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मेरा दिव्य दर्शन व् शक्तिपात से भक्त तारादेवी की आध्यात्मिक यात्रा और समापन


ये भी 1993 की घटना है की एक भक्त परिवार और उनकी माता तारादेवी शर्मा जो उस समय लगभग 52 साल आयु की थी और दिल्ली युनिवर्सटी से ग्रेजुएट थी उनके पति जगदीश शर्मा बुलन्दशहर में एडवोकेट थे आश्रम से अपनी परिवारिक समस्या को लेकर जुडी तब उन्हें गम्भीर ध्यान और उसके उच्चतम अनुभव करने की बड़ी इच्छा थी उस समय वे स्वयं ही दुर्गासप्तशती का पाठ और निर्वाण मंत्र का लगभग अखण्ड जप करती थी परन्तु स्वप्न में सामान्य देव देवी मंदिर दर्शन आदि तो कभी भयावह दर्शन ही देखती बताती की इनसे चित्त बुद्धि में कोई विशेष परिवर्तन नही होता है बस अच्छा लगता है आप कृपा करें एक दिन शुक्रवार और शनिवार की मध्य रात्रि में मैने ध्यान में देखा की मेरे घर पर कुछ तांत्रिक लोग आये है उन्होंने मुझसे कहा की हम तुम्हें एक सिद्ध विद्या देंगे इस लिए अपने हाथ जोड़कर बैठ जाओ मेने वेसा ही किया तब उन्होंने मेरे एक हाथ की मध्यमा ऊँगली पर बिच्छू और दूसरे हाथ की मध्यमा पर एक छोटा सर्प रख दिया अब ये दोनों एक दूसरे से शत्रुता भाव से आक्रमक अवस्था में आ गए मुझे लगा की इनमे से कोई भी अपने वार में चूका तो मेरे को ही इनका डंक लगेगा और मैं विष से अंधा हो जाऊंगा और साथ ही देखा मेरी ऐसी स्थिति करके वे तांत्रिक घर लूट कर चले गए अब इस मुसीबत से कैसे पीछा छुडाउ तब मुझे उपाय सुझा की सामने शीशे में इन्हें इनका प्रतिबिम्ब दिखता हूँ ये उसे देखा उसकी और भागेंगे यही हुआ मेने तुरन्त हाथ झटका और उन्हें गिरा दिया तब भी मुझे लगा की मुझे इनका डंक लगा है अब मैं अँधा हो जाऊंगा और इस भाव के आते ही बड़ी कमजोरी आती गयी तभी एक अँधेरे से आवाज आई की जाओ मन्दिर का प्रसाद खा लो मेने कहा मुझसे उठा नही जा रहा तब वहीं से दो कन्या आई उन्होंने मुझे पकड़ा और सामने के मन्दिर के बन्द द्धार पर छोड़ खड़ी हो गयी मेने अपने सिर के धक्के से द्धार खोला पर वहां अंधकार था केवल घुल थी कोई प्रसाद नही दिखा तब मेने सोचा की इसी धूल में अवश्य प्रसाद के कण होंगे मेने धूल की परवाह नही करते उसे चाटना प्रारम्भ किया तो चाटते ही वो गर्म गर्म गुलदान बन गया मैं उसे खाता हुआ घुटमन चलता आगे बढ़ा तो मेरा सिर किसी जे पैरों से लगा तो दृष्टि उठा देखा तो स्वर्णाभायुक्त हनुमान जी बैठे मुझे देख रहे है और द्रश्य बदल गया मैं नेक्कर बालियान में एक स्वर्ण जड़ित आसन पर बेठा हनुमान चालीसा पढ़ रहा हूँ और सामने सिंदूर लगे जनेऊ पहने विशालकाय हनुमान जी की जीवन्त सी प्रतिमा है और दूसरी और दृष्टि पड़ने पर देखा वहाँ रेलिंग पर भी हनुमान जी बेठे नीचे से मेरे पास सीढ़ियों से ऊपर आने वाले भक्तों से प्रसाद लेते हुए बिन मेरी और देखे कुछ प्रसाद मेरी और डालते और बाकि बन्द कर उसी भक्त को वापस कर देते तब ये देख मेने विचार किया की हनुमान जी को राम नाम प्रिय है वही जप इन्हें सुनाऊ और जेसे ही श्री राम जय राम..कहा वेसे ही हनुमान प्रतिमा सुख गयी और रेलिंग पर बेठे हनुमान जी अद्रश्य हो ये देख घबरा कर पुनः हनुमान चालीसा पढ़ी टी सब पहले जैसा हो गया जबकि हनुमान चालीसा के दोहे कहीं के कही बोल रहा था फिर भी सब ठीक था तब मैं चालीसा गाता हुआ उठकर मन्दिर के दूसरे भाग की और गया वहाँ विशाल दुर्गा माँ की दिव्य प्रतिमा और भक्त आराधना कर रहे थे पर वहाँ मेरे अनेक सिखाये शिष्य लोगो को विद्या से ठग रहे ये देख मन खिन्न हुआ की ये विद्या का दुरूपयोग कर रहे लोटा तो वहाँ वही हनुमान जी भक्तों की सेवा ले प्रसाद दे रहे है तब एक भक्त एक पोटली में अनेक देवी देव की प्रतिमा शिवलिंग,गणेश जी आदि लाया तो उसका प्रसाद तो लेकर कुछ रख बाकि उसे वापस कर दिया पर वो देव देवी भरी पोटली उठाकर सीढ़ियों से नीचे फेंक दी ये देख मै नीचे को भागा अरे ये क्या किया और सीढ़ियों से लुढ़क गया और नीचे ये भक्त।महिला तारादेवी आती दिखी और साथ ही ऐसा लगा की हनुमान जी ने उठाया है मैं ऊपर आया तो सब पर बेठा चिंतन कर रहा हूँ तो मनवाणी में उत्तर आया की जेसे हनुमान जी कह रहे हो की मेरे इष्ट राम है तुम्हारे नही और तुम्हारा इष्ट मैं हूँ यो केवल मुझे ही स्मरण करो राम को नही तब मुझे लगा की सही है मैं पहले इस भक्ति कक्षा को तो पास कर लू पहले ही अपने इष्ट या अधिकारी को प्रसन्न करने के स्थान पर उसके इष्ट या अधिकारी को प्रसन्न करने में लगा हूँ की सामान्य जीवन में भी होता है की आप जिसके नीचे कार्यरत है उसे छोड़ उससे ऊपर के अधिकारी से मेल बढ़ाने या उसकी प्रशंसा करने से अपना और बड़ा दोनों अधिकारी आपको चापलूस ही समझेंगे यो जहाँ हो वही और उसी के कार्य समय और पुरे समर्पण से करने पर अपने अधिकारी के द्धारा ही आगामी अधिकारी तक आपकी कार्य कीर्ति स्वयं पहुँच जायेगी वो स्वयं आपको बुला लेगा और इसी के साथ एक और अंतर्ज्ञान हुआ की बहुत वर्षों से हनुमान चालीसा सात बार या सो बार पढ़नी चाहिए इसका समाधान मिला की जो मुझे सातो दिन स्मरण करेगा उसका कल्याण होगा तब समझ आया की ये ही सत्यार्थ है और इसी अन्तर्वार्ता के चलते ध्यान में चैतन्यता आती चली गयी तब मैं उठा और प्रातः स्नान करके अपनी गद्दी के पूजाघर की जगह घर के पूजघर में हनुमान चालीसा पढ़ता इस चिंतन में लीन था की आज के देखे क्या भावार्थ है और आज शनिवार है आज व्रत रखता हूँ तभी एक तीर्व विचार कौंधा की अरे इसका उत्तर तेरी गद्दी वाली जगह पर है मैं पूजा उपरांत भी तुरन्त चालीसा पढ़ता हुआ अपनी गद्दी पर आया तो वहाँ पर एक टेबिल पर हनुमान जी की काले मैटल की प्रतिमा रखी थी और उसके चरणों में अन्य भक्तों की लायी शिवलिंग,छोटे गणेश जी,त्रिशूल और अगरबत्ती धूपबत्ती की राख और उसमें बचा शेष गुलदाना प्रसाद पड़ा था तुरन्त समझ आया की यहाँ एक ही इष्ट की प्रतिमा है तो वही ही रहनी चाहिए यही मुझे ध्यान में दर्शन ज्ञान हुआ था तभी सब स्वच्छ किया अन्य सब प्रतिमा हटाई और हनुमान जी को स्नान करा पुनः ज्योत जला कर एकल प्रतिमा पूजा को रखी अब वही बैठ कर ध्यान करने लगा कोई दोपहर को तारादेवी आई और बैठकर अपनी व्यथा सुनाने लगी मेने कहा मन नही है और उनसे कहा जो मंत्र जपती हो वही जाप करो और उन के ऊपर गंगाजल का छींटा मारा छीटा मारते ही वे भावावेश में भर गयी और आँख बन्द ही अवस्था में आक्रोशित भाषा में बोली कैसा गुरु है मुझे बांध कर डाल दिया आग में जला रहा है ये सुन मैंने उनके सिर पर पुनः छींटा मारा तब वे तेज भावावेश कम्पित शरीर के हिलने के साथ एक दम से सहज हुयी तब थोड़ी देर में मेने उन्हें पीने को जल दिया तब वे बोली की गुरु जी जब अपने गंगाजल का छींटा मारा था और उधर में निर्वाण मंत्र का जप कर रही थी तभी मेरे मूलाधार चक्र में तेज अग्नि जल उठी और उधर कंठ की और से भी जलने लगी इस दोनों और की जलती अग्नि के बीच कोई पुरुष छाया शक्ति उस जलने से विचलित होकर चिल्ला रही थी मुझे बचाओ ये क्या था?मैं बोला ये तुम्हारे अंदर व्याप्त पूर्वजन्मों की पाप शाप शक्ति थी और तुम्हारे सूक्ष्म शरीर में जो पुरुष शक्ति है वो दूषित शापित है यो ही तो तुम्हारा लड़का कमल अशिक्षित रहा और प्रतिष्ठित घर में जन्म लेने पर भी इतनी जमीन होकर भी छोले भटूरे की दुकान करता ठेला लगता है और पति भी जो कमाते है वो सब किसी न किसी कारण नष्ट हो जाता है पुत्री संख्या ज्यादा और वे भी शिक्षित होकर अपने घरों में दुखी है अब ये भष्म हो गया है अब सम्भव है तुम्हारी आध्यात्मिक शक्ति सन्तुलित होकर उन्नति करेगी तब उन्हें धीरे धीरे गम्भीर ध्यान और भावावेश प्रारम्भ हुए एक बार ऐसे ही वे दोपहर को आई तब ये हॉल नही बना था जो आज है एक कमरा था जिसमे आज मैं विश्राम करता हूँ तब वहाँ मैं अपनी गद्दी पर तख्त पर बेठा ध्यानस्थ था वे आई सामने बैठ ध्यान करने लगी मैंने अपने अखण्ड हनुमान चालीसा का पाठ के स्वजप चलते हुए अपने सीधे हाथ का स्पर्श उनके गले से नीचे किया और उनका भावावेश बढ़ा और उनकी आँखे खुली और वे मेरे पीछे की और देखती मंद मंद हंसने लगी मैं बोला क्या दर्शन है वो मंद आवाज में बोली आपके पीछे दुर्गा माँ और सीधे हाथ पर हनुमान जी और उलटे पर काली माँ खड़ी आशीर्वाद दे रही है तब मेने अपना हाथ हटाया और मैं अपने ध्यान में लग गया तब वे बहुत देर में सहज हुयी और उन्होंने उस कमरे में सफाई की तब मैं भी ध्यान से उठा उन्हें प्रसाद दिया वे चली गयी यो उनकी आध्यात्मिक यात्रा चली पर उनसे मैं धर्म गर्न्थो का अध्ययन को कहा ताकि साधनाओं की उच्चता समझ आती है और दूसरों को अपना प्राप्त ज्ञान सही भाषा में समझा पाती पर वे घर गृहस्थी में वेसा नही कर पायी और नाहीं उन्होंने उस ग्रहस्थ से अपने को अलग किया उसी के सुख को अपना ध्यान बल उपयोग किया बाद के वर्षों में यहाँ से दूर हो गयी कभी कभी आती यो परिणाम उनकी आध्यात्मिक उन्नति वहीं रूकती हुयी विभिन्न भावेवेशों और देव देवी दर्शनों तक बनी रही लोगो उनकी ऐसी स्थिति देख उनसे देवीक आशीर्वाद की लालसा करते तो उन्होंने उन्हें आशीर्वाद भी दिया परिणाम उनकी गुरु प्रदत्त कृपा शक्ति क्षीण हो गयी अपने पोते को चुपचाप पैसे देने से घर में कलह हुयी उनका अपमान हुआ सामान्य बनी रही।
एक बार उनके पति हरबीज बीमारी से पीड़ित हुए उन्होंने अपनी आध्यात्मिक शक्ति का बिन मुझसे पूछे उपयोग किया लाभ नही हुआ क्योकि उन्होंने अपने को ही सिद्ध मान लिया गुरु को अपनी प्रार्थना से हटा दिया तब लाभ नही देख मेरे पास आई बोली गुरु जी मेरे जीवन का क्या अंत है और पति कब ठीक होंगे तब वे मेरे कहने पर अपनी आध्यात्मिक अनुभवो को लिखती मुझे दिखती थी उनकी इच्छा थी अब गुरु जी से अंत और पूछ लो फिर आने की आवशयकता नही है मेने लिख दिया वो उन्होंने उनकी मृत्यु होने और अनेक वर्षो के उपरांत मुझे वापस शरण में आने पर स्वयं दिखाया की वही लिखा हुआ यो जानो की दीक्षा और साधना का अंत जब गुरु कहे तब उसकी आज्ञा से होता है इतने शिष्य के सभी मनोरथो की स्व्यंभू पूर्ति समयानुसार केवल गुरु शक्ति ही कार्य करती है यो जेसे ही गुरु अवज्ञा प्रारम्भ तभी शिष्य का पतन प्रारम्भ जानो और गुरु बारम्बार चेताये फिर भी शिष्य अवज्ञा करता रहे तो विपदा शीघ्र जानो आज वे व्रद्धावस्था को प्राप्त है और सब समाप्त है दुखी है यो भक्तों इस कथा से ज्ञान ये है की आध्यात्मिक शक्तियों का उपयोग संसारिक कार्यों में अधिक करने से अंत में यही परिणाम प्राप्त होता है क्योकि साधक एक चुम्बक बन जाता है वो जिसको अपना तपबल देगा उसके बुरे कर्म भी साथ लेगा और अपने तो कटे नहीं है और पाप व्रद्धि होने से शीघ्र ही और भी दुर्दिनों को प्राप्त हो जाता है तभी सभी सन्त आध्यात्मिक मनुष्यों ने सहज जीवन व्यतीत किया और स्वयं ही उन्हें सर्वलाभ सुख प्राप्त हुए और होते है यो कहा है तपेश्वरी सो राजेश्वरी और राजेश्वरी सो नरकेश्वरी अर्थात तप से राजा होता है और राजा तप नही करता बल्कि उसके पूण्य को उपयोग कर खर्च करने से नरक यानि दुखों को प्राप्त होता है यही तुम्हारे वर्तमान सुखी जीवन की प्राप्ति पूर्वजन्म के तपोबल का परिणाम है और वर्तमान दुखी जीवन तुम्हारे तपोबल का दुरूपयोग करने से खर्च करने का दुखद परिणाम है।
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