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शुभ सत्यास्मि ज्ञान प्रातः


तू ढूंढे जिस प्रेम को
दूजे प्रेम रूप में ध्याय।
दूजे भी इच्छा यही
दोनों एक प्रेम मिल ध्याये।।
मिला एक दूजा नही
तो दुःख हो बहुत अपार।
मिला प्रतिम दो एक हो
तभी प्रेम अनंत है सार।।
इसी का नाम ग्रहस्थ है
ग्रहस्थ बना इसी प्रेम के ताहिं।
यही मिट गया इस बीच से
रही व्यर्थ संगत केवल वाहीं।।
यो तब इसके ही अंत में
ढूंढा यही उपाय।
जो ध्याता है वही ध्या
वही वहीं तृप्त हो ध्याय।।
वेसे भी सब अंत में
दूजे भी स्वयं को पाय।
यो पहले ही पकड़े स्वयं को
और साक्षी बैठ स्वं ध्या पाय।।
?भावार्थ-हे शिष्य तू जिस प्रेम की प्राप्ति करना चाहता है और उसे दूसरे में ढूंढता है ठीक यही दूसरा भी ढूंढ रहा है यो दोनों अधूरे है तब क्या दोनों का अधूरापन एक दूसरे को खोया प्रेम देने से पूर्ण होगा यही विचार ने दोनों को गृहस्थी रूप में एक दूसरे से जोड़ा है तब व्यक्ति केवल तन धन अपने जैसी अतृप्त संतति की तो प्राप्ति एक दूसरे से करता हुआ जीवन जीता है परंतु उसे सच्चा प्रेम नही मिल पाता है तब वो सच्चा प्रेम क्या और कहाँ है? यो उसे उस ग्रहस्थ धर्म में नही प्राप्त होने पर वो इस विचार में खोजता है की ये प्रेम और इसकी प्राप्ति का विचार किसमें और कहाँ से आया है तब वो उसे अपने में ही से आता और पाता अनुभव करता है तब उसे समझ आता है की जो इस प्रेम का भूखा है उसे ही ध्या यो उसे ही ध्याने से उस अतृप्तता को सम्पूर्ण अपने एक से नही विश्वातीत स्वरूप से जोड़ता है और एक नदी से जुड़ने के स्थान पर उस नदी के दो में से एक स्रोत को ढूंढ निकलता हुआ जुड़ता है की या तो उस नदी में जो जल आ रहा है वो कहाँ से आ रहा है वहीं अथाह जल है या ये सारा जल जहाँ जाकर एकत्र होता है वहाँ ही सम्पूर्णता मिलेगी यो इस दोनों में से किसी एक स्रोत की प्राप्ति करके स्वयं की जल रूपी प्रेम की प्यास मिटाता है यही है प्रेम के महासागर की प्राप्ति और उसमे आत्म महारास जो स्वयं में ही है यो स्वयं का ही ध्यान करता हुआ स्वयं में सम्पूर्ण हो जाता है।यो शिष्य स्वयं को ध्या और जान और मुक्त हो।
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