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महर्षि परशुराम जी पर अपनी माता रेणुका की हत्या का महाशाप जिससे इनसे लेकर इमके सभी शिष्यों का सर्वनाश हुआ जिससे मुक्ति हेतु मातृशाप विमोचनी भगवान परशुराम कृत गायत्री मंत्र ओर आरती⚡

परशुराम भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। उनके पिता का नाम जमदग्नि तथा माता का नाम रेणुका था। परशुराम के चार बड़े भाई थे लेकिन गुणों में यह सबसे बढ़े-चढ़े थे। एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी। लेकिन मोहवश किसी ने ऐसा नहीं किया। तब मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया और उनकी विचार शक्ति नष्ट हो गई।
अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद कर दिया। यह देखकर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और परशुराम को वर मांगने के लिए कहा। तो उन्होंने तीन वरदान माँगे-
1-माँ पुनर्जीवित हो जायँ।
2-उन्हें मरने की स्मृति न रहे।
3-भाई चेतना-युक्त हो जायँ और
जमदग्नि ने उन्हें तीनो वरदान दे दिये। माता तो पुनः जीवित हो गई पर परशुराम पर मातृहत्या का पाप चढ़ गया। माता रेणुका ने जीवित होते ही स्म्रति नष्ट होने के उपरांत भी जब उन्हें अन्यों से इस विषय में पता चला तब उन्हें अपने पुत्र परशुराम का ये पिता भक्ति आज्ञा आचरण और अपनी माता के प्रति ये हत्यारत आचरण को अनुभव करते ही उन्होंने परशुराम को बुलाया और उन्हें शाप दिया की तूने बिना कारण जाने केवल एक पक्षीय वार्ता सुनकर मेरी अपनी जननी की हत्या की और स्वयं ही इस अपराध को छिपाने के लिए मेरी स्म्रति नष्ट की तथा स्वयं ही स्वेच्छित वरदान प्राप्त करता हुआ मेरी हत्या के संसार जघन्य अपराध के पाप का प्रायश्चित करने को जप तप दान किया है जबकि तुमझे मेरे संज्ञान नही होने पर भी मुझसे ही प्रार्थना करते हुए क्षमा मांगनी चाहिए थी वेसा नही किया तब मैं तेरी माता जो एक सात्विक तपोबलि स्त्री शक्ति भी है तुजगे ये शाप देती है की तू इस कृत्य के कारण अपनी विद्या,बल और पराक्रम के संसार विजित होने पर भी सदैव अधर्म का पक्ष लेने के कारण तू और तेरे सभी अनुयायी शिष्य अधर्म के पक्ष को लेने से महान होते हुए भी अपयश और ऐसे ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होंगे ये महाशाप सुनकर परशुराम ने माता के चरण पकड़ लिए तब माता ने उनके अति अनुविनय प्रार्थना के फलस्वरुप कहा की ये शाप अटल है परंतु तेरे सहित तेरे जो भी शिष्य अनुयायी होंगे वे यदि अपनी माता के कथानुसार धर्माचरण करेंगे तो अवश्य उन्हें इस शाप का बहुअंश भोगना नही पड़ेगा अन्यथा ये शाप यथास्थिति बना रहेगा ये वचन सुनकर परशुराम जी अपनी माता को प्रणाम करते हुए उनकी आज्ञानुसार शाप विमोचन व् निराकरण को तपस्या को चले गए।यो वो स्थान आज मातृकुण्डिया – चितौड़ – राजस्थान (Matrikundiya – Chittorgarh – Rajasthan)
राजस्थान के चितौड़ जिले में स्तिथ मातृकुण्डिया है जहाँ परशुराम अपनी माँ की हत्या (वध) के पाप से मुक्त हुए थे। यहां पर उन्होंने शिव जी की तपस्या की थी और फिर शिवजी के कहे अनुसार मातृकुण्डिया के जल में स्नान करने से उनका पाप धूल गया था। इस जगह को मेवाड़ का हरिद्वार भी कहा जाता है। यह स्थान महर्षि जमदगनी की तपोभूमि से लगभग 80 किलो मीटर दूर हैं।तब उन्होंने मातृउपासना आरती की रचना भी की है जो लुप्त प्राय है।
रामकथा में परशुराम जी का तेजोहरण
चारों पुत्रों के विवाह के उपरान्त राजा दशरथ अपनी विशाल सेना और पुत्रों के साथ अयोध्या पुरी के लिये चल पड़े। मार्ग में अत्यन्त क्रुद्ध तेजस्वी महात्मा परशुराम मिले। उन्होंने राम से कहा कि वे उसकी पराक्रम गाथा सुन चुके हैं, पर राम उनके हाथ का धनुष चढ़ाकर दिखाएँ। तदुपरान्त उनके पराक्रम से संतुष्ट होकर वे राम को द्वंद्व युद्ध के लिए आमंत्रित करेंगे। दशरथ अनेक प्रयत्नों के उपरान्त भी ब्राह्मणदेव परशुराम को शान्त नहीं कर पाये। परशुराम ने बतलाया कि ‘विश्वकर्मा ने अत्यन्त श्रेष्ठ कोटि के दो धनुषों का निर्माण किया था। उनमें से एक तो देवताओं ने शिव को अर्पित कर दिया था और दूसरा विष्णु को। एक बार देवताओं के यह पूछने पर कि शिव और विष्णु में कौन बलबान है, कौन निर्बल- ब्रह्मा ने मतभेद स्थापित कर दिया। फलस्वरूप विष्णु की धनुष टंकार के सम्मुख शिव धनुष शिथिल पड़ गया था, अतः पराक्रम की वास्तविक परीक्षा इसी धनुष से हो सकती है। शान्त होने पर शिव ने अपना धनुष विदेह वंशज देवरात को और विष्णु ने अपना धनुष भृगुवंशी ऋचीक को धरोहर के रूप में दिया था, जो कि मेरे पास सुरक्षित है।’
राम ने क्रुद्ध होकर उनके हाथ से धनुष बाण लेकर चढ़ा दिया और बोले – ‘विष्णुबाण व्यर्थ नहीं जा सकता। अब इसका प्रयोग कहाँ पर किया जाये।’ परशुराम का बल तत्काल लुप्त हो गया। उनके कथनानुसार राम ने बाण का प्रयोग परशुराम के तपोबल से जीते हुए अनेक लोकों पर किया, जो कि नष्ट हो गये। परशुराम ने कहा – ‘हे राम, आप निश्चय ही साक्षात विष्णु हैं।’ तथा परशुराम ने महेन्द्र पर्वत के लिए प्रस्थान किया। राम आदि अयोध्या की ओर बढ़े। उन्होंने यह धनुष वरुण देव को दे दिया। परशुराम की छोड़ी हुई सेना ने भी राम आदि के साथ प्रस्थान किया।
दूसरा प्रसंग
राम के पराक्रम की परीक्षा
राम का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गये। दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज़ पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज़ को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज़ पुनः प्राप्त किया।
अन्य प्रसंग
भीष्म द्धारा परशुराम जी को परास्त करना:-
महाभारत: उद्योग पर्व: पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
देवताओं के मना करने से भीष्‍म का प्रस्वापनास्त्र को प्रयोग में न लाना तथा पितर, देवता और गंगा के आग्रह से भीष्‍म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति पर
भीष्‍मजी कहते हैं- राजन! कौरवनन्दन! तदनन्तर ‘भीष्‍म! प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग न करो’ इस प्रकार आकाश में महान कोलाहल मच गया। (1)
तथापि मैंने भृगुनन्दन परशुरामजी को लक्ष्‍य करके उस अस्त्र को धनुष पर चढा़ ही लिया। मुझे प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग करते देख नारदजी ने इस प्रकार कहा- (2)
‘कुरुनन्दन! ये आकाश में स्वर्गलोक के देवता खडे़ हैं। ये सबके सब इस समय तुम्हें मना कर रहे हैं, तुम प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग न करो। (3)
‘परशुरामजी तपस्वी, ब्राह्मणभक्त, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण और तुम्हारे गुरु हैं। कुरुकुलरत्न! तुम किसी तरह भी उनका अपमान न करो।’ (4)
राजेन्द्र! तत्पश्‍चात मैंने आकाश में खडे़ हुए उन आठों ब्रह्मवादी वसुओं को देखा। वे मुसकराते हुए मुझसे धीरे-धीरे इस प्रकार बोले- (5)
‘भरतश्रेष्‍ठ! नारदजी जैसा कहते हैं, वैसा करो। भरतकुलतिलक! यही सम्पूर्ण जगत के लिये परम कल्याणकारी होगा।’ (6)
तब मैंने उस महान प्रस्वापनास्त्र को धनुष से उतार लिया और उस युद्ध में विधिपूर्वक ब्रह्मास्त्र को ही प्र‍काशित किया। (7)
राजसिंह! मैंने प्रस्वापनास्त्र को उतार लिया है- यह देखकर परशुरामजी बड़े प्रसन्न हुए। उनके मुख से सहसा यह वाक्य निकल पड़ा कि ‘मुझ मन्दबुद्धि को भीष्‍म ने जीत लिया।’ (8)
इसके बाद जमदग्निकुमार परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि को तथा उनके भी माननीय पिता ॠचीक मुनि को देखा। वे सब पितर उन्हें चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये और उस समय उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले। (9)
पितरों ने कहा- तात! फिर कभी किसी प्रकार भी ऐसा साहस न करना। भीष्‍म और विशेषत: क्षत्रिय के साथ युद्धभूमि में उतरना अब तुम्हारे लिये उचित नहीं हैं। (10)
भृगुनन्दन! क्षत्रिय का तो युद्ध करना धर्म ही है; किंतु ब्राह्मणों के लिये वेदों का स्वाध्‍याय तथा उतम व्रतों का पालन ही परम धर्म है। (11)
यह बात पहले भी किसी अवसर पर हमने तुमसे कही थी। शस्त्र उठाना अत्यन्त भयंकर कर्म है; अत: तुमने यह न करने योग्य कार्य ही किया है। (12)
महाबाहो! वत्स! भीष्‍म के साथ युद्ध में उतरकर जो तुमने इतना विध्‍वंसात्मक कार्य किया है, (13)
भृगुनंदन कल्याण हो। दुर्धर्ष वीर! तुमने जो धनुष उठा लिया, यही पर्याप्त है। अब इसे त्याग दो और तपस्या करो। देखो, इन सम्पूर्ण देवताओं ने शान्तनुनन्दन भीष्‍म को भी रोक दिया है। वे उन्हें प्रसन्न करके यह बात कह रहे हैं कि ‘तुम युद्ध से निवृत्त हो जाओ। परशुराम तुम्हारे गुरु हैं। तुम उनके साथ बार-बार युद्ध न करो। कुरुश्रेष्‍ठ! परशुराम को युद्ध में जीतना तुम्हारे लिये कदापि न्यायासंगत नहीं हैं। गंगानन्दन! तुम इस समरांगण में अपने ब्राह्मणगुरु का सम्मान करो।’ (14-16)
बेटा परशुराम! हम तो तुम्हारे गुरुजन- आदरणीय पितर हैं। इसलिये तुम्हें रोक रहे हैं। पुत्र! भीष्‍म वसुओं में से एक वसु है। तुम अपना सौभाग्य ही समझो कि उनके साथ युद्ध करके अब तक जीवित हो। (17)
भृगुनन्दन! गंगा और शान्तनु के ये महायशस्वी पुत्र भीष्‍म साक्षात वसु ही हैं। इन्हें तुम कैसे जीत सकते हो? अत: यहां युद्ध से निवृत्त हो जाओ। (18)
प्राचीन सनातन देवता और प्रजापालक वीरवर भगवान नर इन्द्रपुत्र महाबली पाण्‍डव श्रेष्ठ अर्जुन के रूप में प्रकट होंगे तथा पराक्रमसम्पन्न होकर तोनों लोकों में सव्यसाची के नाम से विख्‍यात होंगे। स्वयम्भू ब्रह्माजी ने उन्हीं को यथासमय भीष्‍म की मृत्यु में कारण बनाया है। (19-20)
भीष्‍मजी कहते हैं- राजन! पितरों के ऐसा कहने पर परशुरामजी ने उनसे इस प्रकार कहा- ‘मैं युद्ध में पीठ नहीं दिखाऊंगा। यह मेरा चिरकाल से धारण किया हुआ व्रत है। (21) पंचाशीत्यधिकशततम (185) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-37 का हिन्दी अनुवाद
‘आज से पहले भी मैं कभी किसी युद्ध से पीछे नहीं हटा हूँ। अत: पितामहो! आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार पहले गंगानन्दन भीष्‍म को ही युद्ध से ही निवृत्त कीजिये। मैं किसी प्रकार पहले स्वयं ही इस युद्ध से पीछे नहीं हटूंगा।’ (22)
राजन! तब वे ऋचीक आदि मुनि नारदजी के साथ मेरे पास आये और इस प्रकार बोले- तात! तुम्हीं युद्ध से निवृत्त हो जाओ और द्विजश्रेष्‍ठ परशुरामजी का मान रखो।’ (23-24)
तब मैंने क्षत्रिय धर्म का लक्ष्‍य करके उनसे कहा- ‘म‍हर्षियो! संसार में मेरा यह व्रत प्रसिद्ध है कि मैं पीठ पर बाणों की चोट खाता हुआ कदापि युद्ध से निवृत्त नहीं हो सकता। मेरा यह निश्चित विचार है कि मैं लोभ से, कायरता या दीनता से, भय से अथवा किसी स्वार्थ के कारण भी क्षत्रियों के सनातन धर्म का त्याग नहीं कर सकता।’ (25-26)
इतना कहकर मैं पूर्ववत धनुष-बाण लिये दृढ़ निश्‍चय के साथ समरभूमि में युद्ध करने के लिये डटा रहा। राजन! तब वे नारद आदि सम्पूर्ण ऋषि और मेरी माता गंगा सब लोग उस रणक्षेत्र में एकत्र हुए और पुन: एक साथ मिलकर उस समरांगण में भृगुनन्दन परशुरामजी के पास जाकर इस प्रकार बोले- (27-28)
‘भृगुनन्दन! ब्राह्मणों का हृदय नवनीत के समान कोमल होता हैं; अत: शान्त हो जाओ। विप्रवर परशुराम! इस युद्ध में निवृत्त हो जाओ। भार्गव! तुम्हारे लिये भीष्‍म और भीष्‍म के लिये तुम अवश्‍य हो। (29-30)
इस प्रकार कहते हुए उन सब लोगों ने रणस्थली को घेर लिया और पितरों ने भृगुनन्दन परशुराम से अस्त्र-शस्त्र रखवा दिया। (31)
इसी समय मैंने पुन: उन आठों ब्रह्मवादी वसुओं को आकाश में उदित हुए आठ ग्रहों की भांति प्रकाशित होते देखा। (32)
उन्होंने समरभूमि में डटे हुए मुझसे प्रेमपूर्वक कहा- ‘महाबाहो! तुम अपने गुरु परशरामजी के पास जाओ और जगत का कल्याण करो।’ (33)
अपने सुहृदों के कहने से परशुरामजी को युद्ध से निवृत्त हुआ देख मैंने भी लोक की भलाई करने के लिये उन महर्षियों की बात मान ली। (34)
तदनन्तर मैंने परशुरामजी के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। उस समय मेरा शरीर बहुत घायल हो गया था। महातेजस्वी परशुराम मुझे देखकर मुसकराये और प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले। (35)
‘भीष्‍म! इस जगत में भूतल पर विचरने वाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हारे समान नहीं हैं। जाओ, इस युद्ध में तुमने मुझे बहुत संतुष्‍ट किया है।’ (36)
फिर मेरे सामने ही उन्होंने उस कन्या को बुलाकर उन सब महात्माओं के बीच दीनतापूर्ण वाणी में उससे कहा- (37)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में युद्धनिवृत्तिविषयक एक सौ पचासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।
षडशीत्यधिकशततम (186) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: षडशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
अम्बा की कठोर तपस्या
परशुराम बोले- भाविनी! यह सब लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है कि मैंने तेरे लिये पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया और महान पुरुषार्थ दिखाया है। (1)
परंतु इस प्रकार उत्तमोत्तम अस्त्र प्रकट करके भी मैं शस्त्रधारियों में श्रेष्‍ठ भीष्‍म से अपनी अधिक विशिष्‍टता नहीं दिखा सका (2)
मेरी अधिक-से-‍अधिक शक्ति, अधिक-से-अधिक बल इतना ही है। भद्रे! अब तेरी जहाँ इच्छा हो, चली जा, अथवा बता, तेरा दूसरा कौन-सा कार्य सिद्ध करूं? (3)
अब तू भीष्‍म की ही शरण ले। तेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं हैं; क्योंकि महान अस्त्रों का प्रयोग करके भीष्‍म ने मुझे जीत लिया है। (4)
ऐसा कहकर महामना परशुराम लंबी सांस खींचते हुए मौन हो गये। तब राजकन्या अम्बा ने उन भृगुनन्दन से कहा- (5)
‘भगवन! आपका कहना ठीक है। वास्तव में ये उदारबुद्धि भीष्‍म युद्ध में देवताओं के लिये भी अजेय है। (6)
‘आपने अपनी पूरी शक्ति लगाकर पूर्ण उत्साह के साथ मेरा कार्य किया है। युद्ध में ऐसा पराक्रम दिखाया है, जिसे भीष्‍म के सिवा दूसरा कोई रोक नहीं सकता था। इसी प्रकार आपने नाना प्रकार के दिव्यास्त्र भी प्र‍कट किये हैं। (7)
‘परंतु अन्ततोगत्वा आप युद्ध में उनकी अपेक्षा अपनी विशेष्‍यता स्थापित न कर सके। मैं भी अब किसी प्रकार पुन: भीष्‍म के पास नहीं जाऊंगी। (8)
‘भृगुश्रेष्‍ठ तपोधन! अब मैं वहीं जाऊंगी, जहाँ ऐसा बन सकूं कि समरभूमि में स्वयं ही भीष्‍म को मार गिराऊं। (9)
ऐसा कहकर रोष भरे नेत्रों वाली वह राजकन्या मेरे वध के उपाय का चिन्तन करती हुई तपस्या के लिये दृढ़ संकल्प लेकर वहां से चली गयी। (10)
भारत! तदनन्तर भृगुश्रेष्‍ठ परशुरामजी उन महर्षियों के साथ मुझ से विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही महेन्द्र पर्वत पर चले गये। (11)
महाराज! तत्पश्‍चात मैंने भी ब्राह्मण के मुख से अपनी प्रशंसा सुनते हुए रथ पर आरूढ़ हो हस्तिनापुर में आकर माता सत्यवती से सब समाचार यथा‍र्थ रूप से निवेदन किया। माता ने भी मेरा अभिनन्दन किया।यो आगे चलकर महाभारत युद्ध में श्री परशुराम जी के सभी प्रमुख शिष्य भीष्म,द्रोणाचार्य,,कर्ण अधर्म का साथ देने से वध होकर वीरगति को प्राप्त हुए और जो बचे जैसे-कृपाचार्य,अश्वत्थामा जो द्रोणाचार्य का पुत्र और शिष्य था वो भी परशुराम जी की ही दी विद्या का दुरूपयोग कर सारे जीवन अमरता प्राप्त करता शापित जीवन जीया और उसके साथ कृपाचार्य भी अमर होकर शापित और अज्ञात जीवन जीते भटक रहे है जबकि पांडवों ने विशेषकर अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य के उपरान्त इंद्र देव और भगवान शिव को अपना गुरी बनाकर उच्चतर धनुर्विद्या ग्रहण की और सदैव श्री कृष्ण के सर्वाधिक प्रिय और संरक्षित होकर धर्म युद्ध किया यो ये सदैव अमरता के परमयश की प्राप्त हुए।यो ये है माता के रूप में स्त्री के अपमान का भयानक शाप जो किसी भी तप,जप,दान,स्नान आदि ने नही कटता है यो यदि परशुराम अपनी माता रेणुका से छमा मांग लेते तो अवश्य इतने भीषण आजन्म स्वयं सहित शिष्यों तक भी महाशाप से मुक्ति पा जाते आठ स्मरण रहे यो ही इसका उपाय केवल स्वयं माता की ही या स्त्री शक्ति की आत्मप्रसन्नता के फलस्वरुप उसी के द्धारा किये छमादान कृपा प्रदान से समाप्त होकर वरदान रूप में प्राप्त होता है यो इस महान कथा से सदैव स्मरण रखे की कोई कितना ही महान व्यक्तित्त्व हुआ हो वो यदि माता या बहिन,पुत्री या परनारी का अपमान करता है उसकी स्वयं से लेकर जाने कितनी पीढियां सब शापित हो कर अपयश को प्राप्त होती है यो सदा स्त्री का सम्मान करो।
छटावतार भगवान श्री परशुराम जी की लुप्त प्राय संस्कृत की मातृ शाप विमोचनि रचना का हिंदी अनुवादिक रचना
?? श्री माँ की सर्ववरदायी शापविमोचनी आरती?‍?‍???
ॐ जय जयति माता,माता जय जयति माता..
ईश्वर की तुम जीवित-2,ममतामयी नाता।ॐ जय जयति माता।।
ब्रह्म चैतन्य तुम्हीं ही करती,और सृष्टि ले ब्रह्म बीज-2..और..
नर भी पिता तुम्हीं कारण-2,तुम्हीं प्रेम जग रीझ।।ॐ जय जयति माता।।
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तुम्हीं हो शिक्षक प्रथम-2,अमृत ज्ञान दे पीव।ॐ जय जयति माता।।
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एक माँ ही जग में जीवित ईश्वर-2,माँ ध्याय पाये सब विद्य।ॐ जय जयति माता।।
बोलो?अपनी जीवित माता जी की जय?

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