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शुभ प्रातः सत्यास्मि ज्ञान


धरा रूप शरीर है तेरा
इसमें तीन सरोवर काम।
लिंग श्री भग सकाम सरोवर
क्षीर सरोवर ह्रदय धाम।।
सकाम का मंथन सहकाम से करके
चढ़ा प्रेम बैठ कर ध्यान।
शुद्ध हो अक्षय क्षीर सरोवर
ह्रदय कर प्रीतम निज मान।।
तब देव रहे ना दैत्य मन रूपक
कर तीजे सरोवर स्नान।
जो सहत्रार प्रेम सरोवर अक्षत
विशुद्ध हो पावे आत्म भगवान।।
जब ब्रह्मचारी त्यागी रहे
करें अनुलोम विलोम गुरु में ध्यान।
चक्र चलाये गुरु और निज
हो त्रिसरोवर विशुद्ध स्नान।।
भावार्थ?हे शिष्य तेरे इस शरीर में ही तीन दिव्य सरोवर है जिनमें निम्न विधि से स्नान करने से आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है यो व्यर्थ इधर उधर के सरोवरों में स्नान करता हुआ अपना अमूल्य जीवन और समय नष्ट मत कर।
तेरे शरीर में पहला सरोवर तेरे पुरुष लिंग भूमि और स्त्री लिंग श्री भग भूमि मूलाधार में सकामनाओं का अनंत सरोवर है जिसमें समस्त वासनाओं के अवगुण भरे हुए है उसे अपने गुरु प्रदत्त ज्ञान और ध्यान की विधि से अपने सहधर्मी के सहयोग से रमण रूपी मंथन करने के उपरांत तुरंत तभी बैठ कर अपने में पाये प्रेमा शक्ति को अपनी सुषम्ना में चढ़ता हुआ आंतरिक ध्यान कर इस प्रकार से सकाम सरोवर में स्नान करता हुआ तू शुद्धता को प्राप्त होगा और इसके उपरांत दूसरे सरोवर जो ह्रदय में अक्षय तीर्थ क्षीर सागर के नाम से विख्यात है उसमें स्नान को प्रवेश करेगा जहाँ अनंत शुद्ध अष्ट सुकार नामक देव वासनाएं और साथ ही अशुद्ध अष्ट विकार दैत्य नामक वासनाओं का आत्म संघर्ष मंथन चलता रहता है यहाँ तू इनको जानता हुआ तटस्थ भाव से ध्यान रूपी स्नान करना तब तुझे अक्षय प्रेम के सरोवर की झलक मिलेगी जो सहत्रार भूमि में प्रेम सरोवर के रूप में विद्यमान है वहाँ तू अपनी शुद्ध और अशुद्ध दोनों वासनाओ को विशिद्ध करके ही स्नान कर सकता है इस प्रेम सरोवर में स्नान के उपरांत तू स्वयं के आत्म स्वरूप को प्राप्त कर मृत्युंजय हो जायेगा यो गुरु प्रदत्त ध्यान कर।
और जब तू ब्रह्मचारी और त्यागी रहे तब केवल अपने श्री गुरु और अपने में अनुलोम विलोम क्रियायोग द्धारा जप ध्यान करते रहने से अति शीघ्र ही इन त्रिसरोवरों में विशुद्ध होकर स्नान करता हुआ आत्मतत्व को प्राप्त होगा।
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