मान रहे हैं और सोच रहे हैं- मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं। मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया।
ताड़का वध
मार्ग में ताड़का आई हैं। और ये भगवान को मरने के लिए इनकी और दौड़ी हैं। श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया। इसके बाद विश्वामित्र जी ने भगवान को ऐसी विद्या दी हैं जिससे भूख और प्यास नही लगती और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो जाता हैं। विश्वामित्र जी ने भगवान को अस्त्र-शास्त्र प्रदान दिए हैं और भक्तिपूर्वक कंद, मूल और फल का भोजन कराया हैं।
सुबह भगवान ने गुरुदेव को कहा हैं की आप निडर होकर यज्ञ कीजिये। सब मुनि हवन कर रहे हैं। और राम लक्ष्मण उनकी रक्षा कर रहे हैं।
मारीच और सुबाहु का वध
जब मारीच को पता चला हैं तो वह अपने सहायकों को लेकर दौड़ा। श्री रामजी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा। फिर सुबाहु को अग्निबाण मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला। इस प्रकार श्री रामजी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया। तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे।अब भगवान कुछ दिन और आश्रम में रहे हैं। और सबको आनंद प्रदान कर रहे हैं। फिर एक दिन मुनि ने धनुष यज्ञ के कार्यक्रम के बारे में बताया हैं और वहां चलने को कहा हैं। धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी के साथ प्रसन्न होकर चले।
इस कथा में आप पाएंगे की ऋषि वशिष्ठ को बलपूर्वक इस कथा में डाला गया है की उनके ही कहने और समझने पर राजा दशरथ ने अपने पुत्रों को विश्वामित्र जी के साथ वन जाने और दिव्य धनुष आदि विद्यायें सीखने के साथ तड़का आदि राक्षसों का वध की आज्ञा दी थी।जबकि इस प्रसंग से ही श्री राम का उच्चतम चरित्र निर्मित होता है।यहाँ से आगे आप भगवन गुरुदेव विश्वामित्र जी का दिव्य शस्त्र ज्ञान और उन्हें देने की सामर्थ्य देखे की क्या ये स्वयं राक्षसों का वध नही कर सकते थे? इस बात का समाधान इस प्रकरण में पढ़े–
विश्वामित्र द्वारा राम को अलभ्य अस्त्रों का दान – बालकाण्ड (6)
मार्ग में एक सुरम्य सरोवर दृष्टिगत हुआ। सरोवर के तट पर रुक कर विश्वामित्र कहा, “हे राम! ताड़का का वध करके तुमने बहुत बड़ा मानव कल्याण का कार्य किया है। मैं तुम्हारे इस कार्य, पराक्रम एवं चातुर्य से अत्यधिक प्रसन्न हूँ। मैं तुन्हें आज तुम्हें कुछ ऐसे दुर्लभ अस्त्र प्रदान करता हूँ जिनकी सहायता से तुम दुर्दमनीय देवताओं, राक्षसों, यक्षों, नागादिकों को भी परास्त कर सकोगे। ये दण्डचक्र, धर्मचक्र, कालचक्र और इन्द्रचक्र नामक अस्त्र हैं। इन्हें तुम धारण करो। इनके धारण करने के पश्चात् तुम किसी भी शत्रु को परास्त करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लोगे। इनके अतिरिक्त मैं तुम्हें विद्युत निर्मित वज्रास्त्र, शिव जी का शूल, ब्रह्मशिर, एषीक और समस्त अस्त्रों से अधिक शक्तिशाली ब्रह्मास्त्र देता हूँ। इन्हें पा कर तुम तीनों लोकों में सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न हो जाओगे। मैं तुम्हारी वीरता से इतना अधिक प्रसन्न हूँ कि तुम्हें प्रचण्ड मोदकी व शिखर नाम की गदाएँ प्रदान करते हुये मुझे अत्यंत हर्ष हो रहा है। मैं तुम्हें सूखी और गीली दोनों ही प्रकार की अशनी व पिनाक के साथ ही साथ नारायणास्त्र, आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, हयशिरास्त्र एवं क्रौंच अस्त्र भी तुम्हें प्रदान करता हूँ। अस्त्रों के अतिरिक्त मैं तुम्हें कुछ पाश भी देता हूँ जिनमें धर्मपाश, कालपाश एवं वरुणपाश मुख्य हैं। इनके पाशों के द्वारा तुम अत्यन्त फुर्तीले शत्रु को भी बाँध कर निष्क्रिय बनाने में समर्थ हो जाओगे। राम! कुछ अस्त्र ऐसे हैं जिनका प्रयोग असुर लोग करते हैं। नीति कहती है कि शत्रुओं को उनके ही शस्त्रास्त्रों से मारना चाहिये। इसलिये मैं तुम्हें असुरों के द्वारा प्रयोग किये जाने वाले कंकाल, मूसल, घोर कपाल और किंकणी नामक अस्त्र भी देता हूँ। कुछ अस्त्र का प्रयोग विद्याधर करते हैं। उनमें प्रधान अस्त्र हैं खड्ग, मोहन, प्रस्वापन, प्रशमन, सौम्य, वर्षण, सन्तापन, विलापन, मादनास्त्र, गन्धर्वास्त्र, मानवास्त्र, पैशाचास्त्र, तामस और अद्वितीय सौमनास्त्र; इन सभी अस्त्रों को भी मैं तुम्हें देता हूँ। ये मौसलास्त्र, सत्यास्त्र, असुरों का मायामय अस्त्र और भगवान सूर्य का प्रभास्त्र, हैं जिन्हें दिखाने मात्र से शत्रु निस्तेज होकर नष्ट हो जाते हैं। इन्हें भी तुम ग्रहण करो। अब इन अस्त्रों को देखो, ये कुछ विशेष प्रकार के अस्त्र हैं। ये सोम देवता द्वारा प्रयोग किये जाने वाले शिशर एवं दारुण नाम के अस्त्र हैं। शिशर के प्रयोग से शत्रु शीत से अकड़ कर और दारुण के प्रयोग से शत्रु गर्मी से व्याकुल होकर मूर्छित हो जाते हैं। हे वीरश्रेष्ठ! तुम इन अनुपम शक्ति वाले, शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले और समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कराने वाले अस्त्रों को धारण करो।”
इतना कह कर महामुनि ने सम्पूर्ण अस्त्रों को, जो देवताओं को भी दुर्लभ हैं, बड़े स्नेह के साथ राम को प्रदान कर दिया। उन अस्त्रों को पाकर राम अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने श्रद्धा के साथ गुरु को चरणों में प्रणाम किया और कहा, “गुरुदेव! आपकी इस कृपा से मैं कृतार्थ हो गया हूँ। अब देवता, दैत्य, राक्षस, यक्ष आदि कोई भी मुझे परास्त नहीं कर सकता, मनुष्य की तो खैर बात ही क्या है। किन्तु मुनिवर! इसी प्रकार के अस्त्र गन्धर्वों, देवताओं, राक्षसों आदि के पास भी होंगे और उनका प्रयोग वे मुझ पर भी कर सकते हैं। कृपा करके उनसे बचने के उपाय भी मुझे बताइये। इसके अतिरिक्त ऐसा भी उपाय बताइये जिससे इन अस्त्रों को छोड़ने के पश्चात् अपना कार्य कर के ये अस्त्र पुनः मेरे पास वापस आ जावें।” राम के इस प्रकार कहने पर विश्वामित्र बोले, “राघव! शत्रुओं के अस्त्रों को मार्ग में ही काट कर नष्ट करने वाले इन सत्यवान, सत्यकीर्ति, प्रतिहार, पराड़मुख, अवान्मुख, लक्ष्य, उपलक्ष्य आदि इन अस्त्रों को भी तु ग्रहण करो।” इन अस्त्रों को देने के बाद गुरु विश्वामित्र ने राम को वे विधियाँ भी बताईं जिनके द्वारा प्रयोग किये हुये अस्त्र वापस आ जाते हैं।चलते चलते वे वन के अन्धकार से निकल कर ऐसे स्थान पर पहुँचे जो भगवान भास्कर के दिव्य प्रकाश से आलोकित हो रहा था और सामने नाना प्रकार के सुन्दर वृक्ष, मनोरम उपत्यका एवं मनोमुग्धकारी दृश्य दिखाई दे रहे थे। रामचन्द्र ने विश्वामित्र से पूछा, “हे मुनिराज! सामने पर्वत की सुन्दर उपत्यकाओं में हरे हरे वृक्षों की जो लुभावनी पंक्तियां दृष्टिगत हो रही हैं, उनके पीछे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कोई आश्रम है। क्या वास्तव में ऐसा है या यह मेरी कल्पना मात्र है? वहाँ सुन्दर सुन्दर मधुरभाषी पक्षियों के झुण्ड भी दिखाई दे रहे हैं, जिससे प्रतीत होता है कि मेरी कल्पना निराधार नहीं है।”
शेषांक…
?

Post a comment