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9 जुलाई गुरुपूर्णिमा पर्व पर भगवन विश्वामित्र व् श्री राम सीता विवाह प्रसंग-2

श्री राम सीता विवाह प्रसंग-2?
और जनक जी कहते है मैंने जान लिया है पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। इस धरती पर अब कोई वीर है ही नही। बीर बिहीन मही मैं जानी॥ सब अपने-अपने घर को लौट जाओ। ऐसा लगता है की मेरी बेटी का विवाह अब होगा ही नहीं। यदि मुझे पहले से पता होता की पृथ्वी वीरों से शून्य है तो मैं ये धनुष यज्ञ का कार्यक्रम रखता ही नही और इस उपहास का पात्र न बनता।जनक जी के वचन सुनकर लक्ष्मण जी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गईं, होठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए। और भगवान श्री राम की ओर देखते है और रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाकर कहते हैं-जिस सभा में रघुकुल मणि बैठे हों और उस सभा में ऐसे वचन अनुचित हैं। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठा लूँ तो ये धनुष क्या चीज हैं। जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥ मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ, हे भगवन्‌! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है। हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूँ। और लक्ष्मण जी ने यहाँ तक कह दिया यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूँगा। जैसे ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए। सभी लोग और सब राजा डर गए। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए।जब खूब बोले हैं तो श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेम सहित अपने पास बैठा लिया। रामजी का शिव धनुष तोडना अब विश्वामित्र जी ने शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ। उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥ गुरु के वचन सुनकर श्री राम जी ने चरणों में सिर नवाया, उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए। सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥ आज सीता जी राम जी को आते हुए देख रही है लेकिन थोड़ा मन में दर है की तोड़ भी पाएंगे या नहीं। क्योंकि जब पुष्प वाटिका में भगवान फूल तोड़ रहे थे तो उनके चेहरे पर पसीना आ रहा था। और आज धनुष तोड़ने जा रहे हैं तो ना जाने क्या हों जायेगा। माँ जानकी ने भोले नाथ, माँ पार्वती और गणेश जी से प्रार्थना की हैं।
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥
हे गणों के नायक, वर देने वाले देवता गणेशजी! मैंने आज ही के लिए तुम्हारी सेवा की थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर दीजिए।और अंत में किशोरी जी ने धनुष से ही प्रार्थना की हैं की आज तुम्हे हल्का हों जाना हैं क्योंकि आज भगवान राम तुझे उठाने जा रहे हैं।रामजी धनुष की और बढे जा रहे हैं। मन ही मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया।लेते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा (अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा), सबने श्री रामजी को (धनुष खींचे) खड़े देखा। उसी क्षण श्री रामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर ध्वनि से (सब) लोक भर गए॥
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥ तुलसीदासजी कहते हैं (जब सब को निश्चय हो गया कि) श्री रामजी ने धनुष को तोड़ डाला, तब सब ‘श्री रामचन्द्र की जय’ बोलने लगे।धनुष टूट जाने पर राजा लोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गए, जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती है। चतुर सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा- सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठाई, पर प्रेम में विवश होने से पहनाई नहीं जाती। (उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डंडियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छवि को देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजी ने श्री रामजी के गले में जयमाला पहना दी। श्री रघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी को वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी (हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्य से बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं।
श्री सीता-रामजी की जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हों। सखियाँ कह रही हैं- सीते! स्वामी के चरण छुओ, किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं। गौतमजी की स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्री रामजी के चरणों को हाथों से स्पर्श नहीं कर रही हैं। सीताजी की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मन में हँसे। यहाँ पर प्रेम का समतावाद है यो स्त्री ना पुरुष परस्पर पैर छूते है।
इसके बाद परशुराम जी जब पता चला हैं की शिव धनुष तोड़ दिया हैं। तो अत्यंत क्रोध में आये हैं। परशुराम जी को बहुत समझाया गया हैं। तब उन्हें पता चला की ये श्री राम साक्षात भगवान ही हैं तो शांत हुए हैं। जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया और कहा- प्रभु ही की कृपा से श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझ पर कृपा की हैं अब आगे बताइये क्या किया जाये? मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश ! राम-सीता का विवाह हो चूका हैं। जैसे ही धनुष टुटा तो विवाह तो होना ही था। सभी ये बात जानते हैं। अब जैसा विधि-विधान ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित हैं वैसा ही करो। अब विवाह की तैयारियां शुरू कर दी गई हैं। सब महाजनों को बुलाया गया, दूत भेजकर राजा दशरथ को बुलाया गया है। सुंदर मंडप तैयार किया गया है। मंडप की सोभा ऐसी हैं की ब्रह्मा भी आज देखता ही रह गया। गोस्वामी जी ने इतना वर्णन किया हैं की कोई कर ही नही सकता है।दूत ने अयोध्या पहुंचकर राजा दशरथ जी को जनक जी की चिट्ठी दी है। हृदय में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुंदर चिट्ठी है। चिट्ठी पढ़ते समय दशरथ जी के नेत्रों में प्रेम और आनंद के आँसू आ गए , शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई। भरतजी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गए। उस दूत ने पुरे धनुष यज्ञ की बात राजा दशरथ जी को बताई है। और अब आप भी देर ना कीजिये महाराज। जल्दी चलिए।
राजा दशरथ जी ने अपनी पूरी नगरी को दुल्हन की तरह सजवा दिया हैं और भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बारात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई (भरतजी और शत्रुघ्नजी) आनंदवश पुलक से भर गए। और सभी ने बारात में बढ़-चढ़ कर भाग लिया है। राजा दशरथ के दरवाजे पर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाए तो वह भी पिसकर धूल हो जाए। अटारियों पर चढ़ी स्त्रियाँ मंगल थालों में आरती लिए देख रही हैं। और मंगल गीत गए रही हैं। श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके, गुरु की आज्ञा पाकर पृथ्वी पति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुंदर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे। बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता।जब बारात पहुंची हैं तो सुंदर स्वागत जनक जी की ओर से किया गया है। अगवानी करने वालों को जब बारात दिखाई दी, तब उनके हृदय में आनंद छा गया और शरीर रोमांच से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाए। बाराती तथा अगवानों में से) कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले और ऐसे मिले मानो आनंद के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों। राजा दशरथजी ने प्रेम सहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को दे दी गईं। बरातियों के ठहरने की उत्तम व्यवस्था की गई।पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनंद समाता न था। संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे। आज गुरुदेव जान गए हैं और स्वयं राम लक्ष्मण के साथ दशरथ जी से मिलने जा रहे हैं। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो। जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में समुद्र में थाह सी लेते हुए चले। दशरथ जी ने विस्वामित्र की चरण धूल ली हैं और दोनों भाइयों ने पिता सहित गुरु वशिष्ठ जी को प्रणाम किया है। राम-लक्ष्मण ने फिर भरत और शत्रुघ्न को ह्रदय से लगा लिया है।श्री राम सीता विवाह कथा सम्पूर्ण।।
ब्रह्मा सरस्वती शिव गौरा
सुर नर मुनि देवगण हर्षित।
गुरु विश्वामित्र जनक दशरथ करें
राम सीता पर प्रेम पुष्प वर्षित।।
अनुपम द्रश्य सृष्टि प्रथम
स्वयं माता धरा अभिभूत।
दे रही आशीष प्रकर्ति बन
नभमण्डल इंद्रधनुष उदित विभूत।।
प्रथम गुरु विश्वामित्र को
राम सीता करें नमन चरण वंदन।
तदुपरांत पिता दशरथ नमन
और नमन जनक सर्वप्रिय वंदन।।
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