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श्रीगुरु तत्वज्ञान और गुरु चंडाल दोष निवारण गुरु पूर्णिमा कथा

प्राचीन समय की बात है कि सत्यनारायण और सत्यई पूर्णिमा अपने सत्यलोक में बेठे धर्म विषय पर चर्चा कर रहे थे ज्ञान चर्चा का विषय गुरु शिष्य परम्परा पर था की गुरु क्यों आवश्यक है और शिष्य में किन गुणों की प्रधानता होने पर ही वो लौकिक और अलौकिक ज्ञान वैभव की प्राप्ति कर सकता है और किन अवगुणों के कारण गुरु उपेक्षा के चलते वो गुरु दोष के कारण चांडाल योग को प्राप्त होता हुआ सभी ग्रहों के दुष्प्रभाव से पराभवो को प्राप्त होता है चाहे उसकी भाग्य कुंडली में कितने ही राज्ययोग हो वो केवल एक गुरु दोष के कारण अपने जीवन के पांच पक्षों या पंचदेवो के दोषों स्वस्थ- प्रेम और मनवांछित विवाह-मनवांछित कार्य-धन-योवन का सुख और व्रद्धावस्था में मोक्ष की प्राप्ति आदि से वंचित दोषो को प्राप्त होता है तभी उन्होंने संसार में प्रचलित वेदव्यास की गुरु रूप में उपासना के विषय में चर्चा की कि सबसे प्रथम श्री भगवान ने गुरुपद दो ही महर्षियों को प्रदान किया था और स्त्रियों में अदिति को पूजनीय बताया वे श्री गुरु ब्रह्स्पति देवताओं के गुरु है और श्री गुरु शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु है यहाँ एक बड़ा गम्भीर रहस्य छिपा है जो पूर्वकाल के पुरुष प्रधानता के कारण बड़ा ही लुप्त हो गया है की संसार में दो तत्व प्रत्यक्ष है स्त्री जो धन शक्ति की प्रतिनिधि है और पुरुष जो ऋण शक्ति का प्रतिनिधि है तथा तीसरा तत्व है बीज जो प्रत्यक्ष होते हुए भी अप्रत्यक्ष ही है उसमें ये दोनों ऋण और धन सुप्त है इन्हें जाग्रत को ही गुरु ज्ञान की आवश्यकता होती है ये गुरु ही ईश्वर की अतिरिक्त प्रत्यक्ष शक्ति है सत्य में परा और अपरातत्व गुरु ही है इसकी शक्ति बिना जीव दिव्ययोनि को प्राप्त नही कर सकता है यो श्री ब्रह्स्पति को पुरुष ऋण शक्ति का द्योतक यानि प्रतिनिधि बनाया गया है और श्री गुरु शुक्राचार्य को स्त्री धन शक्ति का प्रतिनिधि आचार्य बनाया गया है और स्त्री और पुरुष के ये योगिक नाम ऋण और धन को देव और दैत्य की संज्ञा दी जिसका बिगड़ा स्वरूप वर्तमान में दिखाई देता है यही अमावस्या और पूर्णिमा का भी अर्थ है की अमावस्या को ऋण यानि पुरुष शक्ति माना है की ये सुप्त है इसकी कलाओं को स्त्री ही जाग्रत करती है यो स्त्री को पूर्णिमा माना गया यो शास्त्रों में दोनों की मान्यता थी जिसका एक स्वरूप है की शिवलिंग और श्रीभग की उपासना जिसके ईश्वरीय गुरु आचार्य है ब्रह्स्पति और शुक्राचार्य यहाँ ज्योतिष में भी ब्रह्स्पति को पुरुष और शुक्र को स्त्री ग्रह माना है ब्रह्स्पति पंचतत्वों के स्वरूप-शिक्षा-व्यवसाय नोकरी-प्रेम और विवाह-ग्रहस्थ-व्रद्धावस्था में स्वस्थ और मोक्ष को केवल देता है और इन्हीं पांचों सुखों के ऐश्वर्यों वैभव आदि फलों को शुक्र ग्रह देता है इन्हीं का संयुक्त रूप मनुष्य जीवन की सफलता है यो पुरुष तत्व लिंग जिसे शिवलिंग नाम से संसार में जाना जाता है उसके योग आचार्य है ब्रह्स्पति और स्त्री तत्व के स्वरूप योनि श्रीभग के योग आचार्य है शुक्राचार्य यहाँ स्मरण रहे की ये मनुष्य के मूल तत्वों ऋण और धन को ही लिंग और योनि कहा गया है और अति प्राची काल में इन दोनों की उपासना की प्रधानता रही ये मनुष्य के मूलाधार चक्र को बहिर रूप से समझने के प्रतीक भी थे जो कालांतर में प्रकर्ति में निर्मित इनके स्वरूपों को मूरत रूप में घड़ा गया और उन्ही की उपासना बढ़ती गयी और मूल ज्ञान उपासना क्षीण होती लुप्त प्राय हो गयी आगे चलकर ये मूर्ति साकार और अमूर्त रूप स्वयं की उपासना जिसका नाम निराकार है की किसी बाहरी प्रतीक को ध्यान का विषय नही बनाते हुए केवल स्वयं के अस्तित्त्व को ही ध्याना होना ही निराकार कहलाता है तब ये ब्रह्स्पति और शुक्राचार्य ही यथार्थ रूप से मनुष्यों के भी गुरु है और जब जब इन दोनों की देवो अर्थात पुरुष तत्व और दैत्यों अर्थात स्त्री तत्व ने इनसे विद्या और वर प्राप्ति के उपरांत इनकी उपेक्षा की वे सभी गुरु शाप दोष चांडाल योग को प्राप्त हो गए उनके मन्त्र सिद्धि और उसका फल सभी कीलित हो जाते है। अनादिकाल में पृथ्वी को स्त्री तत्व माना गया यो तो ये मनुष्य आधार या शरीर का भी प्रतिनिधित्त्व करती है परन्तु मुख्यतया ये स्त्री प्रधान है और आकाश को पुरुष तत्व माना की पृथ्वी पर जो भी जीवन सम्बंधित मूल बीज या अनेक बीज समय समय पर आकाश से उल्लकाओं के रूप में गिरकर प्राप्त हुए और उन्हीं से विभिन्न जीवों की प्रजातियां उतपन्न हुयी यो इसी विषय के अज्ञान से कालांतर में मनुष्य ने अपने खोये ज्ञान से भ्रम पैदा किया की आकाश से देवताओं के रूप में प्रकाश पुंज प्रकट हुए उन्ही की ये मनुष्य सन्तान है जो कालांतर में वातावरण की विभिन्नताओं के चलते और परस्पर वर्चस्व के चलते युद्ध करते हुए नष्ट हो गए ये भी देव दैत्यों का विवाद बनकर लिखा गया जबकि मूल में केवल पृथ्वी पर ही ऋण और धन शक्ति स्वयं में सदैव विद्यमान रही व् रहेगी यो उसीको मुख्य स्थान पर प्राकृतिक रूप में प्रकट होते देख मनुष्य अचंभित होता और उन्हें पूजता आया है कहीं अग्नि ज्वाला तो कहीं बर्फ से निर्मित लिंगस्वरूप तो कहीं प्रकर्ति में रजस्वला स्थिति का रजोगुणी स्राव स्थानों को पूजनीय बनाया यही शिवलिंग और योनिलिंग स्थान बनते चले गए है मुख्य विषय है की इन ऋण और धन की संयुक्त शक्ति को अपने में जाग्रत करते हुए सम्पूर्णता की प्राप्ति के उपरान्त उस एक सत्य को एक उसी स्वरूप में ज्ञान और उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए शक्ति को जिज्ञासु में प्रवाहित करना यही ज्ञान जिस मनुष्य को प्राप्त हुआ वही गुरु बना यो इन ऋण और धन की समल्लित शक्ति का प्रकाशित स्वरूप ही पूर्णिमा है यो दोनों मिलकर ही गुरु पूर्णिमा कहलाये इसी दिवस को वर्ष के मध्य पड़ने वाली पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है यो जिन्होंने अपने को जानने के ज्ञान को शक्ति सहित लिया है वे और जो इसको लेना चाहते है वे मनुष्य शिष्य बनकर अपने श्रीगुरु के निकट आते है और जो अपने गुरुओं के निकट किसी कारण से नही जा पाते है वे अपने निकट के मन्दिर में अपने गुरु का चित्र लगाकर वहाँ खड़े होकर उनके नाम से लोगों में प्रसाद बांटते है जो भी भक्त ऐसा नही करता है वही गुरुदोष का भागीदार बनता है।यो अवश्य गुरु पूर्णिमा पर अपने अपने गुरु के नाम का प्रसाद अपने परिचितों में अवश्य बाँटना चाहिए इससे समस्त ब्रह्स्पति और शुक्र के दोषों से मुक्ति मिलती है और अवश्य ही मनवांछित शुभ परिणाम की प्राप्ति होती है। यो सत्यास्मि सत्संग वचन है की:-
गुरु ही नवग्रह देवता
गुरु ही सर्व फलदात्र।
गुरु जीवंत घड़े
बना सभी दे पात्र।।
गुरु सर्व दोष निवारक
दे शीघ्र निर्भय आशीष।
कर्म बिन करे फल दे
तभी गुरु जीवित है ईश।।
जिस बुद्धि ये ज्ञान है
वही जीवंत हो मुक्त।
एक गुरु को छोड़कर
भजे निज में कर युक्त।।
गुरु ही ध्यान गुरु ही ज्ञान
गुरु मंत्र विधि एक।
गुरु तन में भ्रमण तीर्थ
वही शिष्य सिद्ध अतिरेक।।
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